शुरूआत
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
जीवन से ऊबकर व्यवस्था से निराश चट्टान के कगर पर खड़ा सामने वितत-विशाल-औंडा-ताल पूछा स्वयं से,"सोच ले फिर से, क्या मरना ज़रूरी है?" "हाँ," -दू टूक-सा दिया मैंने उत्तर और कूद पड़ा झट से; तीखी थी छलाँग, ताल ने भी नहीं मचाया शोर ना ही कहीं उठी हिलोर व्यवस्था को पता ही नहीं चला कब मैं मर गया । निष्ठ्यूत पीक की तरह ताल ने भी तत्काल मुझे उगल दिया और पानी की थिर ज़मीन पर मैं आ लगा मेरी लोथ पर किसी का भी नहीं ध्यान था कुछ बोटिंग मे मग्न थे कुछ लड़कियों की बातों में रमे तो कुछ मच्छियों की ताक मे दूरतर फैला रहे थे जाल मैं स्तब्ध था सनातन परम्परा की अवहेलना से अवाक उस घिर आई रात में ताल से भी निकाला गया तट के कीचड़ मे औंधा कई रोज़ पड़ा रहा लावारिसों की तरह न कोई मक्खी आई न कोई गिद्ध न चींटियाँ न पुलिस न संबधी न समाज न ही व्यवस्था चरमराई मैं फूट-फूटकर बिखर गया जीवन भर जानबूझकर अपदस्थ किया गया मृत्यु पश्चात ऐसा तिरस्कार मैं मर कर भी निराश रहा कि तभी दृष्टि-परिधि के अंत में कुछ छवियाँ तिर आई वह वृक्ष तल का क्षौरिक, वह पौरिया,वह घुरबिनिया, वह बेडनी, वह बूढा खींचता था जो असबाबी ठेला खड़ी चढ़ाई पर अंत में सबों को चीरकर रोम का वह गुलाम स्पार्टकस* एक थ्रेसियन, जिसने जीवन को भोगा, व्यवस्था को समझा जिसके लिये जीवन-विरूद्ध न कोई प्रश्न था न कोई तर्क वरन कुछ था तो मात्र आशाओं के फ़लक-बोस-हर्म्य हुलासित हृद्य हुलालित अंतःकरण और जीवन के प्रति अगाध प्रेम, वे सब आए बिना बोले सस्मित,मैने देखा,महसूस किया हर ओर हर जगह हर देश में स्पार्टकस फैले पड़े हैं जो मरकर भी जीते हैं संघर्ष करते हैं सिर्फ जीते हैं अब मैं चुप था, उदास; किंतु दशमलव मात्र भी नहीं निराश, रात कट चुकी थी भोर उमग रही थी सहसा एक अज्ञात चेतना से देह हिल उठी कहीं हवा लहराई, जीवन की तलाश में हवा के विपरीत आकर्षित गंधानुसरण करतीं कुछ डायोप्टैरंस* मेरे कानों में भिनभिना उठीं, आंतरिक अपघटन आरंभ हो चुका था, मैं बजबजा रहा था , संभवतया यही मेरा प्रायश्चित था यही शुरूआत..........। स्पार्टकस – हावर्ड फ़ोस्ट की कालजयी कृति आदि विद्रोही का नायक डायोप्टैरंस - शव पर सबसे पहले-पहल आने वाली मक्खियां प्रणव सक्सेना amitraghat.blogspot.com |
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1 टिप्पणियाँ:
प्रणव जी गहरी अभिव्यक्ति है अंदर झकझोरती है लेकिन भड़ास पर मौजूद हम जैसे निपट गंवारों को तो बस बेहूदा सड़क पर पान थूकते दारू की गंध से सने शब्दों की ही समझ है..... सो झकझोरती तो है पर हमारी तो धूल तक नही झड़ती...
रोटी...
रोजगार...
तिरस्कार...
बहिष्कार...
तेरी मां की....
तेरी बहन की....
ये हमारी गद्य कविताएं बन जाती हैं जीवन काव्यमय हो चला है
जय जय भड़ास
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