लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -1
रविवार, 30 मई 2010
(पंखहीन बुलबुल)
20 जनवरी 1858ई0 को बवक़्ते सुबह दीवाने ख़ास क़िला देहली। यह हिन्दुस्तान की तारीख़ के लिए एक अहम मोड़ है। हिन्दुस्तान को गु़लामी की ज़जीरों में जकड़ने के लिए एक आख़िरी चाल चली जा रही है। आज हिन्दुस्तान की आज़ादी की आख़िरी किरन तारीकी के हाथों मिटाई जा रही है और हिन्दुस्तान ग़ुलामी के एक तवील (लम्बे) दौर में क़दम रखता है।
इस दिन क़िला-देहली के दीवाने ख़ास में देहली के आख़िरी ताजदार और मुग़ल ख़ानदान के आख़िरी चिराग़ बहादुर शाह ज़फ़र के मुक़दमे का पहला-पहला इजलास शुरू होता है। प्रेसीडेंट, मेम्बरान, वकील-सरकार मौजूद हैं। मुल्ज़िम मुहम्मद बहादुर शाह साबिक़ (भूतपूर्व) शाह देहली को लाया जाता है।
इजलास के मुजतमअ़ (इकट्ठा) करने और लेफ्टिनेन्ट कर्नल डास को प्रेसीडेंट बनाने के एहकाम पेश होते और पढ़े जाते हैं। अफसरान मुतअय्यिना (नियुक्त) के नाम मुल्जिम की मौजूदगी में पढ़े जाते हैं।
मुल्जिम से अदालत का सवाल-आपको मौजूदा मेम्बरान जेवरी (पंचगण) व प्रेसीडेंट के मुक़दमे की समाअत (सुनवाई) करने में कोई एतराज है?
जवाब-मुझे कोई एतराज नहीं है।
दुनिया की ज़िन्दगी कितनी फ़रेबदह, कितनी झूठी है कि देखिए बाबरी ख़ानदान के आखिरी चश्मो चिराग़, दिल्ली के आखिरी ताजदार और मुल्के सुखन के शहसवार बहादुर शाहज़फ़र, आज 20 जनवरी 1858ई0 को अपने महल के दीवाने खास में एक समाअ़त में एक मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से लाए जाते हैं और उनसे सवाल किया जा रहा है कि ‘‘मौजूदा मेम्बरान जेवरी और प्रेसीडेंट के मुकदमा की समाअ़त करने में कोई एतराज है?’’
वह कैसे एतराज करते? उनसे उनका मुल्क, उनका शहर, उनकी रैय्यत, उनका महल, उनकी औलाद, उनके दोस्त-यार, मुख़्तसर उनका सब कुछ ज़बरदस्ती छीन लिया गया था और पूछा तक नहीं गया था कि आपको कोई एतराज है कि नहीं?
हिन्दुस्तान किस तरह गुलामी की ज़ंजीरों में गिरफ्तार हुआ और एक बादशाह मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से अजनबियों की अदालत में लाया गया, यह बात किसी से मख़्फ़ी (छिपी) नहीं है, लेकिन आइए एक ज़वाल पज़ीर (अवनति की ओर अग्रसर) सल्तनत के आखिरी तख्त नशीन होने की वजह से बअज़ो (कुछ लोगों) की निगाह में पैदाइशी मुजरिम उन शायर बादशाह की ज़िन्दगी के औराक़ (पन्ने) उनकी शायरी से भी मदद लेते हुए पल्टें और देखें कि क़ज़ाए इलाही (ख़ुदाई हुक्म) इंसान को कहाँ से कहाँ पहुँचाती है।
बहादुर शाह ज़फ़र का पूरा नाम अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह था। उनकी वलादत (जन्म) 28 शाबान 1189 हिजरी मुताबिक़ 14 अक्तूबर 1775ई0 को उनके वालिद अकबर शाह सानी (द्वितीय) की वली अहदी के ज़माने में अकबर शाह की हिन्दू बीबी लालबाई के बतन (उदर) से हुई थी। ज़फ़र की परवरिश उनके दादा शाह आलम सानी के जे़रे साया (आश्रय में) हुई थी जो कि बदनसीबी में अपने पोते से कुछ कम नहीं थे। 22 अक्तूबर 1764ई0 को बक्सर के मुक़ाम पर अंग्रेजों के सामने शिकस्त खाने के बाद 1788ई0 में ग़ुलाम क़ादिर नामी एक ज़ालिम के हुक्म से शाह आलम सानी की आँखें निकाल दी गईं, फिर मरहठों के हाथों वह सालहा साल गिरफ्तार रहे, तावक़्त ये कि लार्ड लैक की फौजों ने जमुना पार करके देहली पर कब्जा किया और उनको फिर अपनी बराये नाम बादशाहत मिली। यह बादशाहत 1807ई0 में बहादुर शाह के वालिद अकबर शाह सानी को मुन्तक़िल (हस्तान्तरित) हो गई। अकबर शाह सानी का ज़माना कुछ आराम व सुकून का ज़माना था लेकिन देहली के लाल किले पर मुस्तमिल (आधारित) इस बादशाहत के लिए भी साजिशें और चपकुलशें (हड़बोंग) थीं और ज़फ़र और उनके भाई मिर्जा जहाँगीर के दरम्यान वली अहदी (उत्तराधिकार) के लिए कुछ अरसा मुक़ाबिला जारी रहा। इस मुक़ाबिले में उनके वालिद अकबर शाह, मिर्जा जहाँगीर की तरफदारी कर रहे थे। ज़फ़र अपनी जिन्दगी के इस बड़े इम्तिहान में यक व तनहा थे और आस-पास में मौजूद लोग मुख़्लिस नहीं थे। जैसा कि एक शेर में वे रक़मतराज हैं (लिखते हैं):-
अहले दुनिया तो नहीं कुछ भी मुरव्वत रखते।
मुँह पे मिलते ये हैं दिल में अदावत रखते।।
लेकिन चूँकि अंग्रेज अपने दस्तूर के मुताबिक वली अहदी बादशाह के बड़े बेटे का हक समझते थे और बहादुर शाह ज़फ़र की वली अहदी मसलहतन और बिल्खुसूस खुद अंग्रेजों के मफ़ादात (लाभ) के लिए ज्यादा मुनासिब थी लिहाजा उन्होंने वली अहदी के मामले में ज़फ़र का साथ दिया और आस पास में कोई मुरव्वत वाले शख़्स के न मिलने के बावजूद ज़फ़र अंग्रेजों के ज़रिए मुक़ाबिले में कामियाब रहे। 1253 हिजरी बामुताबिक़ 1837ई0 में अकबर शाह सानी के इन्तिक़ाल पर 25 अक्टूबर 1837ई0 को बहादुर शाह ज़फ़र तख़्त नशीन हुए।मुँह पे मिलते ये हैं दिल में अदावत रखते।।
वह तख्तनशीन होने को तो हुए थे लेकिन उनकी बादशाहत बस लाल क़िला के दीवारों के अन्दर थी। एक तरफ सर पर अंगे्रजों की तलवार और दूसरी तरफ शाही ख़जाना के खाली होने की वजह से किला के बाहर साहूकारों का घेरा और वे उस नकली सोने के क़फ़स (पिंजड़ेे) के अन्दर एक बालो पर टूटे हूए बुलबुल की सूरत अपनी ज़िन्दगी बसर करने लगे। ज़फ़र को उनके अपने मुल्क में, उनके अपने शहर में और हत्ता कि उनके अपने क़िले के अन्दर सारे काम अंग्रेजों के जे़रे अस़र (अधीन) अंजाम देने पड़ते थे। दिल्ली शहर या महल में जो कुछ भी हो अंग्रेजों के दस्तकुर्द (हस्तक्षेप) से छुटकारा हासिल नहीं कर पाता था। इस सूरत ए हाल को ज़फ़र यूँ बयान करते हैं:-
तस्मा तस्मा कर दिया बस काटकर आशिक़ की खाल।
वह फिरंगी जा़दे कलकत्ता जो सीखा नापना।।
वह फिरंगी जा़दे कलकत्ता जो सीखा नापना।।
-ख़लील तौक़आर
अनुवादक-मो0 जमील शास्त्री
साभार-चहारसू पत्रिका
प्रकाशित-रावलपिण्डी, पाकिस्तान
( क्रमश: )
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