पिक्चराइजेशन ऑफ़ स्टेज - एक नयी विधा

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

मानवीय भावनाओं की जटिलताओं को अभिनेता अपनी कला की निपुणता के चलते कितनी सरलता से सामान्य लोगों के सामने प्रस्तुत करके दिलों पर छा जाते हैं; वैसे तो अभिनय द्वारा भावों की प्रस्तुति की अनेक कलाएं हैं किन्तु आजकल के दौर में सर्वाधिक मुखर और प्रयोगधर्मी हैं सिनेमा और रंगमंच। मुंबई विश्वविद्यालय में रंगमंच से संबंधित नाटक एवं उसके प्रस्तुतिकरण को अध्ययन की शाखा के तौर पर स्वीकार कर उस पर पाट्यक्रम भी चला रखा है। समय के साथ ही व्यक्ति की प्रयोगवादी प्रकृति के कारण नए अनुभव या तो स्वयं ही होते रहते हैं या फिर निर्भीक प्रवृत्ति वो कलासेवी जो कि कला को मात्र कला ही नहीं बल्कि विज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ाना चाहता है वह स्वयं अपने धन-पद-श्रम आदि की आहुतियाँ डाल कर कला-यज्ञ में नए प्रयोग करके अनुभव पाकर अपनी आगे की पीढ़ी को सौंप देता है।
जिस प्रकार तकनीक का पदार्पण प्रत्येक क्षेत्र में हुआ है सिनेमा और रंगमंच भी उससे भला अछूते रह सकते थे। संगीत, प्रकाश-संयोजन, रूपसज्जा आदि में रंगमंच ने भी तकनीक को सहजता से ग्रहण करा है और सिनेमा तो वैसे भी इस ग्रहणशीलता के गुण में आगे ही है। सिनेमा और रंगमंच के बीच से कला की एक नई शाखा कब कोंपल के रूप में फूट पड़ी लोग सोच भी न सके और वह है "पिक्चराइजेशन ऑफ़ स्टेज" यानि कि "रंगमंच का चलचित्रीकरण"। इस नयी विधा में विधाकार न तो सिनेमा से जुड़ा रहता है न ही वह नाट्यकला से जुड़ा रहता है; वह इस नयी विधा में न तो निर्देशक है, न संगीतकार न ही अभिनेता बस वह एक दर्शक बन कर अपने कैमरे से रंगमंच पर हो रही हलचलों को चलचित्रीकृत करता जाता है फिर उसके बाद अपने घर बैठ कर उस पूरे प्रयास को नया रंग देने में जुट कर इस नयी विधा की प्रस्तुति करता है। कृपा करके कला की इस नयी विधा को शादी में बनायी जाने वाली वीडियो फ़िल्म अथवा उन पाकिस्तानी नाटकों की बाज़ार में बिकने वाली सीडीज़ से तुलना न करें जो कि नाटक को वीडियो फ़िल्म बनाने के उद्देश्य से ही प्रस्तुत करा जाता है; इन नाटको की वीडियोग्राफ़ी में पूरी तरह से प्रत्येक कलाकार को पता होता है कि वह स्टेज शो नहीं बल्कि एक वीडियो सीडी के लिये अभिनय कर रहा है जिसे कम से कम तीन कैमरों द्वारा अलग-अलग कोण से फ़िल्माया जा रहा है और बाद में संपादित करा जाएगा। इस नयी विकसित होती विधा में कैमरा दर्शक की आँख की तरह व्यवहार करता है और स्पष्ट सी बात है कि दर्शक दोनों आँखें खोल कर भी एक ही क्रीड़ा को पूर्ण मनोयोग से आनंदित होते हुए निहार पाता है। नयी विधा में कभी कैमरा दर्शक के मनोभावों को व्यक्त करने के लिये मुख्य पात्र से फ़ोकस हटा कर दृश्य में उपस्थित सहायक चरित्रों का अभिनय करने वालों को बड़े ही नजदीक से "ज़ूम" करता हुआ उनकी आँखों में झाँक आता है, कभी कैमरा किसी अभिनेता/अभिनेत्री के भावपूर्ण अभिनय से दर्शक की आँखें भीग जाने पर धुंधला भी जाता है या कभी चीख-पुकार से काँप जाता है। "रंग ए तमसील" नाट्य समारोह में प्रस्तुत आठ अत्यंत जीवंत अभिनय से परिपूर्ण नाटकों के चलचित्रीकरण में दर्शक के इन मनोभावों को कैमरे के लेंस से व्यक्त करने का एक शैशव प्रयास करा गया है।
देखिये....
समारोह के प्रथम दिवस का प्रथम मंचन "पीले पत्तों का बन" जिसमें परिपक्व अभिनेत्री लुबना सलीम के एकल अभिनय ने दर्शकों को अंत तक साँस रोके बैठे रहने को बाध्य कर दिया है इस प्रस्तुति में काली पृष्ठभूमि में एक गृहिणी के कमरे का सेट लगाया गया है जो कि अपने बेटे और पति के घर न लौटने से चिंतित है, ये लेखन शिल्प का ही जादू है कि उस स्त्री के फोन पर होते रहने वाले वार्तालापों से अंत में दर्शक को पता चलता है कि वह एक गहरे मानसिक आघात से विक्षिप्त हो चुकी है क्योंकि डेढ़ साल पहले उसका बेटा और पति एक बम विस्फ़ोट में मारे जा चुके हैं।
नेपथ्य से गूँजते हल्के पार्श्वसंगीत के साथ ही प्रकाश क्रमशः प्रखर होता है और लुबना के फोन पर वार्तालाप के संवाद दर्शक को सुनाई देने लगते हैं "हैलो निशा.. हैलो साहब ने ड्राइवर को भेज दिया राहुल को लाने के लिये......"
दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस इस विधा में आगे बढ़ता है, दर्शक दीर्घा से होता हुआ दो-एक सेकंड बाद लुबना पर केन्द्रित हो जाता है लेकिन लुबना के उत्कृष्ट अभिनय में चिंतित माँ की मनोदशा और देहभाषा से अचकचाया खुद भी कैमरे का लेंस अपने आपको शादी की वीडियोग्राफ़ी में दूल्हा-दुल्हन के चेहरे पर फ़ोकस करके सिगरेट पीते बेफ़िक्र वीडियोग्राफ़र की भाँति नहीं रह पाता वह उसकी कसमसाहट और बेचैनी में खुद भी हिलता-डुलता और परेशान बना रहता है। बीच-बीच में स्टेज के एकदम करीब जाकर अभिनेताओं के चेहरे पर फ़्लैश चमका कर फ़ोटो खींच कर अपना काम पूरा करने वाले फ़ोटोग्राफ़र भले ही अभिनेताओं को न डिगा सकें लेकिन इस नयी विधा में दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस जरूर परेशानी महसूस करता है। स्टैंड पर कसा मुर्दा सा वीडियो कैमरा दर्शक की परेशानी, आनंद या रंगमंच के पात्र के साथ तारतम्य स्थापित नहीं कर पाता जो कि अंधकार में डूबी दर्शक दीर्घा में बैठे दर्शक का अभिनेता के साथ जुड़ा रहता है। इस विधा में कैमरे का लेंस अपने प्रिय अभिनेताओं को दृश्य की समाप्ति के बाद भी उनके पर्दे के पीछे जाने तक मंत्रमुग्ध भोले मासूम बच्चे की तरह पीछे तक चला जाने की कोशिश करता है जबकि स्टैंड पर कसा वीडियो कैमरा अपने फ़्रेम से निकलने के बाद दरकिनार सा बना वीडियोग्राफ़र के बटन दब कर बंद होने का इंतजार करता रहता है। नयी विधा में दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस दृश्य की सफल प्रस्तुति के बाद मिलने वाले अन्य प्रेक्षकों के तालियों और कानाफ़ूसिओं भरी टिप्पणियों को भी बिना किसी हिचकिचाहट के सुन लेता है।
"डार्क रूम से उभरती तस्वीरें" नाटक जो कि दोपात्रीय/बहुचरित्रीय मंचन के प्रारंभ से अंत तक दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस अभिनेताओं के सूक्ष्म अभिनय को झाँकने के लिये उनके चेहरे पढ़ने लगता है, पृष्ठभूमि में लगे स्व.छायाकार श्री केविन कार्टर के खींचे चित्रों को देख कर गहन मानवीय पीड़ा से क्लांत होकर रुकता-ठिठकता-काँपता चरित्रों के आसपास मंडराता रहता है, नाटक देख कर आनंदित होने का पूर्वाग्रह पाले हुए दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस बौखलाया सा सोचने को मजबूर हो जाता है और जूड़ी के रोगी की तरह संवादों की धमक से काँपता रहता है; पगलाया हुआ सा कभी केविन कार्टर का अभिनय करते पात्र को देखने का प्रयास करता है कभी उस निर्माता को जिसने केविन पर लिखित कथा को अपने नजरिये से मोड़ दिया है और कभी स्त्री चरित्रों को जो कि कभी सहमे हुए हैं कभी अहंकार की सीमा पर खड़े आत्मसम्मान को अभिनीत कर रहे हैं। वीडियोग्राफ़र का संवेदनाहीन कैमरा फ़ालिज के रोगी की तरह बैसाखी लिये शान्त खड़ा वीडियो बनाता रहता है लेकिन दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस इस तरह के गम्भीर विषय के प्रस्तुति करण पर अशान्त-क्लान्त महसूस करता है, बार-बार अपनी स्थिति बदल कर खुद को शान्त करने की नाकामयाब कोशिश करता है लेकिन फिर भी नाटक की कथावस्तु ने अन्दर जो हलचल मचा दी है वह शान्त नहीं होती इसलिये कभी कभी मुख्य पात्रों को छोड़ कर सच्चाई से मुँह छिपाने की कोशिश में इधर-उधर डगमगाता है लेकिन पुनः संवादों की गूँज की डोर पकड़ कर चरित्रों तक अनमना सा वापिस आ जाता है। संवेदनाहीन वीडियोग्राफ़ी का हाई-रिज़ोल्यूशन कैमरा सैट पर लगे पर्दे के तार-तार तक दिखा सकते हैं लेकिन दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस उसमें दिलचस्पी नहीं रखता इसलिये वह ऐसे दृश्यों में पृष्ठभूमि के पिक्सलों को बेतरतीब कर देता है।
पल्लवी पाटिल और सुखदा अयरे द्वारा अभिनीत नाटक "आइना" मे प्रारम्भ से ही दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस सहज मानवीय वृत्ति के चलते काम करती हुई महिला को पहले देखता हुआ कमरे के माहौल को निरखते-परखते कुछ हिचकिचाता हुआ सोयी हुई औरत की तरफ बढ़ता है, अरेरेरे.... उठी... उठी अरे बाप रे इतनी सुंदर..... ये सब भाव लेकर उसके चेहरे के आसपास मंडराता है और उसके उठ कर गजरा निकालने से लेकर मुँह धोने तक के अंदाज़ के देख कर अनुमान ही लगाता रह जाता है कि पहले जीभर कर देख लूँ बाद में प्रशंसा करूँ या साथ में प्रशंसा भी करता चलूँ; वेश्याओं के घरेलू जीवन में झाँकने का कोई पल वो खोना नहीं चाहता कभी दोनो के आसपास बैठ कर लड़ने बहस करने के दृश्य में भी वो कभी बड़ी वाली का सीना चोरी-छिपे देखना चाहता है और कभी छोटी वाली के पैरों की पायल देखने की कोशिश करता है जिसमें कि खुद ही कुछ बोध होकर एक निश्चित दूरी बना कर तमाशा देखने लगता है लेकिन मंत्रमुग्ध सा दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस इन वेश्याओं के करीब जाने की लालच को भी छोड़ नहीं पाता है, कभी कनखियों से और कभी सबकी नज़र बचा कर गालों, ओंठों तक पहुँच ही जाता है।
"बड़ी-बड़ी बातें", "कशमकश", "हंसिनी", "साड़ी", "नैना" जैसे भाव व अर्थपूर्ण नाटकों में दर्शक के मन, कान और आँखों का प्रतिनिधित्व करता कैमरे का लेंस नाटकों की समाप्ति और उनके अगले मंचन तक की प्रतीक्षा नहीं करता बल्कि रुखसार, मुस्कान सिंह, रेणुका से लेकर कुणाल मेहता, अमित सक्सेना, सैबी जैसे न जाने कितनों को अपने भीतर समेट कर घर ले आता है।
"पिक्चराइजेशन ऑफ़ स्टेज" यानि कि "रंगमंच का चलचित्रीकरण" रंगमंच से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिये उसकी कमियों-खामियों को बारीकी से पकड़ कर अगली प्रस्तुति में दूर कर पाने की एक सीढ़ी का कार्य करता है चाहे वह प्रकाश संयोजक हों, निर्देशक हों अथवा स्वयं अभिनय करने वाले कलाकार। निःसंदेह वर्तमान में यह नयी विधा अपने व्यवसायिक रूप में नहीं है लेकिन यदि संबंधित लोग चाहेंगे तो विकासक्रम में शीघ्र ही इसमें फलदायी शाखाएं फूट पड़ेंगी।
: - डॉ.रूपेश श्रीवास्तव
प्रबंध निदेशक : लंतरानी मीडिया हाउस

3 टिप्पणियाँ:

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ ने कहा…

शुरूआत है आगे देखिये क्या होता है। नयी विधाओं को कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। कैमरे के लेंस को दर्शक के मन, कान और आँख से जोड़ना आपको तमाम विवादों में डाल सकता है क्योंकि जो दोनो विधाओं में तम्बू गाड़ कर बैठे लोग हैं उन्हें सिटपिटाहट महसूस हो रही है उन्हें लग रहा है कि भड़ासियों ने कुछ चुरा लिया है।
जय जय भड़ास

आयशा धनानी ने कहा…

मुबारक हो आपने एक नयी विधा का आग़ाज़ कर डाला, ये है आपका अंदाज़ :)
जय जय भड़ास

मुनेन्द्र सोनी ने कहा…

गुरूदेव, ये तो आप ही कर सकते थे।
मुबारक हो
हम भी देखना चाहेंगे आपके इस प्रयोग को...
जय जय भड़ास

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