सोचने को विवश करते कुछ प्रचलित शब्द
गुरुवार, 19 अप्रैल 2012
हमारे, आपके, प्रायः सबके जीवन में जाने अनजाने कुछ शब्दों के ऐसे प्रयोग होते रहते हैं जिनके शाब्दिक अर्थ कुछ और लेकिन उनके प्रचलित अर्थ कुछ और। मजे की बात है कि शब्दार्थ से अलग (कभी कभी विपरीत भी) अर्थ ही सर्व-स्वीकार्य भी हैं। इस प्रकार के कुछ शब्दों को को समेटते हुए प्रस्तुत है यह लघु आलेख।
मृतात्मा - अक्सर अखबारों में, समाचारों में, शोक सभाओं में इस शब्द का प्रयोग होता है। लोग प्रायः कहते हैं कि "मृतात्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन"। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि "क्या आत्मा भी मरती है?" यदि हाँ तो फिर उन आर्ष-वचनों का क्या होगा जिसमें हजारों बार कहा गया है कि "आत्मा अमर है।" या फिर गीता के उस अमर श्लोक - "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि -----" का क्या होगा? फिर अगर आत्मा नहीं मरती तो इस "मृतात्मा" शब्द के प्रयोग का औचित्य क्या है?
आकस्मिक मृत्यु - ये शब्द भी धड़ल्ले से प्रयोग हो रहे हैं लेखन और वाचन में भी। इस संसार में किसी की भी जब स्वाभाविक मृत्यु होती है तो आकस्मिक या अचानक ही होती है। किसी की मृत्यु क्या सूचना देकर आती है? क्या इस तरह का कोई उदाहरण है? शायद नहीं। मेरे समझ से ऐसा हो भी नहीं सकता। मृत्यु हमेशा आकस्मिकता की ओर ही ईशारा करती है। फिर "आकस्मिक मृत्यु" शब्द के लगातार प्रयोग से उलझन पैदा होना स्वाभाविक है।
दोस्ताना संघर्ष - राजनीति की दुनिया में, जब से "गठबन्धन संस्कृति" का आविर्भाव हुआ है, इस शब्द का प्रयोग खूब प्रचलन में है जबकि इसमे प्रयुक्त दोनों शब्दों के अलग अलग अर्थ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। जब दोस्ती है तो संघर्ष कैसा? या फिर जब आपस में संघर्ष है तो दोस्ती कैसी? शायद आम जनता की आँखों पर गठबन्धन धर्म की आड़ में शब्दों के माध्यम से पट्टी बाँधने की कोशिश में इसका जन्म हुआ है।
दर्पण झूठ न बोले - ये कहावत न जाने कब से हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है और आम जीवन में खूब प्रचलित भी है। हम सभी जानते हैं कि "दर्पण बोल नहीं सकता" चाहे वो झूठ हो या सच। दर्पण सिर्फ हमारे प्रतिबिम्बों को दिखला सकता है। यदि और एक परत नीचे जाकर सोचें तो दर्पण मे दिखने वाला प्रतिबिम्ब भी पूरी तरह सच नहीं है बल्कि विपरीत है। बायाँ हाथ दर्पण में दाहिना दिखलाई देता है। मगर "दर्पण झूठ न बोले" प्रयोग हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।
एक दिन दर्पण के सामने खड़ा इसी सोच में डूबा था कि तत्क्षण कुछ विचार आये जो गज़ल की शक्ल में आपके सामने है -
मृतात्मा - अक्सर अखबारों में, समाचारों में, शोक सभाओं में इस शब्द का प्रयोग होता है। लोग प्रायः कहते हैं कि "मृतात्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन"। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि "क्या आत्मा भी मरती है?" यदि हाँ तो फिर उन आर्ष-वचनों का क्या होगा जिसमें हजारों बार कहा गया है कि "आत्मा अमर है।" या फिर गीता के उस अमर श्लोक - "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि -----" का क्या होगा? फिर अगर आत्मा नहीं मरती तो इस "मृतात्मा" शब्द के प्रयोग का औचित्य क्या है?
आकस्मिक मृत्यु - ये शब्द भी धड़ल्ले से प्रयोग हो रहे हैं लेखन और वाचन में भी। इस संसार में किसी की भी जब स्वाभाविक मृत्यु होती है तो आकस्मिक या अचानक ही होती है। किसी की मृत्यु क्या सूचना देकर आती है? क्या इस तरह का कोई उदाहरण है? शायद नहीं। मेरे समझ से ऐसा हो भी नहीं सकता। मृत्यु हमेशा आकस्मिकता की ओर ही ईशारा करती है। फिर "आकस्मिक मृत्यु" शब्द के लगातार प्रयोग से उलझन पैदा होना स्वाभाविक है।
दोस्ताना संघर्ष - राजनीति की दुनिया में, जब से "गठबन्धन संस्कृति" का आविर्भाव हुआ है, इस शब्द का प्रयोग खूब प्रचलन में है जबकि इसमे प्रयुक्त दोनों शब्दों के अलग अलग अर्थ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। जब दोस्ती है तो संघर्ष कैसा? या फिर जब आपस में संघर्ष है तो दोस्ती कैसी? शायद आम जनता की आँखों पर गठबन्धन धर्म की आड़ में शब्दों के माध्यम से पट्टी बाँधने की कोशिश में इसका जन्म हुआ है।
दर्पण झूठ न बोले - ये कहावत न जाने कब से हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है और आम जीवन में खूब प्रचलित भी है। हम सभी जानते हैं कि "दर्पण बोल नहीं सकता" चाहे वो झूठ हो या सच। दर्पण सिर्फ हमारे प्रतिबिम्बों को दिखला सकता है। यदि और एक परत नीचे जाकर सोचें तो दर्पण मे दिखने वाला प्रतिबिम्ब भी पूरी तरह सच नहीं है बल्कि विपरीत है। बायाँ हाथ दर्पण में दाहिना दिखलाई देता है। मगर "दर्पण झूठ न बोले" प्रयोग हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।
एक दिन दर्पण के सामने खड़ा इसी सोच में डूबा था कि तत्क्षण कुछ विचार आये जो गज़ल की शक्ल में आपके सामने है -
छटपटाता आईना
सच यही कि हर किसी को सच दिखाता आईना
ये भी सच कि सच किसी को कह न पाता आईना
रू-ब-रू हो आईने से बात पूछे गर कोई
कौन सुन पाता इसे बस बुदबुदाता आईना
जाने अनजाने बुराई आ ही जाती सोच में
आँख तब मिलते तो सचमुच मुँह चिढ़ाता आईना
कौन ऐसा आजकल जो अपने भीतर झाँक ले
आईना कमजोर हो तो छटपटाता आईना
आईना बनकर सुमन तू आईने को देख ले
सच अगर न कह सका तो टूट जाता आईना
यूँ तो इस तरह के और कई शब्द हैं, खोजे जा सकते हैं लेकिन आज इतना ही।
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