लो क सं घ र्ष !: हाय रे ! लोकतान्त्रिक देश की पुलिस, तूने ! जान ले ली
शनिवार, 15 मई 2010
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक अपहरण के मामले में रूबी चौरसिया को पुलिस उठाकर थाने ले गयी 19 वरिशीय रूबी के साथ पुलिस ने पुलिसिया तरीके से पूछ-ताछ की। जिससे अपमानित महसूस होकर रूबी चौरसिया ने आत्महत्या कर ली । प्रदेश में प्रतिदिन किसी अपराध के भी पूछ-ताछ में पड़ोसियों तक के बच्चो को पुलिस दबाव बनाने के लिए अविधिक रूप से पकड़ ले जाती है और हफ़्तों पूछ-ताछ के बहाने थानों में कैद रखा जाता है। अधिकांश मामलो में वसूली होती है और बाद में छोड़ भी दिया जाता है या सारा कृत्य पुलिस के उच्चाधिकारियों की जानकारी में होता है कोई घटना घटित होती है तो सबसे पहले औरतें व लड़कियों को पुलिस निशाना बनाती है जो औरतें व लडकियां थानों में हफ़्तों रहकर आती है वह सामाजिक प्रतारणा व जग हँसी से बच नहीं पाती हैं। जिसमें तमाम सारी औरतें मानसिक रूप से विछिप्त भी हो जाती हैं पुलिस का मुख्य निशाना अब अपराधी नहीं रहा है अपितु मध्य वर्गीय घरों के छात्र होते हैं और पुलिस अनावश्यक रूप से उनको घरो से पकड़ ले जाती है और अपने हथकंडे अपना कर वसूली करती है। वसूली न देने पर वह कहती है कि एक भी मुकदमा लिख दिया जायेगा तो जिंदगी भर न्यायलय के चक्कर लगते रह जाओगे और भविष्य चौपट हो जायेगा। बाराबंकी में इस समय आबकारी विभाग और दुकानदारों से मारपीट हो गयी थी जिसमें पुलिस ने कोई नामजद अभियुक्त गिरफ्तार करने में विशेष सफलता नहीं पायी तो उसने नामजद अभियुक्तों के बच्चो, औरतो और रिश्तेदारों को अघोषित रूप से कैद कर रखा था जिसकी भी जानकारी शासन-प्रशासन के अधिकारियो को भी थी। बहादुर से बहादुर लोग पुलिस के इन गैर कानूनी हथकंडो व वसूली का विरोध नहीं कर पाते हैं।
पुलिस का स्वरूप बर्बर युग की याद दिलाता है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियो की पुलिस और आज की लोकतान्त्रिक देश की पुलिस में कोई अंतर नहीं है। ब्रिटिश पुलिस सरेआम गाँव के गाँव वालो को पीट डालती थी तो लोकतान्त्रिक देश की पुलिस थाने के अन्दर बंद कर पीटती रहती है। हम चाहे जितना सभ्य होने का लोकतान्त्रिक होने का दावा करें यहाँ पर आकर हम सब मजबूर हैं।
लोकतान्त्रिक देश की पुलिस हजारो रुबियो की जान ले चुकी है और आगे भी जान लेती रहेगी।
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
फोटो: हिंदुस्तान से साभार
1 टिप्पणियाँ:
पुलिस क्या किसी दूसरे ग्रह से आए प्राणियों से बनी संस्था है? सत्यतः हम भारतीय लोकतंत्र के लायक नहीं हैं इसलिये हमारे कुटिल राजनेताओं ने हमारे ऊपर एक छद्मलोकतंत्र लाद रखा है, ये पुलिस वाले हमारे वो ही दादा परदादाओं के वंशज हैं जिन्होंने गोरों की चाकरी और अपना पेट परिवार पालने के चक्कर में हजारों बार क्रान्तिकारियों पर गोली-लाठी बरसायी होंगी। पुलिस भी इसी सिस्टम का अंग है वो अलग कैसे हो सकती है??उन्हें कोसना बंद करें क्योंकि ये फसल हमारी ही है जिसमें काँटे उगते हैं
जय जय भड़ास
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