भड़ास की धमक से दूसरी वेबसाइट्स भी हिल रही हैं
रविवार, 22 अगस्त 2010
जैसा कि अक्सर होता है कि जब कोई नयी वेबसाइट का आरम्भ होता है तो ई-मेल की बरसात से आपको ज्वाइन करने के न्योते आने लगते हैं। ठीक ऐसा ही हमारे भाईसाहब डा.रूपेश श्रीवास्तव जी के साथ हुआ। मीडिया क्लब औफ़ इंडिया नाम की वेबसाइट शुरू हुई तो किन्ही कुलदीप श्रीवास्तव जी की तरफ से न्योता आया और हमारे भाईसाहब पहुंच गये इस साइट पर। मौका था वह जब कि अनूप मंडल की तरफ से लिखी पोस्ट जिसमें कि सर रजनीश झा से उन्होंने एक ही समाचार पत्र नवभारत टाइम्स के दो आर.एन.आई. नंबर होने की बात कही थी। डा.रूपेश श्रीवास्तव जी ने इस विषय में जो कुछ भी सोचा हो उसे लेकर मीडिया क्लब औफ़ इंडिया पर चले गये और अपने अंदाज में लिख दिया। वही हुआ जो हमेशा होता है, शरीफ़ों की बस्ती में खलबली मच गयी लोग विषय छोड़ कर भाषा पर छटपटाने लगे। अब किसने कहा कि हम भड़ासियों को किसी से अच्छे होने का प्रमाणपत्र चाहिये हम तो बुरे कहलाते हैं तो वही भला है। हमारे पसीने से दुर्गंध आती है तो हम सैकड़ों रुपये का परफ़्यूम लगाने की बजाए नहा लेते हैं लेकिन अब जो दुर्गंध प्राकृतिक है और हमारी मेहनत के बाद उठ रही है तो हम उसे दबाते नहीं बल्कि वातावरण में फैलने देते हैं ताकि परफ़्यूम की फ़ैक्टरी में काम करने वाले हमारे जैसे मजदूरों को रोजगार मिलता रहे। मीडिया क्लब में भी रंगे सियारों और मुखौटाधारियों के साथ शराफ़त अलियों की जमात बैठी थी जो भाईसाहब के आने से हड़बड़ा उठी। एक गैर सरकारी संगठन चलाने वाला अपना मुखौटा नुचने पर वेश्या-विलाप करने लगा दूसरा भाईसाहब को पत्रकारिता की ए बी सी डी सिखाने आया और फिर रगेदे जाने पर मौनव्रत लेकर कपट-समाधि में लीन हो गया। भाईसाहब ने गैर सरकारी संगठनों के हेतु और उद्देश्यों को सवालों के कटघरे में लाया है अब देखना है कि कितने मुखौटाधारी समाधि में चले जाते हैं। ये सियार किस्म के धूर्त नहीं जानते कि अब उनका पाला उनके जैसे किसी बौद्धिक जुगाली करने वाले खस्सी बैल से नहीं भड़ास के छुट्टा सांड डा.रूपेश श्रीवास्तव से पड़ा है जो भोलेनाथ की तरह ही भोले हैं लेकिन हैं तो सींग वाले तो कैसे बिना दौड़ाए मान जाएंगे। बेचारे रंगे सियार अब अपने मुखौटों की सलामती के लिये भगवान से प्रार्थना कर रहे होंगे।
जय जय भड़ास
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