1857 से भी 15 साल पहले एक क्रांति जिसे इतिहास ने गाया नहीं .......

शुक्रवार, 25 मई 2012

एक क्रांति जिसे इतिहास ने गाया नहीं भारत का इतिहास बताता हैं  की  प्रथम
संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के
पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम
से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का
सूत्रपात हुआ था।
पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई जनता  ने मऊ तहसील में
अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब
अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का
प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के
प्रथम संग्राम की ज्वाला  के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे
बढ़ाने में  महिलाओं की 'घाघरा पलटन' की भी अहम हिस्सेदारी थी।आजादी के संघर्ष
की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह
नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं।
अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत
कम लोग जानते हैं।

गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में
फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले
चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में
धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते
थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये
जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या
से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ
लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के 'नया गांव' के
चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत
करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की
ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ
लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया।

फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद
नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और  महिलाओं ने मऊ
तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये।  तहसील में
गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते
अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे 'जनता की अदालत' लगी और बाकायदा
मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह
ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़
दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में
कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और
तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से
अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों
ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये।

आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी
करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक
हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के
राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी।
दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार
लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए
बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों
के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा
छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया।
इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर
बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा,
दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने
युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया।  जब इस क्रांति
के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन
तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?सच पूछा जाये तो यह एक
वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम
जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज
करने के बराबर है| 

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