भागो अन्ना आता है !

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भागो अन्ना आता है !




भूखे पेट
सोये देश की
खोखली
बंजर
जमीन के नीचे
चूहों ने
बिल बनाये थे
कुछ तो
यही पैदा हुवे
कुछ
बाहर से
आये थे |
खाकर
दाना पानी
अब
बीज पर
नजर थी |
इसकी
अन्ना को
फिकर थी |
वो जाग रहा था
जगा रहा था
टूटा चरखा
चला रहा था
जो
दरअसल
गांधी के
रथ का पहिया था |
जिसमे
सुराज की
धुन बाकी थी
जिसने
अपनी धोती
फाड़ कर
अबला भारत की
इज्जत ढ|की थी |
उस सूत में
अभी भी
जान बाकी थी |
वो उठा
उसने शंख बजाया था
मरी भारतीयता को
संजीवनी मन्त्र
सुंघाया था |
आज वो ही
अन्ना
जंतर मंतर पर
अड़ा है
जाने किस दम पर
खडा है |
मगर
चूहों की सरकार में
मची खलबली है
दिल्ली में
अजब सी
चलाचली है
जिसे देखो
मैदान छोड़
भाग जाना चाहता है
एक ही शोर है
भागो चूहों भागो !
कि अन्ना आता है !

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