संवाद की सार्थकता ज्यादा है या फिर मौन ही श्रेयस्कर है?कुटिल मौन चेहरे पर संवाद का मेकअप
रविवार, 20 मार्च 2011
संवाद की सार्थकता ज्यादा है या फिर मौन ही श्रेयस्कर है ?
इस शीर्षक के साथ डा.दिव्या श्रीवास्तव जी ने एक आलेख लिखा जिस पर अब तक तकरीबन सवा सौ टिप्प्णियां आ चुकी हैं। ये बात साफ करती है कि वे कितनी प्रसिद्ध हैं। भड़ास पर राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की जुगाली करने से पहले भड़ासी अपने आसपास की घास चरना ही पसंद करते हैं। यहां मैं ने जब से आना शुरू करा है तब से देख चुका हूं कि कितने नामचीन ब्लागर मुखौटा उतरने पर चुप्पी साध कर भाग गए- गुफ़रान सिद्दिकी - कट्टरता पूर्वक अपने अपने धर्म का निर्वाह करने की सलाह देने वाले कुरान शरीफ़ के बारे में बात करने पर चुप्पी साध गए जैसे कोमा में चले गए हों।
- रणधीर सिंह सुमन - साम्यवाद के नाम पर लोकसंघर्ष करने वाले छद्मनेता जी जब कम्युनिज्म पर चर्चा होने लगी और इनके अल्पसंख्यक हित(इन्हें देश में सिर्फ़ मुस्लिम अल्पसंख्यक ही दिखते हैं)की सोच पर खदेड़ा तो nice की बुखार की गोली बांटते हुए भाग गए।
- प्रवीण शाह - तंत्र-मंत्र पर शोध हेतु प्रस्तुत प्रकरण में कुछ दिनों तक तर्क करते रहे फिर जब शोध हेतु भड़ासियों ने विमर्श अपनी शैली में आगे बढ़ाया तो भड़ासियों की परवरिश को दोष देते हुए बौद्धिकता की पिपिहरी बजाते भाग लिये।
- डा.दिव्या श्रीवास्तव- ये भड़ास के संचालक डा.रूपेश श्रीवास्तव जी की धर्मबहन हैं इसलिये मेरे लिये भी आदरणीय़ हैं परन्तु जब सवालों का हल तवील होने लगता है तो अपने टिप्पणीकर्ताओं को भी प्रत्युत्तर नहीं देतीं हैं। बकौल इनके ये भड़ास पर सामान्यतः नहीं पधारती हैं। इन्होंने मुझे अपने विचारों व ब्लाग की प्रसिद्धि का श्रेय दिया था इसके लिये हार्दिक आभार। इन्होंने ये लिखा था कि ब्लाग को गंगाजल से स्नान करा कर पवित्र कराने के स्थान पर डा.दिव्या की बुराई करने पर लोग ज्यादा तरजीह देते हैं........इनसे बहन निशाप्रिया भाटिया के साथ अन्याय करने वालों को उस स्थिति में पहुंचाने का उपाय पूछा था कि अन्यायी अपने बाल नोचते हुए कपड़े फाड़ लें तो वो इन्होंने अब तक नहीं बताया लेकिन बहन निशाप्रिया को दोषी अवश्य ठहरा दिया है।
अमित जैन जी अपनी गलती खुद ही तलाशिये और सुधारिये भी मैं बताउंगा तो आप कहेंगे कि बात असंबद्ध है।
जय जय भड़ास
संजय कटारनवरे
मुंबई
4 टिप्पणियाँ:
मित्र संजय ,
अनूप मंडल जैन धर्म के विषय में जो कुछ भी कह रहा है वो उस की सोच है और ये कोई विचार विमर्श नहीं है ,क्योकि अनूप मंडल की उत्पति जैन धर्म विरुद्ध हुई है ,और रही बात उन के तर्कों की तो वे तर्क कम कुतर्क ज्यादा होते है ,जिस किताब का वो उद्धरण दते है उस की बस कुछ कुछपक्तियो की बात करते है जहा पूरी पस्तक की बात आती है तो खुद की तुलना स्वामी दयानंद से करने लगते है ,अब इन बेव्खुफो से क्या बात करे जिन्हें हर गलत कार्य के पीछे सिर्फ जैन ही दिखाई एते है
एक कहावत है की आप सोते हुए व्यक्ति को जगा सकते है लकिन आख बंद किए हुए बेवकूफ को नह ,आज तक के विचार विमर्श में सिवाय कुतर्को के क्या कोई भी सबूत दिया गया है ?
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संजय कटारनवरे जी,
मैं कहीं भागा नहीं और न ही भागने का कोई इरादा रखता हूँ... यह लिखने से पहले मेरी यह टिप्पणी देख लेनी थी आपको... जब आप संवाद की सार्थकता की बात कर रहे हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि विमर्श व संवाद के बाद हमने व हमारे सम्मानित पाठक ने पाया क्या... बिना किसी उकसावे या सबूत के संवाद की जगह अनर्गल प्रलाप को यदि आप 'भड़ास की शैली' मान अपनी पीठ थपथपा रहे हैं... तो इस तरह की शैली के विमर्श के बाद दोनों पक्षों के पास अपशब्दों व अपमानजनक डायलॉगों के संग्रह के अलावा कुछ भी उपयोगी नहीं मिल पायेगा...
चलिये आप ही बतायें कि किस तरह का शोध चाहते हैं आप तंत्र-मंत्र पर...
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यदि आप कोई असम्बंद बात बतायेगे तो उस को असम्बन्ध ही माना जायेगा
श्श्श्श्श्श..... कोई नहीं है;)
कुछ देर बाद सब चुप्प्प हो जाएंगे
बाकी का पता ही नही है
शांति शांति शांतिजय
जय जय भड़ास
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