KOTDWARBATTLE-GENERAL GENERAL HAS FALLEN
मंगलवार, 6 मार्च 2012
कोटद्वार-सेना जीती मगर सेनापति हारा
-जयसिंह रावत-
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव के महासग्राम में भाजपा के प्रधान सेनापति जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी की कोटद्वार सीट पर हुयी हार ने दुनियां के श्रेष्ठतम् सेनापतियों और युद्ध रणनीतिकारों में से एक नेपोलियन बोनापार्ट की उस टिप्पणी को ताजा कर दिया, जिसमें उसने कहा था कि अकेली वाटरलू के जंग की हार ने उसकी 40 युद्धों की विजय गाथाओं पर एक साथ पानी फेर कर उन्हें विस्मृत कर दिया। हालांकि नेपोलियन ने यह टिप्पणी अपने जीवनकाल के अन्तिम युद्ध वाटरलू की हार के बाद अग्रेजों की हिरासत में अटलांटिक महासागर के सेण्ट हेलना द्वीप पहुंचने पर अपने बनाये हुये सिविल कोड के बारे में कहे थे।
मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने अपने दल भाजपा को तो सत्ता की दौड़ में तो ला खड़ा कर दिया मगर वह स्वयं चुनाव हार गये। हार भी 5 हजार मतों से हुयी है जोकि उत्तराखण्ड में काफी बड़ी हार कही जा सकती है। सेना में मेजर जनरल रहे खण्डूड़ी कांग्रेस के एक सिपाही सुरेन्द्र सिह नेगी के हाथों पराजित हो गये। इस निजी हार ने उनकी अब तक की चुनावी विजयों और मीडिया द्वारा पहले ही पराजित घोषित की गयी भाजपा को प्रतिद्वन्दी कांग्रेस की टक्कर में लाने के बावजूद इस श्रेय पर भी पानी फेर दिया। कोटद्वार भाबर से लेकर भारत तिब्बत सीमा स्थित नीती -माणा तक फैली लगभग 350 कि.मी लम्बी गढव़ाल संसदीय क्षेत्र के लिये हुये 5 चुनावों में से 4 चुनाव जीतने के बाद विधानसभा में पहुंच कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कायम रहने के लिये 2008 में धूमाकोट विधानसभा चुनाव जीतने वाले इस चुनावी महारथी मेजर जनरल (रिटायर) भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के चुनावी दिग्विजय का सपना आखिर उनके अपने ही गृह जनपद पौड़ी के प्रवेश द्वार कोटद्वार में बिखर गया। गत 30 जनवरी को राज्य विधानसभा चुनाव के लिये हुये मतदान में आखिरकार समय से पहले ही सेना छोड़ने वाले एक सिपाही सुरेन्द्र सिंह नेगी ने इस जनरल के अश्वमेघ के घोड़े को कब्जा लिया और नेपोलियन बोनापार्ट की ही तरह जनरल के लिये कोटद्वार को वाटरलू का रणक्षेत्र बना दिया। हालांकि अधिकांश लोग इसे वाटरलू का युद्ध मानने को तैयार नहीं हैं, फिर भी इसे नेपोलियन को 11 अप्रैल 1814 में अल्वा द्वीप भेजे जाने से पहले के लीपजिग का युद्ध तो माना ही जा रहा है। अल्वा द्वीप से निकल भाग कर पुनः पेरिस पहुंचने की नेपोलियन की कोशिश की ही तरह जनरल खण्डूड़ी के पास भी अपना खोया हुआ चुनावी साम्राज्य वापस हथियाने के लिये अभी 2014 का लोकसभा चुनाव बचा हुआ है।
जो नेता सन् 1991 से लेकर 2004 (1996 से लेकर 1998 तक के दो सालों को छोड़ कर) तक निरन्तर इतने लम्बे संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के दिलों पर एकछत्र राज करता रहा हो, उस क्षेत्र के प्रवेश द्वार पर ही अगर उस नेता को हरा दिया जाय तो उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश का चकित रहना स्वाभाविक है। खण्डूड़ी की हार इसलिये भी रोमांचक है,क्योंकि भाजपा ने अपना सम्पूर्ण चुनाव अभियान भुवन चन्द्र खण्डूड़ी पर केन्द्रित कर अपनी चुनावी पतवार खण्डूड़ी के हाथ में सौंपी हुयी थी। यही नहीं सत्ताधारी भाजपा ने सारे मुद्दों को दरकिनार कर “खण्डूड़ी है जरूरी” का नारा बुलन्द कर रखा था। कोटद्वार से लेकर नीती -माणा और टोंस से लेकर काली नदी के बीच स्थित सभी 70 विधानसभा सीटों पर केवल खण्डूड़ी का ढोल पीटा जा रहा था और उनके नाम से वोट मांगे जा रहे थे। यही नहीं बाबा राम देव और टीम अन्ना भी खण्डूड़ी के लिये अपनी पूरी ताकत झौंके हुये थी। इसलिये भी खण्डूड़ी की हार केवल खण्डूड़ी तक सीमित न हो कर बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की टीम की भी हार मानी जा सकती है। हिसार उप चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की हार के बाद अति उत्साहित टीम अन्ना के लिये भाजपा की और खास कर खण्डूड़ी की हार चुल्लूभर पानी में डूब मरने जैसी हो गयी है। इस टीम को गलतफहमी हो गयी थी कि सारा देश उसके पीछे खड़ा हो गया है और वह किंग मेकर की हैसियत से कांग्रेस की मिट्टी पलीत कर भाजपा को सत्ता में बिठा सकती है। इसके लिये अन्ना के सिपहसालारों ने महीनों पहले ही खण्डूड़ी के गुण गाने शुरू कर दिये थे और उसने देहरादून सहित कई स्थानों पर सभाऐं कर कांग्रेस को वोट न देने की अपील की थी। यही नहीं टीम अन्ना ने पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और काबिना मंत्री मदन कौशिक को भ्रष्ट बता कर उन्हें हराने की अपील भी जनता से की थी मगर ये दोनो ही नेता आसानी से चुनाव जीत गये। लेकिन हरिद्वार में भाजपा को मिली अच्छी सफलता ने रामदेव को राहत जरूर दे दी है।
मुख्यमंत्री पर कोई सीट थोपी नहीं जा सकती है। खण्डूड़ी ने अपने सलाहकारों से परामर्श के बाद ही यह सीट मांगी होगी। जबकि इस सीट का इतिहास बताता है कि वहां पिछले 44 सालों में कोई भी ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव नहीं जीता। चुनावी विष्लेश्कों का कहना है कि जिसने भी खण्डूड़ी को कोटद्वार से लड़ने की सलाह दी है वह उनका शुभ चिन्तक नहीं था। राज्य गठन से पहले यह सीट लैंसडौन सीट का ही हिस्सा थी। इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाए तो कि सन् 1967 में आखिरी ब्राह्मण प्रत्याशी भैरवदत्त धूलिया इस क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते थे। 1967 में लैन्सडौन क्षेत्र से जगमोहन सिंह नेगी की हार के मात्र 2 साल बाद उनके बेटे चन्द्र मोहन सिंह नेगी ने 1969 में यह सीट दुबारा जीत कर अपने पिता की हार का बदला ले लिया। उसके बाद वह 1974,1977 और 1980 में इस क्षेत्र से चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश में मंत्री रहे और अस्सी के दशक के बहुचर्चित गढ़वाल चुनाव में उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा से जबरदस्त टक्कर ली और मात्र 25 हजार वोट से हार गए। इस सीट पर उसके बाद उनकी विरासत सुरेन्द्र सिंह नेगी ने ही सम्भाली और वह 1985 में पहली बार इस सीट से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए। सुरेन्द्र सिंह नेगी एक बार निर्दलीय और 2 बार कांग्रेस पत्याशी के रूप में विधानसभा चुनाव जीते हैं और तिवारी मंत्रिमण्डल में केबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं।
पिथौरागढ़ से काबिना मंत्री प्रकाश पन्त की कांग्रेस के मयूख महर के हाथों पराजय भी भाजपा के लिये एक बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है। खण्डूड़ी से लेकर निशंक तक के कार्यकाल में पन्त ही वह मंत्री थे जो कि अकेले ही सम्पूर्ण विपक्ष के हमलों को झेल लेते थे। पन्त के अलावा कृषिमंत्री त्रिवेन्द्र रावत, दिवाकर भट्ट और मातबर सिंह कण्डारी चुनाव हार गये हैं। दो मंत्रियों के पहले ही टिकट कट गये हैं
उत्तराखण्ड की जनता ने खण्डित जनादेश देकर राज्य में न केवल निर्दलियों, बल्कि बहुजन समाज पार्टी को किंग मेकर बनाने के साथ ही राजनीतिक अस्थिरता की बुनियाद भी रख दी है। हालांकि निर्दलियों में से 3 कांग्रेस के ही बागी हैं जबकि चौथा निर्दलीय उत्तराखण्ड क्रंातिदल का है, जिस पर कांग्रेस अंाख मूंद कर भरोसा नहीं कर सकती है। इसलिये कांग्रेस अगर सरकार बनाती है तो उसे बसपा की बैशाखी की भी जरूरत पड़ेगी।
हमारे संसदीय लोकतंत्र में जातिवाद का जहर काफी गहराई तक असर कर गया है। जातिवाद के बल बल गुण्डे बदमाश भी विधायिका और सरकार में आ कर कानून व्यवस्था की मशीनरी पर रौब गालिब कर रहे हैं। जाति के आगे नेता की योग्यता गौण हो जाना लोकतंत्र के लिये और खास कर उत्तराखण्ड जैसे नये राज्य के लिये बहुत ही घातक है। लेकिन आप जैसे तालिबान को अच्छा या बुरा तालिबान नहीं कह सकते वैसे ही जातिवाद को अच्छा जातिवाद और बुरे जातिवाद में श्रेणीबद्ध नहीं किया जा सकता। अगर खण्डूड़ी के साथ एक जाति के नेता या चकड़ैत लामबन्द होगे तो प्रतिक्रिया स्वस्वरूप दूसरी जाति का दूसरी ओर लामबन्द होना स्वाभाविक है। देखा जाय तो कोटद्वार चुनाव जातिवाद की सड़ांध की एक पराकाष्ठा भी है।
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