लो क सं घ र्ष !: अमेरिकन साम्राज्यवाद : अंतिम भाग

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

महायुद्ध
यूरोप में लड़ी गयी दो लड़ाइयों को विश्वयुद्ध संज्ञा दी जाती है- प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध। किंतु ज्यादा सही बात यह है कि दुनियां का प्रथम महायुद्ध सं0 रा0 अमेरिका ने पश्चिमी गोलार्द्ध में शुरू किया। यह युद्ध लातिन अमेेरिका कब्जाने के लिये स्पेन से लड़ा गया। स्पेन-अमेरिका युद्ध 1898 हुआ, जिसमें जीर्णशीर्ण स्पेन का राजतंत्र हार गया। फिर तो लातिन अमेरिका में यूरोप का प्रभाव घटता गया और वह धीरे-धीरे पूरी तरह सं0 रा0 अमेरिका के प्रभाव में आ गया। इसने प्रशांत महासागर के हवाई द्वीप पर कब्जा किया और फिलीपींस को भी दबाया। इस तरह पश्चिमी गोलार्द्ध से यूरो को निकाल बाहर कर अमेरिका ने उसे अपना गलियारा बनाया।
लातिन अमेरिकी देशों का शोषण-दोहन करने के लिये उसने एक मनरो सिद्धांत अपनाया, जिसके अंतर्गत वहां यूरोपियन देशों का हस्तक्षेप अवांछित करार दिया गया। सर्वविदित है, यूरोप के दोनों ही विश्वयुद्धों में अमेरिकी नीति मुनाफा कमाने की रही।
अलबत्ता द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत सोवियत यूनियन जब विश्वशक्ति के रूप में उभरा और समाजवादी अर्थव्यवस्था समानांतर विश्वव्यवस्था के रूप में सामने आयी तो अमेरिका के साम्राज्यवादी मंसूबो पर पाबंदी लगी।
सोवियत कम्यूनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस में समाजवादी निर्माण की समस्याओं पर प्रस्तुत अपने आलेख में स्तालिन ने स्पष्ट कियाः ’’ अब दुनिया में युद्ध नहीं होगा।’’ इसका कारण बताते हुए स्तालिन ने कहाः ’’सोवियत यूनियन युद्ध नहीं करेगा, क्योंकि वह शांति का पक्षधर है और अमेरिका सोवियत पर हमला करने का साहस नहीं करेगा, क्योंकि तब उसके सामने उसका अस्तित्व मिट जाने का वास्तविक खतरा उपस्थित होगा। स्तालिन की यह भविष्यवाणी सोवियत यूनियन की अमोध सामरिक ताकत पर आधारित थी। हमने देखा कि जब तक सोवियत यूनियन अस्तित्व में था तब तक सिर्फ शीतयुद्ध चलता रहा, किंतु वास्तविक युद्ध कभी नहीं हुआ।
सोवियत यूनियन के विघटन के बाद ही खाड़ी युद्ध प्रारंभ हुआ और योगोस्लाविया, इराक और अफगानिस्तान में वास्तविक युद्धों का अटूट सिलसिला चल पड़ा। अमेरिकी साम्राज्यवादी मंसूबा इस कदर बढ़ा कि उसने एकधू्रवीय विश्व अर्थव्यवस्था बनाने की एकतरफा घोषणा कर दी। वाशिंगटन कंसेंशन वास्तविक रूप में विश्व अर्थव्यवस्था का अमेरिकीकरण अभियान है। अंधाधुंध सट्टेबाजी के चलते वित्तीय संस्थानों का फेल होना और व्याप्त मौजूदा विश्वमंदी ने इस अभियान पर प्रश्न चिन्ह लगाया है और दुनिया को इसके दुष्परिणामों से सावधान किया है। राष्ट्रपति ओबामा के स्टेट आफ यूनियन को संबोधित ताजा संबोधन में अमेरिकी प्रभुत्व पुर्नस्थापित करने की छटपटाहट झलकती हैं। ओबामा को नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया है, पर यह तो उसकी घोषणाओं के महज आश्वासनों पर आधारित पाक मंशा है।ओबामा ने राष्ट्रपति पद संभालने के साथ प्रिज्म कैम्प बंद करने, इसरायल, फिलिस्तीनी वार्ता प्रारंभ करने, अलकायदा आतंक के अलावा क्यूबा के साथ संबंध सुधारनें की इच्छा प्रकट की थीं। ओबामा की इन घोषणाओं से दुनियां के शांतिकामी लोगों में आशा का संचार हुआ था। लगता है, ओबामा यह सब भूलते जा रहे है।
पूँजीवाद युद्ध केा जन्म देता है। गुजरी सदी के सभी युद्ध अतिरिक्त माल का बाजार ढूढ़ने के निमित्त लड़े गयो। वर्तमान वैश्वीकरण माल खपाने और मुनाफा कमाने की साम्राज्यवादी योजना का नाम है। तीसरी दुनिया के नवआजाद देशों ने अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप आत्मनिर्भर स्वावलंबी राष्ट्रीय अर्थतंत्र का निर्माण किया। फलतः साम्रज्यवादी देशों का बाजार सिकुड़ गया। 1980 आते-आते उन देशों में मंदी छा गयी। इस मंदी से निबटने के लिये नव आजाद देशों के स्वावलंबी राष्ट्रीय अर्थतंत्र को तोड़ना जरूरी था। तभी उनके मालों की लिये नया बाजार मिल सकता था। इसके लिये अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक की मार्फत विकासमान देशों पर उदारीकरण और निजीकरण की शर्त थोपी थी। यहां यह भी ध्यातव्य है कि पूँजी और माल के बेरोकटोक मुक्त वैश्विक प्रवाह की वकालत की गयी, वहीं दूसरी तरफ श्रमिकों की आवाजाही पर रोक लगायी गयी। अमेरिका और यूरोपियन देशों में भारतीय श्रमिकों पर हमले हुएं। उन्हें देश निकाला गया। इस तरह विकसित औद्योगिक देशों के हित में पक्षपातपूर्ण साम्राज्यवादी वैश्वीकरण चलाया गया, जिसके परिणामस्वरूप देश के अन्दर और देशों के बीच गरीबी और अमीरी का फासला विस्फोटक सीमा तक फैल गया।
यद्यपि विकसित देशों में व्याप्त मौजूदा मंदी और वित्तीय संकट ने एकध्रुवीय दुनिया बनाने के मसूबे को तोड़ दिया है, फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक-सामरिक ताकत का विश्वव्यापी प्रभुत्व बरकरार है। और यह भी कि यूरोपियन यूनियन, शंघाई कोआपरेशन, ब्रिक वार्ता, (ब्राजील$रशिया$इ्रडिया$चायना) एवं अन्य क्षेत्रीय संगठनों ने दुनिया की बहुध्रुवीय बना दिया है, फिर भी मिलिटरी फैक्ट से बंधा मौजूदा अन्तराष्ट्रीय बाजार और विश्व अर्थ व्यवस्था का वास्तविक नियामक समूह-7 बना हुआ हैं। समूह-7 के देश असमान पक्षपातपूर्ण परमाणु अप्रसार संधि (एन पी टी) के माध्यम से स्वयं तो परमाणु हथियारो का जखीरा रखते है, किंतु दूसरों को परमाणु विकसित करने के अधिकार से रोकते है। जलवायु परिवर्तन की मसले पर कोपनहेगन सम्मलन में अमेरिका सहित विकसित देशों ने एकतरफा कार्बन उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता से अपने को मुक्त कर लिया है, वहीं दूसरी तरफ इसने विकासमान देशों के कार्बन उत्सर्जन की मानिटरिंग और नियमन करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है। जाहिर है, ऐसे उपायों से अमेरिका को आर्थिक चुनौती देनेवालो की धार कुंद हुई हैं।
ऐसे में पूँजी के वैश्विक आक्रमण से मानवता की हिफाजत की जिम्मेदारी मजदूर वर्ग पर आती है। विश्व पूँजी के बढ़ते आक्रमण को श्रमिकों की एकजुट अंतराष्ट्ीय कार्रवाई लगाम दे सकती है। भारत के प्रमुख केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों ने हाल के दिनों में तात्कालिक महत्व के पाँच मुद्दों पर संयुक्त कार्रवाईयां की है। यह ट्रेड यूनियनों की नयी एकता का सुखद संदेश हैं। 14 सितम्बर का दिल्ली संयुक्त कनवेंशन, 28 अक्टूबर की राष्ट्व्यापी संयुक्त रैलियां और 16 दिसम्बर को संसद के समक्ष विराट धरना ने मजदूर वर्ग में एकता का नया उत्साह पैदा किया है। सभी संकेत बताते हैं कि 5 मार्च को होनेवाला राष्ट्व्यापी सत्याग्रह ऐतिहासिक होगा। उस दिन दस लाख से ज्यादा मजदूर एवं कर्मचारी सत्याग्रह करके अपनी गिरफतारी देंगे। हमें आशा करनी चाहिए कि विश्व साम्राज्यवाद के विरूद्ध यह मजदूर वर्गीय कार्यवाई आगे आनेवाले दिनों में और भी ज्यादा व्यापक होगी।

-सत्य नारायण ठाकुर
loksangharsha.blogspot.com

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