लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-1
शुक्रवार, 11 जून 2010
आज जिस प्रकार हिंदी ब्लागर साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद समाज और देश के हित में एक व्यापक जन चेतना को विकसित करने में सफल हो रहे हैं वह कम संतोष की बात नही है। हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देने में हर उस ब्लाॅगर की महत्वपूर्ण भूमिका है जो बेहतर प्रस्तुतीकरण, गंभीर चिंतन, सम सामयिक विषयों पर सूक्ष्मदृष्टि, सृजनात्मकता, समाज की कुसंगतियों पर प्रहार और साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से अपनी बात रखने में सफल हो रहे हैं। ब्लॉग लेखन और वाचन के लिए सबसे सुखद पहलू तो यह है कि हिन्दी में बेहतर ब्लॉग लेखन की शुरुआत हो चुकी है जो हम सभी के लिए शुभ संकेत का द्योतक है। वैसे वर्ष-2009 हिंदी ब्लाॅगिंग के लिए व्यापक विस्तार और वृहद प्रभामंडल विकसित करने का महत्वपूर्ण वर्ष रहा है। आइए वर्ष -2009 के महत्वपूर्ण ब्लॉग और ब्लॉगर पर एक नजर डालते हैं ।
हिंदी ब्लॉग विश्लेषण -2009 की शुरुआत एक ऐसे ब्लॉग से करते हैं जो हिंदी साहित्य का संवाहक है और हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में दृढ़ता के साथ सक्रिय है। वैसे तो इसका हर पोस्ट अपने आप में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है , किन्तु शुरुआत करनी है इसलिए 20 जून-2009 के एक पोस्ट से करते हैं। हिंदी युग्म के साज -वो-आवाज के सुनो कहानी श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हिंदी के मूर्धन्य कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘इस्तीफा‘ से मुंशी प्रेमचंद की कहानी इस्तीफा को स्वर दिया है पिट्सवर्ग अमेरिका के प्रवासी भारतीय अनुराग शर्मा ने।
शपथ-इस्तीफा के बाद राजनीति का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू पुतला दहन, पुतला दहन का सीधा-सीधा मतलब है जिन्दा व्यक्तियों की अन्त्येष्टि। पहले इस प्रकार का कृत्य सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों तक सीमित था। बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में रावण-दहन की परम्परा थी, कालांतर में राजनैतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों के द्वारा किए गए गलत कार्यों के परिप्रेक्ष्य में जनता द्वारा किए जाने वाले विरोध के रूप में हुआ। पुतला-दहन धीरे-धीरे अपनी सीमाओं को लाँघता चला गया। आज नेताओं के अलावा महेंद्र सिंह धौनी से लेकर सलमान खान तक के पुतले जलते हैं। मगर छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक बाप ने अपनी जिंदा बेटी का पुतला जलाकर पुतला-दहन की परम्परा को राजनैतिक से पारिवारिक कर दिया और इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया है शरद कोकास ने अपने ब्लॉग पास-पड़ोस पर दिनांक 24.07.2009 को प्रेम के दुश्मन शीर्षक से। शपथ, इस्तीफा, पुतला दहन के बाद आइए रुख करते हैं राजनीति के चैथे महत्वपूर्ण पहलू मुद्दे की ओर, जी हाँ ! कहा जाता है कि मुद्दों के बिना राजनीति तवायफ का वह गजरा है, जिसे शाम को पहनो और सुबह में उतार दो । अगर भारत का इतिहास देखें तो कई मौकों और मुद्दों पर हमने खुद को विश्व में दृढ़ता से पेश किया है । लेकिन अब हम भूख, महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों से लड़ रहे हैं। आजकल मुद्दे भी महत्वाकांक्षी हो गए हैं। अब देखिये न! पानी के दो मुद्दे होते हैं, एक पानी की कमी और दूसरा पानी की अधिकता। पहले वाले मुद्दे का पानी हैंडपंप में नहीं आता, कुओं से गायब हो जाता है, नदियों में सिमट जाता है और यदि टैंकर में लदकर किसी मुहल्ले में पहुँच भी जाए तो एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। दूसरे वाले मुद्दे इससे ज्यादा भयावह हैं। यह संपूर्ण रूप से एक बड़ी समस्या है। जब भी ऐसी समस्या उत्पन्न होती है, समाज जार-जार होकर रोता है, क्योंकि उनकी अरबों रुपये की मेहनत की कमाई पानी बहा ले जाता है। सैकड़ों लोग, हजारों मवेशी अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं और शो का पटाक्षेप इस संदेश के साथ होता है - अगले साल फिर मिलेंगे !
ऐसे तमाम मुद्दों से रूबरू होने के लिए आपको मेरे साथ चलना होगा बिहार, जहाँ के श्री सत्येन्द्र प्रताप ने अपने ब्लॉग जिंदगी के रंग पर दिनांक 07.08.2009 को अपने आलेख कोसी की अजब कहानी में ऐसी तमाम समस्यायों का जिक्र किया है जिसको पढ़ने के बाद बरबस आपके मुँह से ये शब्द निकल पड़ेंगे कि क्या सचमुच हमारे देश में ऐसी भी जगह है जहाँ के लोग पानी की अधिकता से भी मरते हैं और पानी न होने के कारण भी। ऐसा नहीं कि श्री सत्येन्द्र अपने ब्लॉग पर केवल स्थानीय मुद्दे ही उठाते हैं, अपितु राष्ट्रीय मुद्दों को भी बड़ी विनम्रता से रखने में उन्हें महारत हासिल है। दिनांक 04.06.2009 के अपने एक और महत्वपूर्ण पोस्ट-यह कैसा दलित सम्मान?, में श्री सत्येन्द्र ने दलित होने और दलित न होने से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने रखा है दलित महिला नेत्री मीरा कुमार के बहाने। जिंदगी के रंग में रँगने हेतु एक बार अवश्य जाइए ब्लॉग जिंदगी के रंग पर-मुद्दों पर आधारित ब्लॉग की चर्चा के क्रम में जिस चिट्ठे की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है वह है-आदिवासी जगत और ब्लॉगर हैं-श्री हरि राम मीणा। यह ब्लॉग आदिवासी समाज को लेकर फैली भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। दिनांक 22.05.2009 को प्रकाशित अपने आलेख आदिवासी संस्कृति-वर्तमान चुनौतियों का उपलब्ध मोर्चा में श्री मीणा आदिवासी समाज के ज्ञान भंडार को डिजिटल शब्दों के साथ साइबर संसार में फैलाना चाहते हैं। अब आइए उस ब्लॉग की ओर रुख करते हैं जो एक ऐसे ब्लाॅगर की यादों को अपने आगौश में समेटे हुए है जिसकी कानपुर से कुबैत तक की यात्रा में कहीं भी माटी की गंध महसूस की जा सकती है। अपने ब्लॉग मेरा पन्ना में कानपुर के जीतू भाई कुवैत जाकर भी कानपुर को ही जीते हैं। वतन से दूर, वतन की बातें, एक हिन्दुस्तानी की जुबाँ से अपनी बोली में! दिनांक 09.09.2009 को इस ब्लॉग के पाँच साल पूरे हो गए। इंटरनेट के चालीस साल होने के इस महीने में हिंदी के एक ब्लॉग का पाँच साल हो जाना कम बड़ी बात नहीं है।
-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित
शपथ-इस्तीफा के बाद राजनीति का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू पुतला दहन, पुतला दहन का सीधा-सीधा मतलब है जिन्दा व्यक्तियों की अन्त्येष्टि। पहले इस प्रकार का कृत्य सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों तक सीमित था। बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के रूप में रावण-दहन की परम्परा थी, कालांतर में राजनैतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों के द्वारा किए गए गलत कार्यों के परिप्रेक्ष्य में जनता द्वारा किए जाने वाले विरोध के रूप में हुआ। पुतला-दहन धीरे-धीरे अपनी सीमाओं को लाँघता चला गया। आज नेताओं के अलावा महेंद्र सिंह धौनी से लेकर सलमान खान तक के पुतले जलते हैं। मगर छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक बाप ने अपनी जिंदा बेटी का पुतला जलाकर पुतला-दहन की परम्परा को राजनैतिक से पारिवारिक कर दिया और इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया है शरद कोकास ने अपने ब्लॉग पास-पड़ोस पर दिनांक 24.07.2009 को प्रेम के दुश्मन शीर्षक से। शपथ, इस्तीफा, पुतला दहन के बाद आइए रुख करते हैं राजनीति के चैथे महत्वपूर्ण पहलू मुद्दे की ओर, जी हाँ ! कहा जाता है कि मुद्दों के बिना राजनीति तवायफ का वह गजरा है, जिसे शाम को पहनो और सुबह में उतार दो । अगर भारत का इतिहास देखें तो कई मौकों और मुद्दों पर हमने खुद को विश्व में दृढ़ता से पेश किया है । लेकिन अब हम भूख, महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों से लड़ रहे हैं। आजकल मुद्दे भी महत्वाकांक्षी हो गए हैं। अब देखिये न! पानी के दो मुद्दे होते हैं, एक पानी की कमी और दूसरा पानी की अधिकता। पहले वाले मुद्दे का पानी हैंडपंप में नहीं आता, कुओं से गायब हो जाता है, नदियों में सिमट जाता है और यदि टैंकर में लदकर किसी मुहल्ले में पहुँच भी जाए तो एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। दूसरे वाले मुद्दे इससे ज्यादा भयावह हैं। यह संपूर्ण रूप से एक बड़ी समस्या है। जब भी ऐसी समस्या उत्पन्न होती है, समाज जार-जार होकर रोता है, क्योंकि उनकी अरबों रुपये की मेहनत की कमाई पानी बहा ले जाता है। सैकड़ों लोग, हजारों मवेशी अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं और शो का पटाक्षेप इस संदेश के साथ होता है - अगले साल फिर मिलेंगे !
ऐसे तमाम मुद्दों से रूबरू होने के लिए आपको मेरे साथ चलना होगा बिहार, जहाँ के श्री सत्येन्द्र प्रताप ने अपने ब्लॉग जिंदगी के रंग पर दिनांक 07.08.2009 को अपने आलेख कोसी की अजब कहानी में ऐसी तमाम समस्यायों का जिक्र किया है जिसको पढ़ने के बाद बरबस आपके मुँह से ये शब्द निकल पड़ेंगे कि क्या सचमुच हमारे देश में ऐसी भी जगह है जहाँ के लोग पानी की अधिकता से भी मरते हैं और पानी न होने के कारण भी। ऐसा नहीं कि श्री सत्येन्द्र अपने ब्लॉग पर केवल स्थानीय मुद्दे ही उठाते हैं, अपितु राष्ट्रीय मुद्दों को भी बड़ी विनम्रता से रखने में उन्हें महारत हासिल है। दिनांक 04.06.2009 के अपने एक और महत्वपूर्ण पोस्ट-यह कैसा दलित सम्मान?, में श्री सत्येन्द्र ने दलित होने और दलित न होने से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने रखा है दलित महिला नेत्री मीरा कुमार के बहाने। जिंदगी के रंग में रँगने हेतु एक बार अवश्य जाइए ब्लॉग जिंदगी के रंग पर-मुद्दों पर आधारित ब्लॉग की चर्चा के क्रम में जिस चिट्ठे की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है वह है-आदिवासी जगत और ब्लॉगर हैं-श्री हरि राम मीणा। यह ब्लॉग आदिवासी समाज को लेकर फैली भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। दिनांक 22.05.2009 को प्रकाशित अपने आलेख आदिवासी संस्कृति-वर्तमान चुनौतियों का उपलब्ध मोर्चा में श्री मीणा आदिवासी समाज के ज्ञान भंडार को डिजिटल शब्दों के साथ साइबर संसार में फैलाना चाहते हैं। अब आइए उस ब्लॉग की ओर रुख करते हैं जो एक ऐसे ब्लाॅगर की यादों को अपने आगौश में समेटे हुए है जिसकी कानपुर से कुबैत तक की यात्रा में कहीं भी माटी की गंध महसूस की जा सकती है। अपने ब्लॉग मेरा पन्ना में कानपुर के जीतू भाई कुवैत जाकर भी कानपुर को ही जीते हैं। वतन से दूर, वतन की बातें, एक हिन्दुस्तानी की जुबाँ से अपनी बोली में! दिनांक 09.09.2009 को इस ब्लॉग के पाँच साल पूरे हो गए। इंटरनेट के चालीस साल होने के इस महीने में हिंदी के एक ब्लॉग का पाँच साल हो जाना कम बड़ी बात नहीं है।
-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित
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