अब मोदी लिखें नई इबारत- मोदी की ताकत से कांग्रेस के साथ साथ नकली गाँधी परिवार परेशान क्यों है...

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012


नया इंडिया, 12 अप्रैल 2012 : नरेंद्र मोदी के निंदक बड़ी मुसीबत में फंस गए हैं| एक तरफ ओड के दंगों का फैसला है और दूसरी तरफ विशेष जांच दल 


की रपट है| अब वे क्या बोलें, उन्हें समझ नहीं आ रहा| ओड के फैसले में अदालत ने23 लोगों को हत्या का अपराधी घोषित किया है और उधर जांच दल 

ने गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड में नरेंद्र मोदी समेत58 लोगों को बेकसूर पाया है| ओड नामक गांव में 23मुसलमान औरतों, मर्दों और बच्चों को घेरकर 

जिंदा जला दिया गया था|



उनके बारे में आए फैसले ने मोदी-निंदकों के घाव पर काफी मरहम लगा दिया लेकिन जांच दल की रपट ने मोदी को बिल्कुल बेदाग घोषित कर दिया| 

जितनी खुशी ओड के फैसले से पैदा हुई, उससे ज्यादा दुख मोदी के बच निकलने से हो रहा है| मोदी फंस जाए तो गुजरात के दंगों की भरपाई हो जाएगी, 

ऐसा माननेवालों के लिए उक्त रपट अपने आप में बहुत बड़ा धक्का है|

20 हजार पृष्ठ की लंबी-चौड़ी रपट में मोदी का बेकसूर होना अभी अंतिम रूप से सिद्घ नहीं हुआ है| एक तो उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त 'न्यायमित्र' 

ने राघवन की रपट से असहमति व्यक्त की है और अभी अदालत का फैसला आना बाकी है| जांच दल की राघवन रपट को अदालत रद्द भी कर सकती है 

लेकिन हम यह न भूलें कि इसी जांच दल की रपट के आधार पर ओड गांव के अपराधियों को पकड़ा गया है और इसी जांच दल ने सरदारपुरा के 33 

हत्यारों को आजन्म कारावास करवाया है| यह कैसे हो सकता है कि आप मीठा-मीठा तो खा जाएं और कड़वा-कड़वा थू कर दें?


यह संभव है कि गुलबर्ग सोसाइटी में हुए हत्याकांड में कानूनी दृष्टि से कोई ठोस प्रमाण जांच दल को न मिले हों या ज्यादातर गवाह पल्टा खा गए हों 

लेकिन इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि एहसान जाफरी समेत 68 लोगों की हत्या ही नहीं हुई? गुलबर्ग सोसाइटी के हत्याकांड में यदि 

मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जबर्दस्ती फंसाने की कोशिश नहीं होती तो शायद उसके अपराधियों को पकड़ना मुश्किल नहीं होता? किसी भी मामले का 

अति-राजनीतिकरण इसी तरह के परिणाम पैदा करता है| जैसे सरदारपुरा और ओड के अपराधी पकड़े गए, वैसे ही गुलबर्ग सोसाइटी के भी पकड़े जाते| 

यह जरूरी है कि गुजरात के बेकसूर मुसलमानों के नर-संहार के लिए जिम्मेदार हर व्यक्ति को इतनी कड़ी सजा मिले कि आनेवाली सदियों तक ऐसा 

पाप-कर्म दोहराया न जाए|


विशेष जांच दल की रपट मोदी के लिए वरदान सिद्घ हो रही है| न सिर्फ उनकी पार्टी भाजपा गदगद है बल्कि बहुत-से लोग मोदी में भावी प्रधानमंत्री को 

भी देखने लगे हैं|मोदी-निदंकों में निराशा की लहर दौड़ गई है| पिछले दस वर्षों में मोदी-निंदा अपने आप में एक व्यवसाय बन गया है| सिर्फ गुजरात ही 

नहीं, भारत और विश्व स्तर पर मोदी-निंदा के सेंडविच बेचनेवाली कई दुकानें खुल गई हैं| उन्हें इसकी भी चिंता नहीं है कि मोदी के बहाने भारत के माथे 

पर कलंक का टीका लगता रहता है| यदि मोदी की प्रशंसा ओबामा से ज्यादा होती है तो यह मोदी-निंदक गिरोह एक साथ टूट पड़ता है| वह मोदी-विरोधी 

ई मेलों की झड़ी लगा देता है|


इसका परिणाम क्या होता है? गुजराती समाज दो टुकड़ों में बाँटता है और यह बंटवारा पहले से अधिक मजबूत होता जाता है| गनीमत है कि गुजरात 


की यह बीमारी पूरे देश में नहीं फैली लेकिन सांप्रदायिकता की जड़ों की सिंचाई जारी रहती है| घृणा का परनाला अंदर ही अंदर बहता रहता है| इसमें शक 

नहीं कि मार्च 2002 में गुजरात में जो नर-संहार हुआ,उसमें राजधर्म का उल्लंघन हुआ याने शासन बेकसूर लोगों की पूर्ण रक्षा नहीं कर सका लेकिन नरेंद्र 

मोदी की जगह कोई और मुख्यमंत्री होता तो भी क्या उसका हाल यही नहीं होता? देश में अब तक जितने भी दंगे हुए हैं, हर स्थान पर तो नरेंद्र मोदी 

मुख्यमंत्री नहीं था| वहां दूसरी पार्टियों के मुख्यमंत्री ही ज्यादा रहे हैं| जब आम लोगों का गुस्सा तूफान की तरह फूटता है तो उसे कौन रोक सकता है? 



राज्य की पुलिस तो क्या, फौज भी निढाल हो जाती है| हम यह भी नहीं भूलें कि गोधरा-जैसी घटना आजाद भारत में पहली कभी नहीं घटी|उसकी 

हिंसक प्रतिक्रिया तो होनी ही थी| क्रिया अपूर्व तो प्रतिक्रिया भी अपूर्व! जिस दिन गोधरा-कांड हुआ, दिल्ली में अफगान-राष्ट्रपति हामिद करजई आए हुए 

थे| उनके साथ भोजन करने के बाद हम लोग जैसे ही हैदराबाद हाउस के पोर्च में आए, गोधरा का पता चला| हम सबकी राय थी कि मोदी को तत्काल 

गोधरा पहुंचकर दोषियों की धरपकड़ करवानी चाहिए थी| वे चूक गए| इसीलिए जनता ने खुद राजदंड उठा लिया|फिर भीड़ ने वही किया, जो वह सेंट 

पीटर्सबर्ग और वर्साय में करती रही है| यदि मोदी सरकार ही मुसलमानों को मरवा रही थी तो फिर लगभग 200 दंगाई कैसे मारे गए? हजारों मुसलमानों 

को शिविरों में कैसे लाया गया?


अदालतों के फैसले चाहे जो हों, इस वक्त मोदी-निंदकों और मोदी-भक्तों, दोनों के लिए यह अपने अंदर झांकने का समय है| जिनके हाथ खून से रंगे हुए 

हैं, उन्हें दंडित करने का पूरा प्रयत्न होना चाहिए| इसमें हिंदू और मुसलमान का फर्क क्यों करना? यही गोधरा का अ-राजनीतिकरण है| जहां तक नरेंद्र 

मोदी का सवाल है उन्होंने एक सफल और सशक्त मुख्यमंत्री की मिशाल कायम की है लेकिन क्या पिछले दस वर्षों में उन्होंने मुसलमानों के घावों पर 

मरहम रखने की कोई कोशिश कभी की है? वे मुसलमानों की सुरक्षा और रोजगार की भी कोई मिसाल कायम क्यों नहीं करते? सांप्रदायिक सदभावकी वे 

कोई नई मोदी इबारत क्यों नहीं लिखते? 

मैंने 4 मार्च2002 को दूरदर्शन पर 'राजधर्म के उल्लघंन' की जो बात कही थी और 'नवभारत टाइम्स' में भी लिखी थी और जिसे प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 

बार-बार दोहराया था, वह आज भी अपनी जगह कायम है| मोदी को यह स्वीकार करने में क्या आपत्ति होनी चाहिए कि उनकी सरकार 2002 में राजधर्म 

का पालन नहीं कर सकी? उन्होंने जो किया और जो नहीं कर पाए, वह खुलकर कहें| मोदी-निदंक इसे चाहे न समझें लेकिन इस देश के मुसलमान इस 

बात को भली-भांति समझते हैं कि अकेले मोदी को फंसा लेने पर भी उन्हें कुछ नहीं मिलनेवाला है| मोदी की निंदा ने उन्हें दस साल मुख्यमंत्री के पद पर 

बनाए रखा|मोदी की बलि चढ़ाने की कोशिश उन्हें प्रधानमंत्री पद पर ले जाएगी| 


(अयोध्या से संजय कुमार मौर्य 

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