शिक्षा से ही नहीं, नौकरी से भी जाए अंग्रेजी

रविवार, 27 मई 2012

शिक्षा से ही नहीं, नौकरी से भी जाए अंग्रेजी
Dr.Kavita Vachaknavee



दैनिक भास्कर, 28 अप्रैल 2008 : प्रो. यशपाल यों तो हैं, वैज्ञानिक लेकिन बात उन्होंने ऐसी कह दी है, जो महात्मा गांधी और राममनोहर लोहिया ही कह सकते थे| आजकल वे एनसीईआरटी की राष्ट्रीय पाठ्रयक्रम समिति के अध्यक्ष हैं| इस समिति का काम देश भर की शिक्षा-संस्थाओं के लिए पाठ्रयक्रम बनाना है| ऐसी कई समितियॉं पहले भी बन चुकी हैं और कई नामी-गिरामी शिक्षाविद उनके अध्यक्ष और सदस्य रहे हैं लेकिन यह पहली बार है कि कोई अध्यक्ष जड़ तक पहुंचा है| पहली बार किसी अध्यक्ष ने कहा है कि बच्चों पर अंग्रेजी थोपी न जाए याने उन्हें वह पढ़ाई तो जाए लेकिन उसमें किसी को फेल न किया जाए|
क्यों कहा है, प्रो. यशपाल ने ऐसा? मुझे पता नहीं कि उनके तर्क क्या हैं लेकिन वे तर्क उनसे अलग क्या होंगे, जो हम बरसों से देते रहे हैं| सबसे पहला तर्क तो यही है कि सबसे ज्यादा बच्चे किसी विषय में फेल होते हैं तो वे अंग्रेजी में ही होते हैं| सरकारी संस्थाऍं इस ऑंकड़े को छिपाकर रखती हैं| 'भारतीय भाषा सम्मेलन' की ओर से अनेक पत्र् लिखने के बावजूद विश्व विद्यालय अनुदान आयोग और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पार्षद कभी यह नहीं बताते कि अंग्रेजी में फेल होेनेवाले छात्रें का प्रतिशत क्या है? हमारे सांसद और विधायक क्या कर रहे हैं? उन्हें यह सवाल पूछना चाहिए और अब यह सूचना के अधिकार के तहत अब पूछा ही जाएगा| सच्चाई यह है कि बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते 100 में से 96 बच्चे पढ़ाई से भाग खड़े होते हैं| ऐसा क्यों होता है? अन्य कारण तो हैं ही लेकिन सबसे गंभीर कारण अंग्रेजी की अनिवार्यता है| सारे विषयों की उपेक्षा करके सबसे ज्यादा ध्यान अंग्रेजी पर लगाना पड़ता है और परीक्षा के दिनों में उसी की दहशत दिल में बैठी रहती है| परीक्षा सजा की तरह मालूम पड़ती है और जब परिणाम आते हैं तो अंग्रेजी के कारण ही सबसे ज्यादा शर्मिंदगी उठानी पड़ती है| अन्य विषयों में कोई छात्र् कितना ही प्रवीण हो, अंग्रेजी के कारण वह अयोग्य घोषित हो जाता है या उसका दर्जा घट जाता है| अंग्रेजी योग्यता का पर्याय बन जाती है|
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में तो अंग्रेजी क़हर ढाती है| यूरोप के कुछ देशों ने भारत की नकल करके अपने बच्चों पर अनिवार्य अंग्रेजी थोपने की कोशिश की| नतीजा यह हुआ कि उन्हें तरह-तरह की बीमारियॉं होने लगी| उनकी भूख मर गई, याददाश्त घट गई, नींद गड़बड़ा गई, सिरदर्द रहने लगा, जुबान हकलाने लगी| विदेशी भाषा वे बच्चे तो सीख ही नहीं पाते, जिनके माता-पिता उसे नहीं जानते| भारत के मुश्किल से 5-6 प्रतिशत माता-पिता थोड़ी-बहुत अंग्रेजी जानते हैं| इसका अर्थ यह हुआ कि गरीबों, ग्रामीणों, पिछड़ों, अनुसूचितों और तथाकथित अल्पसंख्यकों के बच्चों को तो फेल होना ही है| शिक्षा के नाम पर अपने दिमाग में हीनता-ग्रंथि पालना ही है और मौका मिलते ही स्कूली शिक्षा से पिंड छुड़ाना ही है| ऐसे में सर्व शिक्षा अभियान क्या कोरा मज़ाक बनकर नहीं रह जाएगा?
प्रो. यशपाल के अलावा आज तक किसी शिक्षा मंत्री को यह बात क्यों नहीं सूझी कि अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई बच्चों के लिए जानलेवा है| क्या हम भूल गए कि पिछले साल इंजीनियरिंग के छात्र् ब्रजेश जायसवाल और इलाहाबाद के बैंक कर्मचारी रामबाबू ने अंग्रेजी के कारण ही आत्महत्या की थी| अभी-अभी दिल्ली के एक अन्य छात्र् ने भी मरने के पहले यही कारण बताया था| उसके पिता अंग्रेजी माध्यम के स्कूल की फीस नहीं भर सकते थे| हमारे कई मुख्यमंत्री और शिक्षा-मंत्री बाल शिक्षा के साथ बड़ी दुश्मनी कर रहे हैं| वे पहली कक्षा से ही अंग्रेजी को अनिवार्य बना रहे हैं| वे सोचते हैं कि अगर अंग्रेजी से ही नौकरी मिलनी है और सामाजिक हैसियत बननी है तो फिर उसे पॉंचवीं से क्यों, पहली कक्षा से ही क्यों न पढ़ाया जाए? उनका इरादा नेक है लेकिन उनकी कारगुजारी बाल-हत्या से कम नहीं है| आज तक दुनिया के किसी मूर्खतम तानाशाह ने जो काम नहीं किया, वे हमारे मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री कर रहे हैं| अंग्रेजी में किसी को फेल न किया जाए, यह बड़ी नरम मांग है| ज्यादा जरूरी है कि अंग्रेजी की पढ़ाई को एच्छिक बनाया जाए| जिसे अंग्रेजी पढ़ना हो, वह कॉलेज में पढ़े और जमकर पढ़े | साल-दो साल में इतनी अच्छी पढ़ ले कि वह अंग्रेजों को अंग्रेजी सिखाए| हमारी विद्यार्थी अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा के गुलाम बनने की बजाय उसके स्वामी बनें| विदेशी भाषा को अपने लाभ का साधन बनाएं न कि उसके गुलाम बन जाएं|
इतना काफी नहीं है कि अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई खत्म हो| यह भी जरूरी है कि अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय नहीं पढ़ाया जाए| यदि सारे विषय–ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, काम-धंधे आदि अपनी भाषाओं में पढ़ाए जाऍं तो बच्चे उन्हें जल्दी सीखेंगे और बेहतर सीखेंगे| साठ साल तक हमारी शिक्षा में उल्टी खोपड़ी चलती रही| हमने वह मूर्खता की जो दुनिया के किसी भी देश ने नहीं की| यदि हम स्वभाषा का माध्यम बनाते तो अब तक हम चीन और रूस से आगे निकल जाते| क्या अमेरिका, बि्रटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान ने अपने बच्चों को विदेशी माध्यम से पढ़ाया है? अंग्रेजी ने हमारी शिक्षा की गुणवत्ता को तो घटाया ही, उसका विस्तार भी रोका| अंग्रेजी ने देश में अशिक्षा फैलाई| आज भी 70-80 प्रतिशत भारतीय अशिक्षित हैं| 70 प्रतिशत लोग साक्षर हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वे शिक्षित हैं| जो सिर्फ अपना दस्तखत कर सके, क्या उसे हम शिक्षित कहेंगे? यदि शत-प्रतिशत भारतीय शिक्षित होते तो भारत कभी का महाशक्ति बन गया होता| बेरोजगारी खत्म हो गई होती| आरक्षण अनावश्यक हो जाता| समतामूलक समाज बनता|
लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है, क्योंकि हमारे सवर्ण, शहरी और मुट्ठीभर अंग्रेजीदॉं नेताओं ने अंग्रेजी का जबर्दस्त तिलिस्म खड़ा कर दिया है| उसे नौकरियों से जोड़ दिया है| यह सिर्फ भारत में ही होता है| किसी भी देश में किसी को नौकरी से इसलिए वंचित नहीं किया जाता कि उसे विदेशी भाषा नहीं आती| अंग्रेजी जाने बिना आप भारत में केवल चपरासी या चौकीदार की नौकरी ही पा सकते हैं| इसीलिए गरीब लोगों को अपना पेट काटकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है| यदि नौकरियों से अंग्रेजी हटा लें तो यह तिलिस्म धड़ाम से जमीन पर आ गिरेगा| कौन बेवकूफ है, जो हिरण पर घास लादेगा? सारे पब्लिक स्कूल साल भर में ही बंद हो जाऍंगे| भारत और इंडिया का भेद पैदा करनेवाली जड़ कट जाएगी| इसीलिए अंग्रेजी सिर्फ शिक्षा में ही नहीं, नौकरी में भी एच्छिक होनी चाहिए| आइए प्रो. यशपालजी, थोड़ा और आगे बढि़ए| हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर चलिए|

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