भड़ास संचालक की तरफ़ से पी.सी.गोदियाल जी के नाम पत्र
गुरुवार, 3 जून 2010
गोदियाल जी ने रिसिया कर अपने दो कमेंट हटा दिये लेकिन मेहरबानी करी कि इसके बदले में बुद्धिमान लोगों के कमेंट्स से गरीब भड़ास पर अपना तीसरा कमेंट डाल दिया। रिसियाने का कारण लिखा है कि २४ घंटे बीत गये और अब कमेंट समय बाह्य हो गया है तो उसे हटा दिया जाए। गोदियाल जी से निवेदन है कि जो विचार इतना क्षणभंगुर है कि मात्र चौबीस घंटे में क्षय हो गया तो उसे हट ही जाना चाहिये था। भड़ास पर सिर्फ़ वे ही लोग आते हैं जिनकी करी हुई उल्टी भी किसी के खाने के काम आ सके लेकिन इस मंच पर कुछ लोग गले में अटके को साफ़ करने की बजाए पेट भी साफ़ कर लेते हैं जिस कारण यहां मजबूरन कमेंट्स को माडरेट करना पड़ता है वरना बेनामी चिरकुट इतनी मां-बहन की गालियां देते हैं कि आप लोग उसे पचा ही न पाएंगे। हम तो अभी भी उन्तीस बेनामी टिप्पणियों का जहर जबरन गले में रोके हुए हैं ताकि आप लोगों को आवश्यकता पड़ने पर बता सकें कि भड़ास का संचालन किसी हिन्दू-मुस्लिम या हिंदी-तमिळ की जुगाली करने जैसा नहीं है दोनो हाथों में अंगार लेकर बैठना है और सिसियाना तक नहीं है। संजय कटारनवरे नाम से कोई रणधीर सिंह सुमन जी का नकाब उतारने की बात कर रहा है कोई जैनों को राक्षस सिद्ध कर रहा है कोई है तो पूरी दुनिया को मुसलमान बना कर जन्नत पहुंचाना चाहता है किसी को मैं हिजड़ा और भाई रजनीश झा दलाल नजर आते हैं और सारे के सारे भड़ास के मंच पर हैं तो आप सोचिये कि यदि हम कमेंट सीधे प्रकाशित होने दें तो क्या होगा। बड़ीसाफ़ सी बात है कि न तो मैं और न ही भाई रजनीश चौबीस घंटे इंटरनेट खोल कर बैठे रह सकते हैं किसी अखबार या मासिक पत्रिका में हमारा फ़ीडबैक कितने समय में प्रकाशित होता है आप जानते हैं तो फिर सिर्फ़ हमारे पत्रा पर ही इतनी अधीरता किस बात की है और इतने कमजोर विचार मत लिखिये इस मंच पर कि जो मात्र चौबीस घंटे में आक्सीजन मांगने लगते हैं। आशा है आप भड़ास के दर्शन को समझ पाएंगे।
जय जय भड़ास
2 टिप्पणियाँ:
मैं तो समझ गया जी
प्रणाम
मुझे क्षमा करे श्रीवास्तव साहब ! आज जाकर इसपर नजर पडी ! वैसे तो थोड़ा बहुत आपकी बात को भी समझता हूँ कि मॉडरेशन क्यों जरूरी है फिर भी गाँव का पला-बढ़ा हूँ, थोड़ी देर से ही कोई चीज नजर/ समझ आती है, इसलिए शहरी बाबुओं की तरह कोई बात ठीक से एक्सप्रेस नहीं कर पाता ! मेरा रिसियाने का कारण सिर्फ इतना था कि मैंने वह टिपण्णी श्री सुमन जी को संबोधित कर अपनी कुछ बातें रखे थी! कुछ सवाल किये थे ! सुमन जी आकर भड़ास पर अलग से एक लेख लिखकर जबाब दे गए और चल दिए ! फिर मेरी अपनी टिपण्णी में उनसे उठाये गए सवालों का औचित्य क्या रह जाता है भला, आप खुद ही सोचे ?
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