शुक्रवार, 22 जून 2012


बिजली संकट से अराजकता का डर
- जयसिंह  रावत-
बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच अगर इसी तरह खाई निरन्तर बढ़ती गयी और सरकार बिजली उत्पादन विरोधियों के आगे इसी तरह नतमस्तक होती रही तो भारत में आने वाला समय एक गम्भीर अराजक स्थिति लेकर आने वाला है। इससे केवल विकास का पहिया थमेगा अपितु देश में कानून व्यवस्था की हालत और भी बेकाबू हो जायेगी। क्योंकि बिजली आज पानी की ही तरह मानव जीवन के लिये एक आवश्यक आवश्यकता बन गयी है। नगरीय क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति सीधे बिजली से जड़ी हुयी है। अगर बिजली नही ंतो पानी भी नहीं। उस बेहद जरूरी आवश्यकता से वंचित होने पर लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। बिजली संकट से त्रस्त जनता का यह गुस्सा उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के कई अन्य हिस्सों में भी फूट कर सड़कों पर उतरने लगा है।
भारत में कुण्डनकुलम और जैतापुर परमाणु बिजली घरों से लेकर समस्त प्रस्तावित और निर्माणाधीन तापीय बिजली घरों के साथ ही उत्तराखण्ड जैसे प्रदेशों में पन बिजली घरों का जिस तरह घोर विरोध हो रहा है उसे देखते हुये देश को जगमगाने के लिये जिम्मेदार उर्जा क्षेत्र का स्वयं का भविष्य अन्धकारमय नजर आने लगा है। तमिलनाड़ू में 9200 मेगावाट के कुण्डनकुलम और जैतापुर महाराष्ट्र में 9900 मेगावाट के परमाणु बिजली घरों से लेकर गुजरात के 3300 मे0वाट के भद्रेश्वर और विदर्भ के 47 अन्य तापीय बिजली घरों  तक देश का शायद ही कोई ऐसा बिजली प्रोजेक्ट होगा जिसका विरोध नहीं हो रहा हो। उत्तराखण्ड में  600 मेगावाट की लोहारी नागपाला, 480 मेगावाट की पाला मनेरी और 381 मेगावाट की भैरोंघाटी परियोजना बन्द हुयी तो परियोजना विरोधियों के हौसले अब और बुलन्द हो गये। पहले प्रो0 जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द की सफलता से उत्साहित शंकराचार्य स्वामी स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती ने बक गंगा पर परियोजना विरोध की कमान सम्भाल ली है। नतीजतन 330 मेगावाट की श्रीनगर और 444 मेगावाट की विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना के भविष्य पर भी खतरे के बादल मंडरा गये। इनमें से श्रीनगर प्रोजेक्ट का 80 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और उस पर लगभग 2000 हजार करोड़ रुपये खर्च भी हो चुके हैं। इसी प्रकार विष्णुगाड-पीपलकोटी का भी लगभग 40 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। अगर ये परियोजनाऐं बन्द होती हैं तो अलकनन्दा पर प्रस्तावित कुल 830 मेगावाट की कोटली बहल और  देवप्रयाग के निकट बनने वाली 320 मेगावाट की द्वितीय चरण की परियोजना के साथ ही  लगभग 19 हजार मेगावाट क्षमता की जल विद्युत परियोजनाओं के भविष्य पर पानी फिर जायेगा। राज्य में कुल 20,263 मेगावाट क्षमता की 261 परियोजनाऐं विभिन्न चरणों में हैं।
यह सही है कि राष्ट्रहित के नाम पर या समाज के व्यापक हित के नाम पर कई बार ऐसी परियोजनाओं के निर्माण के समय स्थानीय समुदाय के हितों की और खास कर स्थानीय पारितन्त्र पर पड़ने वाले प्रभाव की अनदेखी कर दी जाती है। स्थानीय लोगों की उपेक्षा के कारण भी लोग ऐसी परियोजनाओं के प्रति आशंकित हो उठते हैं। यह भी सही है कि सरकारी तंत्र का रवैया पर्यावरण और स्थानीय समुदाय के प्रति संवेदनहीन होता है और आम धारणा होती है कि सरकार का एक विभाग दूसरे विभाग की परियोजनाओं को आंख मंूद कर पर्यावरण आदि की क्लीयरेंस दे देता है। देखा जाय तो इस मामले में सरकार का भी पिछला रिकार्ड बिल्कुल पाक साफ नहीं है। कई बार सरकारी इंजिनीयर परियोजना की लागत और आकार बढ़ाने के लिये उसके मूल डिजायन में संशोधन कर उसे विस्तारित करते रहते हैं। टिहरी बांध का ही उदाहरण लिया जा सकता है। यह परियोजना मूल रूप से 600 मेगावाट की थी जिसकी क्षमता बढ़ाते-बढ़ाते 2400 मेगावाट और लागत 600 करोड़ से 9000 करोड़ तक कर दी गयी। श्रीनगर प्रोजेक्ट समेत उत्तराखण्ड में शायद ही कोई ऐसी बिजली परियोजना होगी जिसका मूल डिजाइन बदल कर उसकी क्षमता बढ़ाई गयी हो इस सबके बावजूद गौरतलब है कि भले ही स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुसार परियोजना विरोध के कारण अलग-अलग हों, मगर सब जगह समानता यह होती है कि विरोध करने वाले या विरोध को हवा देने वाले बाहरी तत्व होते हैं, जिनमें ज्यादातर विदेशी फण्ड से चलने वाले एन.जी. होते हैं। इसी वजह विरोध भड़काने वालों के दरादों पर उंगलियां उठने लगती हैं। उत्तराखण्ड में परियोजना विरोधियों बाहरी लोगों के अलावा ऐसे लोग भी हैं, जिनकों बांध और बैराज में फर्क नजर नहीं आता है। हालांकि उत्तराखण्ड में बांध बनने बन्द हो गये हैं मगर कुछ लोग बांध विरोधी राग बन्द नहीं कर रहे हैं। प्रो. गुरुदास अग्रवाल उर्फ स्वामी सानन्द और उनकी जल विरादरी ने पहले केवल उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के 135 किमी के क्षेत्र में परियोजनाऐं बन्द करने की मांग की और अब वे गंगा और उसकी श्रोत धाराओं पर कहीं भी बिजली परियोजना देखना नहीं चाहते। इस तरह उनके रुख बदलने से उनके इरादों पर उंगली उठना स्वाभाविक ही है। यही नहीं अब परियोजना विरोधियों ने साधू सन्तों को साथ लेकर परियोजनाओं के खिलाफ धर्म युद्ध शुरू कर दिया है। लोग भले ही गरीबी, भुखमरी, शोषण और मंहगाई जैसे मुद्दों पर चुप रहते हैं, मगर जब धर्म की बात आती है तो सड़कों पर उतर कर मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं। गंगा के मामले में भी धर्म को अफीम की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इस अफीम की क्षमता से वाकिफ भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने सबसे पहले जून 2007 में पाला मनेरी और भौरोंघाटी परियोजनाओं को बन्द कराया फिर उसके असर से भयभीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के जयराम रमेश ने लोहारी नागपाला को रुकवाया। बाद में तत्कालीन गंगा भक्त मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने निशंक ने तीनों परियोजनाओं को ही सदा के लिये बन्द करने की सिफारिश कर दी।
भारत में ऐसा कोई राज्य नहीं जहां बिजली परियोजनाओं का विरोध हो रहा हो। लेकिन केन्द्र सरकार से बिजली की मांग सबकी बढ़ती जा रही है। साधू सन्तों को भी बातानुकूलित आश्रमों और कारों के लिये बिजली तो जरूर चाहिये मगर बिजली घर उन्हें कतई बर्दास्त नहीं हैं। परियोजना विरोधी यह बताने को भी तैयार नहीं हैं कि अगर देश में कहीं भी बिजलीघर नहीं लगेंगे तो बिजली कहां से आयेगी। बिजली की किल्लत के कारण 44 प्रतिशत से अधिक भारतीय घरों में दैनिक ज़रूरतों के लिए भी बिजली नहीं है। सुनिश्चित विद्युत आपूर्ति की कमी आर्थिक विकास में भी बाधा डाल रही है, जहाँ विभिन्न क्षेत्रों में 4 प्रतिशत से लेकर 16 प्र.. तक ऊर्जा की कमी है। बिजली की कमी के कारण भारत सरकार की 2012 तक हर घर को बिजली उपलब्ध कराने की महत्वाकांक्षी योजना परवान नहीं चढ़ पाई है।

बिजली को उर्जा भी कहा जाता है। जैसे शरीर की ऊर्जा प्राण होती है और बिना प्राण ऊर्जा के शरीर सड़ जाता है, वैसे ही विकास के ढांचे की प्राण ऊर्जा बिजली है और बिना बिजली के उस ढांचे का खड़ा रहना सम्भव नहीं है। हम कह सकते हैं कि आज के हालात में बिजली की ये लाइनें आधुनिक मानव सभ्यता के विकास की धमनियां हैं। बिजली विकास की गाड़ी के इंजन का इंधन होती है। यही नहीं बिजली के बगैर सामान्य जिन्दगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिये लोग पानी की ही तरह बिजली को भी आवश्यक मान रहे हैं। हो भी क्यों नहीं कल कारखानों तथा मरीज की जान बचाने वाले आपरेशन थियेटर से लेकर घर का फर्श साफ करने के लिये बिजली चाहिये। अब आप बिना बिजली के लिख और पढ़ भी नहीं सकते हैं। इसीलिये बिजली की बढ़ती खपत को किसी भी समाज के विकास का पैमाना माना जा सकता है। दुनियां में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति बिजली खपत अमेरिका में है और उस देश का दुनियां का भाग्य विधाता होने का एक राज भी यही है। लेकिन भारत में विकास की गति तेज होने के साथ ही बिजली की खपत जितनी तेजी से बढ़ रही है उतनी तेजी से उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ पा रही है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2002-03 में मांग के हिसाब से सामान्य समय में बिजली 8.8 प्रतिशत कम पड़ रही थी। उस दौरान पीक आवर में मांग के विपरीत बिजली की कमी 12.2 प्रतिशत थी। सन् 2009-10 में बिजली की सामान्य कमी 11.1 प्रतिशत और पीक आवर कमी 13.3 प्रतिशत हो गयी। सन् 2009-10 में बिजली की मांग 830,594 थी जबकि विभिन्न श्रोतों से केवल 746,644 मिलियन यूनिट ही ही उपलब्ध हो पाई जो कि 83,950 मिलियन यूनिट कम थी। अगर इसी रफ्तार से मांग और आपूर्ति के बीच की खाई चौड़ी होती रही तो देश में अराजकता की नौबत जायेगी। उर्जा प्रदेश के रूप में प्रचारित उत्तराखण्ड में आज बिजली की सालाना मांग 11,232 मिलियन यूनिट है जबकि केन्द्रीय पूल सहित विभिन्न श्रोतों से उपलब्धता मात्र 9,965 मिलियन यूनिट ही है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2020 में उत्तराखण्ड की बिजली की मांग 21,079 मिलियन यूनिट तक पहुंच जायेगी। लकिन अगर इसी तरह परियोजनाऐंब न्द होती रहीं तो उपलब्धता 9,965 से भी नीचे जायेगी। अगर परियोजनाऐं बन्द नहीं होती तो सन् 2020 तक उत्तराखण्ड में बिजली की उपलब्धता 24951 मिलियन यूनिट तक पहुंच जाती जो कि दूसरे प्रदेशों के भी काम आती।

हर जगह विरोधों के चलते देश में बिजली की आपूर्ति कम पड़ रही है। 10वीं पंचवर्षीय योजना में 41,000 मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन लक्ष्य के मुकाबले मात्र 21,200 मेगावाट अतिरिक्त उत्पादन ही हो पाया। 11वीं योजना में 78,577 मेगावाट अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था जिसे संशोधित कर 62,375 मेगावाट कर दिया गया। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में सभी श्रोतों से देश की विद्युत उत्पादन क्षमता 2,01,637 मेगावाट है, जिसमें सर्वाधिक 1,33,363 मे0वा0 याने कि लगभग 66 प्रतिशत हिस्सा तापीय बिजली का है। कोयले की अनियमित और कम गुणवत्ता की आपूर्ति के चलते तापीय बिजली उत्पादन में खास वृद्धि नहीं हो पा रही है। कोयले के सीमित और घटते भण्डारों के चलते तापीय बिजली का भविष्य भी उज्ज्वल नहीं है। जबकि सबसे साफ सुथरी, सस्ती और सबसे सुरक्षित पन बिजली का हिस्सा मात्र 19 प्रतिशत ही है। देश के बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का अंश अब भी 2.37 प्रतिशत है। देश में सन् 1984-85 में बिजली की मांग 1,55,432 मिलियन यूनिट और उपलब्धता 1,45,013 मि.यू. थी। यह मांग 2011-12 में बढ़ कर 8,61,591 हो गयी जबकि उपलब्धता 7,88,355 तक ही पहुंच सकी। जहां सन् 2000-01 में भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 374 किलोवाट थी वहीं 2007-08 में बढ़ कर 704.4 किलोवाट हो गयी है। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति बिजली खपत लगभग 10,000 किलोवाट है। देश मे प्रति व्यक्ति औसत उर्जा खपत जीवन स्तर की सूचक होती है। इस दृष्टि से दुनियाँ के देशों मंे भारत का स्थान काफ़ी नीचे है।
थर्मल पावर प्लांट अत्यधिक प्रदूषण पैदा करते है। हमारे यहाँ प्राकृतिक संसाधन के रूप में उपलब्ध कोयला भी गुणवत्ता की दृष्टि से आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। इसमें ऊष्मा कम और ऐश कंटेंट ज्यादा बताया जाता है। नाभिकीय उर्जा ( न्यूक्लियर उर्जा ) के उत्पादन की अपनी सीमाएं हैं। ईंधन के तौर पर प्रयोग में आने वाले यूरेनियम के संसाधन भी हमारे यहाँ बहुत सीमित हैं। यह हमें आयात करना पड़ता है, जिसमें निर्यात करने वाले देश हमारी स्वतंत्र परमाणु नीति के कारण, तरह- तरह की शर्तें लगाते हैं। इन सब कमियों की वजह से हमारी विद्युत् उत्पाद क्षमता पर विपरीत असर पड रहा है। पन बिजली सबसे साफ सुथरी, सबसे सस्ती और सबसे सुरक्षित मानी जाती है और इस बिजली के लिये उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी राज्य सबसे उपयुक्त माने जाते हैं, क्योंकि इलैक्ट्रिकल बिजली पैदा करने के लिये पानी के वेग की जरूरत होती है। पानी का वेग से उत्पन्न भौतिक उर्जा बिजलीघरों की टरबाइनें घुमाती है। इसके लिये उत्तराखण्ड जैसा ढलान और कहां मिल सकता है जहां लगभग 4000 मीटर की उंचाई पर स्थित गोमुख और सतोपन्थ से गंगा चल कर 300 मीटर की उंचाई पर स्थित ऋषिकेश में मैदान पर उतरती है।
पिछले विद्युत उर्जा सर्वे में कहा गया था कि सन् 2003-04 में देश की पीक डिमाण्ड 89 जिगावाट थी जो कि सन् 2031-32 तक 733 जिगावाट हो जायेगी।इसी प्रकार सामान्य समय की मांग 2003-04 में 633 बिलियन किलोवाट प्रतिघण्टा थी जो कि 2031-32 तक 4,806 बिलियन प्रति घण्टा हो जायेगी। लेकिन बिजली परियोजनाओं का इसी तरह विरोध होता रहा तो लगभग आठ गुना उत्पादन बढ़ाना तो रहा दूर वर्तमान उत्पादन क्षमता को भी बरकरार रखना मुश्किल होगा। उस स्थिति की कल्पना मात्र ही भयावह है। तब कोई शंकराचार्य या फिर डा0 गुरुदास अग्रवाल जैसे गंगा भक्त देश को उस संकट से नहीं बचा पायेंगे।



- जयसिंह रावत
-11 फं्रेड्स एन्क्लेव, शहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-09412324999

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