फेसबुक का विरोध करने वाले को पता ही नहीं कि फेसबुक है क्या बला.......

शनिवार, 22 मई 2010

अभिव्यक्ति पर रोक लगा दीजिये, विरोध करने वाले का मुँह पकड़ कर तोड़ दीजिये,विचार-विमर्श और शास्त्रार्थ के सारे मार्ग बंद कर दीजिये, जितना हो सके उतनी पाबंदियाँ लगा दीजिये लेकिन का मानवता को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है भले ही मनुष्य के कंधों पर बैठ कर पाशविकता भी अपनी पूरी हैवानियत के साथ आगे बढ़ती रहे। तभी तो ऐसा होता है कि कोई काग़ज कलम से यदि आपको गाली लिख कर भेज दे तो आप सड़क पर आकर उसके घर पर पत्थर फेंकने लगते हैं और हो सके तो बम भी फेंक कर उसे हमेशा के लिये मिटा दें। ये इसलिये क्योंकि अब तक आपकी मानसिकता उसी पत्थरों के युग में है जहाँ हर बात का निर्णय पत्थर से ही करा जाता है, लिखना-पढ़ना, विचार-विमर्शादि तो अब तक सुदूर भविष्य की बातें है।
फ़ेसबुक, ऑर्कुट, ट्विटर आदि पर प्रतिबंध लगाकर विमर्श के मार्गों को बंद कर देने से क्या होगा? क्या विचारों का प्रसरित होना रुक जाएगा? चीन ने भी इसी तरह की दमनकारी बेवकूफ़ियाँ करी हैं लेकिन मानवता अपने विचारों के साथ जो कि विभिन्न समुदायों के लिये परस्पर विरोधी या समर्थक हो सकते हैं शनैः-शनैः गति करती रहती है। मुंबई में मैंने कुछ लोगों को हाथों में तख्तियाँ लिये फ़ेसबुक पर प्रतिबंध के लिये प्रदर्शन करते देखा। यकीन मानिये कि मेरे भीतर का भड़ासी तब तक बैठा रहा जब तक वे सब चीख चिल्लाकर अपने घरों को जाने को तैयार न हो गये। मैंने निजी तौर पर लोकल ट्रेन में उनमें से एक के पास की सीट पकड़ ली और उससे जानना चाहा कि क्या उसे पता है कि फेसबुक क्या है या सोशल नेटवर्किंग क्या है तो उस प्रदर्शन में सबसे जोर से चिल्लाने वाले को कम्प्यूटर का "क" तक पता न था वह तो बस अपनी धार्मिक भावना के चलते इस प्रदर्शन में आ गया था उसने कभी भी इंटरनेट का प्रयोग ही नहीं करा था बस मौलाना ने कहा कि ऐसा ऐसा हुआ है हमें इसका विरोध करना है तो वो आ गए। ऐसे लोगों से आप क्या विमर्श की उम्मीद कर सकते हैं। आप जिस स्तर पर सोच पा रहे हैं वो व्यक्ति अब तक वहाँ है ही नहीं इसलिये वह चाहता है कि आपको भी घसीट कर अपने तक ले आए आप क्यों आगे जा रहे हैं वैचारिक तल पर भले ही समर्थन में हो या विरोध में।
जय जय भड़ास

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