माय सरनेम इज़ नौट खान

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

ये बात कुछ समय पहले एक कश्मीरी पंडित से मुलाकात हुई थी जिसने कि बहुत ही दुखी मन से आंखों में आंसू भरे हुए अपने बारे में बताया था कि किस तरह काश्मीर में वहां के गैर मुस्लिमों को अपने घर छोड़ कर भागना पड़ा था। उस व्यक्ति ने बहुत पहले ये वाक्य कहा था मुझे नहीं पता कि ये बात करन जौहर तक कैसे पहुंच गयी लेकिन उन्होंने तो इसे राष्ट्रीय स्तर से उठा कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा दिया। पीड़ाएं एक जैसी हैं अपने देश में बेगाना बन कर रहने की पीड़ा शायद करन जौहर को कम जान पड़ी इसलिये मामले को "खान" का बखान करके अमेरिका जैसी महाशक्ति के साथ खड़ा करके विषय को बड़ा करा।
मैंने अपने मित्र शिरीष खरे जी से इस विषय पर बात करी तो उन्होंने इस फिल्म के बारे में जो कहा वह आप सब जान लीजिये कि चूंकि शाहरुख खान भावों को सही तरीके से वैसे भी अभिव्यक्त नहीं कर पाते इस लिये इस फिल्म में उन्हें अभिनय के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ा बस बीमारी के कंधे पर बंदूक चला ली। शिरीष भाई ने शाहरुख खान के अभिनय की सीमा को सही समझ पाया है।
फिल्म के प्रमोशन के लिये आमिर खान बेचारे ईडियट बने पूरे देश में घूमे लेकिन करन जौहर ने सही प्रयास करा और शिवसेना को साध लिया जिसके चलते शिवसैनिक और बुढ़ऊ ठाकरे बवाल मचवा कर फिल्म को अच्छा खासा हिट कराए दे रहे हैं। अब तो एक चलन बन गया है कि किसी भी ताकतवर राजनेता को या तो सचमुच उंगली कर दो या विवादास्पद बयान दे दो फिल्म अपने आप हिट हो जाती है।
करन जौहर अगर फिल्म का नाम रखते माय नेम इज़ रिज़वान..... या माय सरनेम इज़ खान...... तो सोचिये का होता इस फिल्म का???
कुल मिलाकर एक औसत कहानी है जिसे बड़े प्रयासों से चलने और अधिकतम लाभ देने की स्थिति तक पहुंचा लिया गया है। करन जौहर और शाहरुख खान दोनो महान हैं
जय जय भड़ास

1 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

u rockss......

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