अखबारों का छपना देखा
सोमवार, 9 अप्रैल 2012
मुस्कानों में बात कहो
चाहे दिन या रात कहो
चाल चलो शतरंजी ऐसी
शह दे कर के मात कहो
जो कहते हैं राम नहीं
उनको समझो काम नहीं
याद कहाँ भूखे लोगों को
उनका कोई नाम नहीं
अखबारों का छपना देखा
लगा भयानक सपना देखा
कितना खोजा भीड़ में जाकर
मगर कोई न अपना देखा
मिलते हैं भगवान् नहीं
आज नेक सुलतान नहीं
बाहर की बातों को छोडो
मैं खुद भी इंसान नहीं
अनबन से क्या मिलता है
जीवन व्यर्थ में हिलता है
भूलो दुख और खुशी समेटो
सुमन खुशी से खिलता है
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