मुंबई में मोटरमैनों की भूख हड़ताल के सच को देखा हम भड़ासियों ने...... जनता,नेता,अधिकारी,मजदूर यूनियन सबके सब कमीने निकले

बुधवार, 5 मई 2010

मुंबई में हाल ही में हुई मोटरमैनों की भूख हड़ताल के बारे में बड़े भाई साहब डॉ.रूपेश श्रीवास्तव जी ने भाई रजनीश झा से कहा था कि हम कुछ भड़ासी मिल कर इस पूरे वाकये को देखने और समझने जा रहे हैं। इसका कारण ये था कि आम आदमी तक सरकारी भोंपू बने न्यूज़ चैनल गलत संदेश पहुंचा रहे थे कि ये मामला महज वेतन वृद्धि से जुड़ा है। हमने देखा कि इससे पहले भी लोकल ट्रेन चालकों ने भूख हड़ताल की बात कही थी उस समय एक राजनैतिक लॉलीपॉप उन्हें पकड़ा दिया गया कि सरकार की तरफ़ से "फ़ास्ट ट्रैक कमिटी गठित कर दी गयी है जो इस पर विचार करके परिणाम देगी। ये कमिटी कितनी फ़ास्ट रही ये किसी ने नहीं देखा समय बीतता गया, चालकों ने फिर सरकार को चेतावनी दी लेकिन नेताओं को अपना घर भरने से फुरसत कहाँ है। एक माह पहले से ही इन मोटरमैनों ने पोस्टर लगा कर जनता से सारी वस्तुस्थिति बताते हुए सहयोग की अपील करी थी। लेकिन यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार मुंबई की जनता भी वैसी ही है भूख हड़ताल की चेतावनी को बंदर घुड़की समझ कर निकल पड़ी धंधे पर लेकिन जब अटक गए तो रोना शुरू कर दिया। ज्ञात हो कि एक दिन पहले तक मुंबई के स्वयंभू हितैषी बालठाकरे और उनकी शिव सेना ने इस भूख हड़ताल का नैतिक समर्थन करा था लेकिन दूसरे दिन जब दूसरे दिन जनता की परेशानी देखी तो समर्थन वापिस ले लिया अब आप लोग खुद सोचिये कि क्या जनता की समस्या के बारे में नीच ठाकरे पार्टी अनभिज्ञ थी ,सब के सब दूध पीते बच्चे हैं कि इन्हें अंदाज नहीं था कि लोकल बंद होने से क्या होगा लेकिन इससे इनका धोखेबाज चरित्र सामने आ गया। भूख हड़ताल करने वाले मोटरमैनों में से अधिकाँश(लगभग ८०%) तो शिवसेना समर्थित रेलकामगार सेना के ही थे लेकिन उन्हें भी अपने नेताओं का चरित्र समझ आ गया जब वे गिरफ़्तार हो गये और नेताओं ने पीछे से पीठ में छुरा घोंप दिया समर्थन वापिस लेकर। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र का भला चाहने वाला एक और बड़बोला बंदर राज ठाकरे भी इस भूख हड़ताल में अपनी लाल करने आ गया ये बयान देकर कि यदि मोटरमैन हड़ताल खत्म नहीं करते तो म.न.से. उनसे अपने तरीके से यानि मारपीट कर निपटेगी, जो कि इन कमीनों ने करा भी जिसे किसी न्यूज चैनल ने नहीं बताया कि इन कुत्तों ने एक भूखे पेट काम करते मोटरमैन को दादर में मारापीटा भी था।
इन मोटरमैनों के कार्य की प्रकृति को जानिये तो आपको शायद इन पर दया आ जाएगी न तो इनके खाने का समय निर्धारित होता है न ही दैनिक कर्मों का, इनकी सामाजिक और पारिवारिक जिन्दगी का तो आप ऐसे अंदाज लगा लीजिये कि साल में ३६५ दिन काम करते हैं इन्हें साप्ताहिक अवकाश नहीं होता,स्टाफ़ की भारी कमी के चलते जबरन ओवरटाइम कराया जाता है जो कि ये भारी मानसिक दबाव में मजबूरी में करते है और फिर जनता के सामने इनका वेतन रखा जाता है कि देखो इतनी पगार है मोटरमैन की, ये कोई नहीं जानता कि उसमें जबरन कराया ओवरटाइम भत्ता कितना है जिसे सरकार इन्कम टैक्स के रूप में वित्त वर्ष के अंत में वापिस चूस लेने वाली है। लोग कहते हैं कि ये पब्लिक सर्वेंट हैं इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये यानि कि लोग ये मानते हैं कि मोटरमैन पब्लिक का हिस्सा नहीं होते। एक महामूर्ख अधिकारी न्यूज चैनल पर मुँह फाड़ कर गधों की तरह बयान दे रहा था कि ये हड़ताली कर्मचारी किसी मान्यता प्राप्त मजदूर संगठन के नहीं हैं इसलिये इनसे बातचीत का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता, इसपर हमारे भाईसाहब ने उसे गरियाते हुए कहा कि सरकार आतंकवादियों से बात कर सकती है वो क्या सरकारी मान्यता प्राप्त रहते हैं या जो डंडा ठॊक दे उससे ही बात करते हो तो बेटा लो जल्द ही तुम लोगों को एहसास हो जाएगा कि सरकार के तलवे चाटते मजदूर संगठन और उसके नेता अगर इनको समर्थन न भी दें तो इनकी एकता सबको कैसा नाक रगड़वाती है पूरी दुनिया ने देखा कि आर.आर.पाटिल को मध्यस्थता करना पड़ा।
ये मोटरमैन जितने लोगों की जान की जिम्मेदारी लेकर चलते हैं उससे कहीं बहुत कम लोगों की जिम्मेदारी एक एयर पायलट पर होती है जबकि पदनाम इन्हें भी "ट्रेन पायलट"(मोटरमैन कोई पदनाम नहीं है) दे रखा है लेकिन एक एयर पायलट के साथ को-पायलट भी रहता है जबकि उसे तो ऑटो-पायल्ट जैसी यान्त्रिक व्यवस्था भी हासिल है। इन गरीबों को सहायक चालक नहीं दिया जाता जिसकी ये माँग जमाने से कर रहे हैं जो कि जायज़ भी है लेकिन कमीनी सरकार को उसके लिये रोजगार बढ़ाना होगा कुछ और बेकार नौकरी पा जाएंगे इस लिये ये मांग नहीं पूरी करी जाती। दूसरी बात जन सुरक्षा की है किसी बस में आप निश्चित संख्या से अधिक सवारी नहीं भर सकते यहाँ तक कि यदि आप अपनी स्कूटर पर चार लोग बैठा कर निकल जाएं तो ट्रैफ़िक पुलिस आपका चालान कर देती है, हवाई जहाज़ में आप मुंबई से दिल्ली तक का मात्र डेढ़ घंटे का सफ़र स्टैंडिंग का टिकट लेकर क्यों नहीं कर सकते ये दूरी तो बस इतनी ही हुई न जितनी पनवेल से अंधेरी। इसकी वजह है कि कोई भी यातायात व्यवस्था आपको अपनी जान जोखिम में डाल कर यात्रा की अनुमति नहीं देती लेकिन मुंबई की लोकल ट्रेन में हमारी प्यारी सरकारें इस जनसुरक्षा के मामले को शिथिल कर देती हैं और बिना ट्रेन की संख्या बढ़ाये आपको उन्हीं ट्रेनों में हजारों टिकट जारी करके कीड़े-मकोड़ों की तरह यात्रा करने को बाध्य कर देती है। क्या कभी किसी प्रवासी संगठन ने इस बात की तरफ ध्यान दिया है???
(चित्र में आप देख सकते हैं कि डॉ.रूपेश श्रीवास्तव ने खुद लोकल ट्रेन के ड्राइविंग कैब में बैठ कर उस पीड़ा को बाँटा है जो एक सच्चा भड़ासी ही कर सकता है)
ऐसी ही सैकड़ों बाते हम लोगों ने उनको नजदीक से जान कर समझ पायी हैं जो कि यदि आप संवेदनशील हैं तब ही समझ सकते हैं अन्यथा तो देश में गृहयुद्ध भी होता रहे तो आप सब मुंबईकर आई.पी.एल. मैच ही देखेंगे।
जय जय भड़ास

2 टिप्पणियाँ:

Chhaya ने कहा…

Kehte sab hain magar karne ka sahas sabmein nahi hota.

Rupesh bhai hamesha jo kehte hain wo kar ke dikhate hain


aur Manisha didi, aapka lekh padhna mujhe bahot achcha lagta hai. Kripya likhti rahiye :)

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