”हिंदी-अंग्रेज़ी टक्कर?” Clash between Hindi - English

शनिवार, 12 मई 2012

"हिंदी-अंग्रेज़ी टक्कर?"

डॉ. मधुसूदन

http://www.pravakta.com/dr-madhusudan-hindi-english-competition-part-a

(क) एक रविवारीय भोज के बाद, वार्तालाप में, भोजनोपरांत डकारते डकारते, मेरे एक
पश्चिम-प्रशंसक, { भारत-निंदक, उन्हें स्वीकार ना होगा } वरिष्ठ मित्र नें
प्रश्न उठाया, कि "क्या, तुम्हारी हिंदी अंग्रेज़ी से टक्कर ले सकती है? सपने
में भी नहीं।" यह सज्जन, हिंदी के प्रति, हीन भाव रखनेवालों में से है। वे, उन
के ज्ञान की अपेक्षा, आयु के कारण ही, आदर पाते रहते है।

पर आंखे मूंद कर, "साहेब वाक्यं प्रमाणं", वाला उन का, यह पैंतरा और भारत के
धर्म-भाषा-संस्कृति के प्रति हीन भावना-ग्रस्त-मानस मुझे रुचता नहीं। पर, ऐसी
दुविधा में क्या करता? दुविधा इस लिए, कि यदि, उनकी आयु का आदर करूं, तो असत्य
की, स्वीकृति समझी जाती है; और अपना अलग मत व्यक्त करूं, तो एक वरिष्ठ मित्र का
अपमान माना जाता है। पर कुछ लोग स्वभाव से, आरोप को ही प्रमाण मान कर चलते हैं।
यह सज्जन ¨ भी बहुत पढे होते हुए भी, उसी वर्ग में आते थे।

इस लिए, उस समय, उनका तर्क-हीन निर्णय और सर्वज्ञानी ठप्पामार पैंतरा देख, मुझे
कुछ निराशा-सी हुयी। ऐसा नहीं, कि मेरे पास कुछ उत्तर नहीं था; पर इस लिए भी ,
कि हिंदी तो मेरे इस मित्र की भी भाषा थी, एक दृष्टि से मुझ से भी कुछ अधिक
ही।पर उस समय उनका आक्रामक रूप, चुनौती भरा पैंतरा और "सपने में भी नहीं" यह
ब्रह्म वाक्य और आयु देख, उन्हें उत्तर देना मैं ने उचित नहीं माना। पर इस
प्रसंग ने मेरी जिज्ञासा जगाई, अतः इस विषयपर कुछ पठन-पाठन-चिंतन-मनन इ. करता
रहा।

(ख) तो, क्या, हिंदी अंग्रेज़ीसे टक्कर ले सकती है?

निश्चित ले सकती है। और हिंदी भारतके लिए कई गुना लाभदायी ही नहीं,
शीघ्र-उन्नतिकारक भी है। भारत की अपनी भाषा है। मैं इस विषयका हरेक बिंदु
न्यूनतम शब्दों में क्रमवार आपके सामने रखूंगा। केवल तर्क ही दूंगा, भावना नहीं
जगाउंगा। तर्क की भाषा सभी को स्वीकार करनी पडती है, पर केवल भावनाएं, आप को
वयक्तिक जीवन में जो चाहो, करने की छूट देती है। और मैं चाहता हूं, कि सभी
भारतीय हिंदी को अपनाएं; इसी लिए तर्क, केवल तर्क ही दूंगा।

(ग)

आप निर्णय लें, मैं नहीं लूंगा। न्यूनतम समय लेकर मैं क्रमवार बिंदू आप के
समक्ष रखता हूँ। इन बिंदुओं में भाउकता नहीं लाऊंगा। राष्ट्र भक्ति, भारतमाता,
संस्कृति, इत्यादि शब्दों से परे, केवल तर्क के आधार पर प्रतिपादन करूंगा। तर्क
ही, सर्व स्वीकृति के लिए उचित भी और आवश्यक भी है। इस लिए, केवल तर्क-तर्क-और
तर्क ही दूंगा।

"हिंदी और देवनागरी की वैज्ञानिकता"

(१)हर बिंदू पर गुणांक, आप अपने अनुमानके अनुसार, लगाने के लिए मुक्त हैं।

हमारी देवनागरी समस्त संसार की लिपियों में सबसे अधिक वैज्ञानिक है,सर्वोत्तम
हैं। और, संसार के किसी भी कोने में प्रयुक्त वर्णमाला वैज्ञानिक रूप में
विभाजित नहीं है, जैसी देवनागरी है। [गुणांक ५० अंग्रेज़ी २०]

(२) आप अपना नाम हिंदी में लिखिए। मैं ने "मधुसूदन"(५ अक्षर) लिखा। अब
अंग्रेज़ी-रोमन में लिखिए "madhusudan" (१० अक्षर) अब, बताइए कि १० अक्षर
लिखनेमें अधिक समय लगेगा, या ५ अक्षर लिखने में? ऐसे आप किसी भी शब्दके विषय
में कह सकते हैं। गुणांक {हिंदी २०-अंग्रेज़ी १०}

(३) हिंदी में वर्तनी होती है, पर अंग्रेज़ी की भांति स्पेलिंग नहीं होती। लिपि
चिह्नों के नाम और ध्वनि अभिन्न (समरूप) है।जो बोला जाता है, उसीको लिखा जाता
है। क लिखो, और क ही पढो, गी लिखो और गी ही पढो।जो लिखा जाता है, वही बोला जाता
है। ध्वनि और लिपि मे सामंजस्य है।

अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। लिखते हैं S- T- A- T- I- O- N, और पढते हैं
स्टेशन। उसका उच्चारण भी आपको किसीसे सुनना ही पडेगा। हमें तो देवनागरी का लाभ
अंग्रेज़ी सीखते समय भी होता है, उच्चारण सीखने में भी, शब्द कोष के कोष्ठक मे
देवनागरी में लिखा (स्टेशन) पढकर हम उच्चारण सीख गए। सोचो, कि केवल अंग्रेज़ी
माध्यम में पढने वाला इसे कैसे सीखेगा? चीनी तो और चकरा जाएगा। देखा देवनागरी
का प्रताप ! [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(४) और, अंग्रेज़ी स्पेलिंग रटने में आप घंटे, बीता देंगे। इस एक ही, हिंदी के
गुण के आधार पर हिंदी अतुलनीय हो जाती है। आज भी मुझे (एक प्रोफेसर को)
अंग्रेज़ी शब्दों की स्पेलिंग डिक्षनरी खोल कर देखने में पर्याप्त समय व्यय
करना पडता है।हिंदी शब्द उच्चारण ठीक सुनने पर, आप उसे लिख सकते हैं। कुछ
वर्तनी का ध्यान देने पर आप सही सही लिख पाएंगे। {हिं 100 गुण -अं – १० )।

हो सकता है, आपको 100 गुण अधिक लगे। पर आप के समय की बचत निश्चित कीमत रखती है।
इससे भी अधिक, यह गतिमान, शीघ्रता का युग है। समय बचाने आप क्या नहीं करते?
विमान, रेलगाडी, मोटर, बस सारा शीघ्रता के आधार पर चुना जाता है।

(५) हिंदी में, एक ध्वनिका एक ही संकेत है। अंग्रेज़ी में एक ही ध्वनि के लिए,
अनेक संकेत काम में लिए जाते हैं। उदा. जैसे —-> क के लिए, k (king), c (cat),
ck (cuckoo) इत्यादि.

एक संकेत से अनेक ध्वनियाँ भी व्यक्त की जाती है। उदा. जैसे—> a से (१) अ (२)आ
(३) ऍ (४) ए (५) इत्यादि। [हिंदी २५ अंग्रेज़ी १०]

(६) यही कारण था, कि, शालांत परीक्षा में हिंदी (मराठी) माध्यम से हम लोग
शीघ्रता से परीक्षा के प्रश्न हल कर लेते थे। जब हमारे अंग्रेज़ी माध्यमों वाले
मित्र विलंब से, उन्ही प्रश्नों को अंग्रेज़ी माध्यम से जैसे तैसे समय पूर्व
पूरा करने में कठिनाई अनुभव करते थे। एक उदाहरण लेकर देखें। भूगोल का प्रश्न:

कोंकण में रेलमार्ग क्यों नहीं? {१२ अक्षर}और अंग्रेज़ी में होता था,

Why there are no railways in Konkan?{२९ अक्षर}

उसका उत्तर लिखने में भी उन्हें अधिक लिखना पडता था। अक्षर भी अधिक, गति पराई
भाषा होने से धीमी, और अंग्रेज़ी में, सोचना भी धीमे ही, होता था। प्रश्न तो
वही था, पर माध्यम अलग था।और फिर शायद उन्हें स्पेलिंग का भी ध्यान रखना पडता
था। पर परीक्षार्थी का प्रभाव निश्चित घट जाता होगा। जो उत्तर एक पन्ने में हम
देते थे, वे दो पन्ने लेते थे। (हिं २५-अं १०}

(७) हिंदी का लेखन संक्षेप में होता है।

उदा:एक बार मेरी, डिपार्टमेंट की बैठक में, युनिवर्सीटी के अध्यक्ष बिना पूर्व
सूचना आए थे, जब हमारी सहायिका (सेक्रेटरी) छुट्टी पर थी। तो कनिष्ठ प्राध्यापक
होने के नाते, मुझे उस के सविस्तार विवरण के लिए नियुक्त किया गया।इस बैठक मे,
अध्यक्ष ने महत्व पूर्ण वचन दिए थे, जिस का विवरण आवश्यक था।

मैने कुछ सोच कर, देवनागरी मे, अंग्रेजी उच्चारों को लिखा, जो रोमन लिपिकी
अपेक्षा, दो से ढाइ गुना शीघ्र था। जहां The के बदले 'द' से काम चलता था,
laboratory Expense के बदले लॅबोरॅटरी एक्सपेंस इस प्रकार लिख कर नोट्स तैय्यार
किए, शब्दों के ऊपर की रेखा को भी तिलांजली दी। फिर घर जाकर, उसी को रोमन लिपि
मे रूपांतरित कर के दुसरे दिन प्रस्तुत किया। विभाग के अन्य प्रोफेसरों के,
अचरज का पार ना था। पूछा, क्या मà �ˆ शॉर्ट हॅंड जानता हूं? मैने उत्तर मे
हिंदी- देव नागरी की जानकारी दी। उनके नाम लिख कर थोडी प्राथमिक जानकारी दी।
उन्हें, हमारी नागरी लिपि कोई पहली बार समझा रहा था। अपेक्षा से कई अधिक,
प्रभावित हुए। एक आयर्लॅण्ड से आया प्रॉफेसर लिपि के वलयांकित सुंदर(सविनय,मेरे
अक्षर सुंदर है)अक्षरों को देख कर बोला ,यह तो सुपर-ह्यूमन लिपि है। {मन में
सोचा, यह तो, अंग्रेज़ी में, इसे, देव(Divine) नागरी कह रहा à �ै।} संसार भर
में, इतनी वैज्ञानिक लिपि और कोई नहीं। सारे पी एच डी थे, पर उन्हें किसी ने
हिंदी-नागरी लिपि के बारे में ठीक बताया नहीं था। हिंदी को उस के नाम से जानते
थे, कुछ शब्द जैसे नमस्ते इत्यादि जानते थे। बंधुओ ! लगा, कि, हम जिस ढेर पर
बैठे हैं, कचरे कूडे का नहीं पर हीरों का ढेर है। हृदय गद गद हुआ। हिंदी पर,
गौरव प्रतीत हुआ। [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(८) व्यक्ति सोचती भी शब्दों द्वारा है।जब आप सोचते हैं, मस्तिष्क में शब्द
मालिका चलती है। लंबा शब्द अधिक समय लेता है, छोटा शब्द कम।

तो जब अंग्रेज़ी के शब्द ही लंबे हैं, तो उसमें सोचने की गति धीमी होनी ही है।
अतिरिक्त, वह परायी भाषा होनेसे और भी धीमी। इसका अर्थ हुआ, कि अंग्रेज़ी में
विचारों की गति हिंदी की अपेक्षा धीमी है। मेरी दृष्टि में हिंदी अंग्रेज़ी से
दो गुना गतिमान है। [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(९) लेखन की गति का भी वही निष्कर्ष। जो आशय आप ६ पन्नों में व्यक्त करेंगे।
अंग्रेज़ी में व्यक्त करने में आपको १० पन्ने लगते हैं। गीता का एक २ पंक्ति का
श्लोक पना भरकर अंग्रेज़ी में समझाना पडता है।[हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(१०) अर्थात, आप अंग्रेज़ी भाषा द्वारा शोध कर रहे हैं, तो जो काम ६ घंटों में
हिंदी में कर सकते थे, उसे करने में आप को १० घंटे लग सकते हैं। अर्थ: आप शोध
कार्य हिंदी में करेंगे, तो जीवन भर में ६७% से ७५% अधिक शोधकार्य कर सकते हैं।
[हिं ५० अंग्रेज़ी २५]

(११) इस के अतिरिक्त हर छात्रको हिंदी माध्यम द्वारा, आज की शालेय शिक्षा अवधि
में ही,(११-१२ वर्ष में) MSc की उपाधि मिल पाएगी। अर्थात आज तक जितने लोग केवल
शाला पढकर निकले हैं, वे सारे M Sc से विभूषित होत।अंग्रेज़ी के कारण, यह ज्ञान
भंडार दुर्लक्षित हो गया है।{ संदर्भ: बैसाखी पर दौडा दौडी, मुख्तार सिंह
चौधरी} तो, क्या भारत आगे नहीं बढा होता? क्या भारत पीछडा होता ? भारत आज के
अनुपातमें, कमसे कम, ३ स े ५ गुना आगे निकल गया होता?वैसे हम भारतीय बहुत
बुद्धिमान है। यह जानकारी परदेश आकर पता चली। { हिंदी ५०० अंग्रेज़ी १००}

(१२) किसी को अंग्रेज़ी, रूसी, चीनी, अरबी, फारसी ही क्यों झूलू, स्वाहिली.
हवाइयन —-संसार की कोई भी भाषा पढने से किस ने रोका है? प्रश्न:कल यदि रूस आगे
बढा तो क्या तुरंत सभी को रूसी में शिक्षा देना प्रारंभ करेंगे? और परसों चीन
आगे बढा तो? और फ्रांस?

वास्तव में पडोस के, चीन की भाषा पर्याप्त लोगों ने (सभी ने नहीं)सीखने की
आवश्यकता है। उन की सीमा पर की कार्यवाही जानने के लिए। मेरी जानकारी के अनुसार
आज कल यह जानकारी हमें अमरिका से प्राप्त होती है। या,फिर आक्रमण होने के बाद!
[अनुमानसे लिखा है] अमरिका में सारी परदेशी भाषाएं गुप्त शत्रुओं की जान कारी
प्राप्त करने के लिए पढी जाती हैं।

जो घोडा प्रति घंटा ५० मील की गति से दौडता है, वह क्या २० मील प्रति घंटा
दौडनेवाले घोडेसे अधिक लाभदायी नहीं है?

पर भारतीय कस्तुरी मृग(हिरन) दौड रहा है, सुगंध का स्रोत ढूंढने। कोई तो उसे
कहो, कहां भटक रहे हो, मेरे हिरना!तेरे पास ही, सुगंध-राशी है।

मुझे यह विश्वास नहीं होता, कि ऐसी कॉमन सेन्स वाली जानकारी जो इस लेखमें लिखी
गयी है, हमारे नेतृत्व को नहीं थी? क्या किसी ने ऐसा सीधा सरल अध्ययन नहीं
किया?

अब भी देर भले हुयी है। शीघ्रता से चरण बढाने चाहिए।

तो,क्या हिंदी अंग्रेज़ी से टक्कर ले सकती है? आप बुद्धिमान हैं। आप ही निर्णय
करें।

----

डॉ. मधुसूदन उवाच
सम्माननीय इन्सान , एवं डॉ. राजीव जी—बहुत बहुत धन्यवाद।आप को निम्न घटना
सुनाने का मन करता है।

१९८४ में एक शोधपत्र प्रस्तुत करने वायोमिंग -गया था, भोजन के लिए लगभग १२
भारतीय प्राध्यापक साथ बैठे बैठे आपस में, अंग्रेज़ी में वार्तालाप करते देख,
निकट से जा रहे अमरिकन को अचरज सा हुआ। और उसने (हम लोगों से) पूछा, कि आप
लोग क्यों भारतीय भाषा में बात नहीं करते? आप सभी तो भारतीय दिखाइ देते हो? तो
एक भारतीय (जो कुछ विद्वान भी थे) नें उत्तर दिया, कि अंग्रेज़ी ही हमारी
"राष्ट्र भाषा समान" ही तो है। और यह थे हमारे पढे लिखे वयोवृद्ध, "बुद्धि
भ्रमित" प्राध्यापक, जिन्हें भारत ने आगे बढने में शाला, विश्वविद्यालयों में
इत्यादि अनुदान देकर पढाया, लिखाया। क्या ऋण चुका रहे थे? वयोवृद्ध की वय
देखकर भी, मैंने उनसे बाद में आदर सहित, बात करने का प्रयास किया; पर वे मुझे
ही उपदेश देने लगे, कि मैं कुछ और समझदार बनुं।
जी, हम मूरख है, यह जानकारी भी हमें नहीं, तो हमें कौन बचा सकता है?

--------------

डॉ. राजीव कुमार रावत

आपका लेख बहुत सार्थक है। समस्या यह है कि देश में हिंदी के प्रति कहीं भी
सम्मान अथवा आग्रह नहीं है और इसका सबसे मुख्य कारण हमारे आका गण हैं क्योंकि
वे भारतीय हैं ही नहीं न सोच में, न जीवन में- लोकतंत्र बंधक बना हुआ है अभी
भी। मूल में जाएं तो हमारी आजादी का इतिहास ठेके पर लिखाया गया जो कि सच्चाई से
कोसों दूर था और इसमें चिकनी मिट्टी के रंग विरंगे खिलोंनों को शेर दर्शाया
गया- बलिदानियों के उत्सर्ग की उपेक्षा की गई, हिंदी ने देश को एक किया था,
लेकिन बताया नहीं गया- नैतिकता की कहानियों को प्राथमिक शिक्षा में से चुन चुन
कर निकाला गया,जिससे कि आज जो दो पीढिया है ४० -६० की उमर की और उसके बाद की
पूरी पंक्ति – इसे देश की गरिमा, आत्माभिमान, निज भाषा से कोई सरोकार रह नहीं
गया है-और उसी कूड़े में से आज हमारे आका हैं- सिर्फ सुविधा के कीड़े- इस लिए
राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनकी न कोई सोच है और न कोई आग्रह- भाषा का प्रश्न भी
उनमें से एक है।
संविधान के अनुसार जब २६ जनवरी १९६५ से हिंदी को पूरी तरह लागू हो जाना था और
अंग्रेजी को इस देश से विदा हो जाना था , आकाऔं को लगा कि अगर शासन की भाषा
हिंदी हो गई तो हमारा वैश्ष्टिय समाप्त हो जाएगा- आम आदमी हमसे सवाल करने लगेगा
और षणयंत्र रचते हुए १५ वर्ष के स्थान पर जब तक संसद चाहे शब्द संशोधित कर रख
दिए गए । एक विचित्र दुर्योग मैं आप सभी के संज्ञान में विना किसी दुर्भावना के
लाना चाहता हूं। स्व. शास्त्री जी की तपस्वी आत्मा मुझे क्षमा करे- भारत के
गौरव को मिटाने में और अनंतकाल तक समस्या को लटकाने में आदरणीय शास्त्री जी दो
बार मोहरा बन गए । सन- १९६५ में जब युद्ध जीत गए थे और सारी शर्तें हम मनवाने
की ठोस स्थिति में थे वहां वे वार्ता की मेज पर स्वाभिमान हार गए और इसी अपराध
बोध के चलते या तो ह्रदयाघात से उनका शरीर शांत हो गया अथवा किसी राजनीतिक
षणयंत्र के चलते उनकी हत्या कर दी गई । दूसरे संसद में भी हिंदी के स्थान पर
अंग्रेजी अनंतकाल तक लागू रहेगी का प्रस्ताव भी लोकसभा में आदरणीय शास्त्री जी
से ही रखवाया गया- विपक्ष ने वाकआउट किया लेकिन स्व. लक्ष्मीमल सिंघवी अपनी बात
कहते रहे कि मैं यहां वाकआउट करने नहीं अपनी बात कहने आया हूं। बाद में गलियारे
में शास्त्रीजी से उन्होंने उलाहना भरा विरोध जताया तो शास्त्री जी कहने लगे कि
मैं आपकी भावना से सहमत हूं किंतु आप हमारी लाचारी समझिए-। लम्हों की खता पता
नहीं देश कितनी सदियों तक भुगतेगा ? जय हिंद जय हिंदी

-------------

इंसान

बहुत सुन्दर आलेख है| इसे पूर्णतया पढ़ अंत में प्रस्तुत कुछ परिच्छेदों को देर
तक फिर से पढता रहा हूँ|

मधुसूदन जी, सयुंक्त राष्ट्र अमरीका में बैठ हिंदी भाषा के प्रति भावपूर्ण कहे
आपके शब्द, "पर भारतीय कस्तुरी मृग (हिरन) दौड रहा है, सुगंध का स्रोत ढूंढने।
कोई तो उसे कहो, कहां भटक रहे हो, मेरे हिरना! तेरे पास ही, सुगंध-राशी है।"
अपने में शुद्ध कविता हैं| अवश्य ही, व्यर्थ में हमें रूलाने के आप दोषी हैं|

और जहां तक आपके वक्तव्य, "मुझे यह विश्वास नहीं होता, कि ऐसी कॉमन सेन्स वाली
जानकारी जो इस लेख में लिखी गयी है, हमारे नेतृत्व को नहीं थी? क्या किसी ने
ऐसा सीधा सरल अध्ययन नहीं किया?" की बात है, मैंने स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक
क्षितिज पर कभी किसी ऐसे दूरदर्शी को नहीं देखा जो अखंड भारत में हिंदी भाषा को
राष्ट्रभाषा का सम्मान दिला सके|

मानो न मानो, बीते शतकों की परिस्थितियों के बावजूद हिंदी-अंग्रेज़ी टक्कर में
हिंदी अवश्य प्रबल रही है।

------------

अभिषेक उपाध्याय

सदर चरण स्पर्श !
बहुत ही सारगर्भित विश्लेषण है ,निज भाषा की इतनी गहरी वैज्ञानिक और तार्किक
शक्ति को जानकार काफी विस्मय और हर्ष हुआ ! अमेरिकी विश्वविद्यालय में २५
वर्षों से भी अधिक अध्यापन के अनुभव के आधार पर अगर आप निज भाषा के वैभव से
अवगत करते हैं तो वाकई काफी गर्व होता है ! आप हमारे लिए प्रेणना स्रोत हैं
!अंग्रेजीदां तथाकथित विद्वानों के लिए यहाँ पर्याप्त जवाब दिए हैं आपने !
चाणक्य अनुसार- " देश में विपत्ति की परिस्थिति में शिक्षकों का दायित्व काफी
महत्वपूर्ण हो जाता है , जिस राष्ट्र में शिक्षक सोया हो उस राष्ट्र का पतन
शीघ्र होता है " वर्तमान में आप सुदूर सात समुद्र पार से भारत के छात्रों समेत
नागरिको को जागरूक कर पुनरराष्ट्रनिर्माण में बहुत ही महती भूमिका अदा कर रहे
हैं ! आपका बहुत बहुत आभार , आपके आशीर्वाद की आकांक्षा के साथ …

-----------

dharmendra Kumar Gupta

डॉ. मधुसूदनजी का लेख "हिंदी-अंग्रेज़ी टक्कर?" पढ़ा. देवनागरी लिपि की
वैज्ञानिकता हिन्दी का वह पक्ष है जिसकी तुलना विश्व की कोई भाषा नहीं कर सकती
.डॉ. भोलानाथ तिवारी की भाषा बिज्ञान पुस्तक सुधीजन अवश्य देखें. आज यदि संकट
है दो स्वाभिमान का ,आत्म-सम्मान का. भारत सरकार के वैज्ञानिक व तकनीकी
शब्दावली आयोग ने इतना भारी कम किया है की अब उसे विश्व की आम जाता के लिए वेब
साइट के माध्यम से सर्व जन हिताय सार्वजनिक किया जाना चहिए.आज हिंदी की
सामर्थ्य का नहीं अपितु देश के कर्णधारों की हिन्दी को लेकर हीनताग्रंथी का
संकट है मैं विख्यात कवि दुष्यंत कुमार की गजलके पक्तिंयाँ उधृत करना चाहूँगा-
"मेले में खोए होते तो कोई घर पहुंचा देता, हम तो अपने ही घर में खोए हैं कैसे
थोर ठिकाने आयेंगे ?"
-धर्मेन्द्र कुमार गुप्त, इंदौर

मधुसूदन उवाच

-धर्मेन्द्र कुमार गुप्त, जी। टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
"मेले में खोए होते तो कोई घर पहुंचा देता, हम तो अपने ही घर में खोए हैं कैसे
थोर ठिकाने आयेंगे ?"
आप की टिप्पणी पढ़ी।
अंग्रेज़ी ही हिन्दी की शत्रु हैं। इसी लिए, मेरा प्रयास है, कि हिन्दी को,
अंग्रेज़ी से अधिक तर्कशुद्ध बताएं- बिना, हिन्दी सफल होने की संभावना कम देखता

---------------------

mlesh

सचमुच एक अद्भुत अनुभव आपके द्वारा दिया गया जिसे सभी झेल तो रहे है (अपवादों
को छोड़ दे ) किन्तु अनुभव नहीं कर रहे है .

सच्चे अर्थो में मधुसुदन जी आप मात्रभूमि के ऋण से उऋण हो रहे है .

---------

0 टिप्पणियाँ:

प्रकाशित सभी सामग्री के विषय में किसी भी कार्यवाही हेतु संचालक का सीधा उत्तरदायित्त्व नही है अपितु लेखक उत्तरदायी है। आलेख की विषयवस्तु से संचालक की सहमति/सम्मति अनिवार्य नहीं है। कोई भी अश्लील, अनैतिक, असामाजिक,राष्ट्रविरोधी तथा असंवैधानिक सामग्री यदि प्रकाशित करी जाती है तो वह प्रकाशन के 24 घंटे के भीतर हटा दी जाएगी व लेखक सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। यदि आगंतुक कोई आपत्तिजनक सामग्री पाते हैं तो तत्काल संचालक को सूचित करें - rajneesh.newmedia@gmail.com अथवा आप हमें ऊपर दिए गये ब्लॉग के पते bharhaas.bhadas@blogger.com पर भी ई-मेल कर सकते हैं।
eXTReMe Tracker

  © भड़ास भड़ासीजन के द्वारा जय जय भड़ास२००८

Back to TOP