“मम नाम अंकिता” संस्कृत शिक्षा का प्रभाव

रविवार, 4 नवंबर 2012

"मम नाम अंकिता" संस्कृत शिक्षा का प्रभाव



डॉ. मधुसूदन
(१) "मम नाम अंकिता"
कल्पना कीजिए एक छोटी ७ वर्षीय बालिका अपनी शाला में जाकर अपनी सहेलियों से पूरे गौर गरिमा के साथ, अपने सीने पर हाथ रखकर, संस्कृत में कह रही है, "मम नाम अंकिता" (मेरा नाम अंकिता है), और फिर अपनी सहेली को पूछती है, भवत्याः नाम किम्‌ ? (आप का नाम क्या है?) और बिना रूके, आगे स्वाभिमान से कहती है, "I know sankrut. Do you know sanskrut?" यह एक घटी हुयी घटना है, अमरिका के एक छोटे गाँव डार्टमथ की। जहाँ युनिवर्सीटी ऑफ़ मॅसेच्युसेट्ट्स की डार्टमथ स्थित शाखा है।
इस बालिका ने भी संस्कृत के पहले पाठ्य क्रम में अभी प्रवेश ही लिया था। उसकी शाला में, अन्य सभी सहपाठिनी बालिकाएं अमरिकी ही थीं, वे थोडे ही संस्कृत जानेंगी?
पर अंकिता के इस उदाहरण से हम सभी को हर्ष भरा कौतुक हुए बिना ना रह सका। हम बडे लोग, जो नहीं कर पाते, सोचते रह जाते हैं, बुद्धिमान जो ठहरे; वो, बालक बिना दुविधा, सहज कर दिखा देते हैं। औचित्य का प्रश्न. अन्य लोग क्या सोचेंगे, इत्यादि झंझट भरे प्रश्न बडों को होते हैं, पर बालक को नहीं। क्यों कि, जन्मतः बालकों को हीन ग्रन्थि नहीं होती। हम ही उन्हें हीन ग्रन्थि भी धरोहर के रूप में देते हैं।
बालिका ने संस्कृत भारती का प्राथमिक पाठ्यक्रम अभी प्रारंभ ही किया था। यह पाठ्यक्रम भी संध्या को देढ -दो घंटे, दस दिन तक, सभी शिक्षार्थियों की सुविधानुसार लगता था। अधिकतर भारतीय मूल के, प्रायः २५-३० प्रवासी भारतीयों ने यह पाठ्य क्रम "संस्कृत भारती संस्था" का सम्पर्क कर, आयोजित करवाया था। शुल्क भी विशेष नहीं, जो था उसमें पुस्तकें भी दी गयी।
(२) हम अपनी हीनता ग्रन्थि अपनी संतान को ना दें।
प्रत्येक पढे लिखे भारतीय को सावधान होकर देखना होगा, कि अपनी वाणी-विचार-व्यवहार में कोई हीन ग्रन्थि की अभिव्यक्ति ना हो। प्रायः हम अनजाने में ही ऐसी मानसिकता अपनी अगली पीढी को दे देते हैं। मैं ने अनुभव किया है, कि मेरा ही एक भतिजा अपनी बेटी के लिए कहीं परदेश से, श्वेत वर्णी श्वेत केशी गुडिया लाकर उसी के सामने उस गुडिया के रंग और सुन्दरता की सराहना कर रहा था। ऐसा कर के, अनजाने में ही, अपनी प्यारी बेटी को ही संभवतः हीन ग्रन्थि दे रहा था। एक दो बार ऐसा करते देख, मैं ने उसे टोका, और समझाया, तब उसे भी समझ में आया।
इससे विपरित जब कोई बालक अपनी संस्कृति के किसी घटक पर गौरव व्यक्त करता है, तो मुझे हर्ष ही होता है। इसी लिए भी ऊपर लिखित घटना मुझे आनंदित कर गई।
(३) संस्कृत भारती का शिक्षा वर्ग।
हमारे विश्वविद्यालय में श्री. वसुवजजी को आमंत्रित किया गया था, जो संस्कृत भारती के प्रचारक थे। इतने हंसमुख और मिलनसार कि, जैसे दूध में शक्कर मिल जाती है, वैसे यह संस्कृत भारती का प्रचारक जिस जिस परिवार में जाता, घुल मिल जाता। बालकों से लेकर वृद्धों तक सभी से हंसमुख वसुवज बातचित करता, वो भी संस्कृत में; पर सरल संस्कृत में। सामान्यतः किसी भी प्रादेशिक भाषा का ज्ञान होने पर वसुवज जी (संस्कृत भारती) की संस्कृत, आप समझ पाएंगे, कुछ अंश नहीं समझ पाए, तो उसे भी कुछ अनुमान से समझ जाएंगे। वे पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करके एक ही वाक्य को पुनः पुनः प्रस्तुत करते हैं।
पहले कहेंगे,
संस्कृत भाषा अति कठिन भाषा अस्ति, इति मान्यता विद्यते।
फिर कहेंगे,
संस्कृत भाषा अति कठिन भाषा अस्ति, इति भ्रांत मान्यता विद्यते।
तो आपको समझने में न्यूनतम कठिनाई होती है। संस्कृत भारती के सभी स्वयंसेवी शिक्षक बहुत कुशल , और उतने ही प्रशिक्षित भी होते हैं।
(४) भाषा के स्तर
भाषा सीखने के कुछ स्तर जान लेना उचित होगा। प्रत्येक स्तर सीखने की विधि अलग अलग होती है। निम्न उल्लेखित स्तर सरलता से कठिनता की दिशा में चढते जाते हैं।मुझे लगता है, कि जो भी स्तर की शिक्षा आप चाहते हैं, उसे उसी रूपमें सीखना चाहिए। बोलना बोलकर ही सीखा जाता है। लिखना लिखकर, अनुवाद करना. अनुवाद करने से, उच्चारण, उच्चारण का बार बार अभ्यास करने से, शब्द रचना, शब्द रचना का व्याकरण आत्मसात कर, और फिर शब्द रचना का अभ्यास कर के सीखा जाता है। अतीव समृद्ध होने से संस्कृत भाषा के अनेक अंगों के विशेषज्ञ होते है।
सरल संस्कृत वार्तालाप, पहला स्तर मानता हूँ, उसके साथ साथ या उपरान्त, सरल व्याकरण भी सीखना आवश्यक मानता हूँ। तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना ही पडता है, साइकिल चलाकर सीखी जाती है, केवल पुस्तक पढकर नहीं। वैसे बोल चाल की भाषा, जैसे बालक जन्म से सुन सुन कर मातृभाषा सीखता है, वैसे ही, सरलता से सीखी जाती है। निम्न सूची में से कुछ घटक, आप शिक्षक द्वारा सीख सकते हैं, पर कुछ बिना शिक्षक भी सीख सकते हैं।
(१) सरल सुभाषित (२) सरल व्याकरण सहित संस्कृत वार्तालाप, (३) गीता समान श्लोक को अर्थ सहित पढना (४) सरल संस्कृत साहित्य पढना (५) उपनिषद पढना (६) सरल शब्द रचना (७) गहन साहित्य, निरूक्त, वेदार्थ इत्यादि जीवन भर एक तपस्या की भाँति करना पडता है। देवनागरी की जानकारी ना हो तो उसे पहले ही, अलग सीखनी पडती है।
(५) संस्कृत का उच्चारण
संस्कृत का उच्चारण मात्र आपको बचपन के ८ से १० वर्ष की आयु के पहले ही सीखना आवश्यक है। इस अषाढ को चूकने पर जीवन भर आप उच्चारण बहुत कठिनता से सीख पाएंगे। सीखेंगे भी तो उच्चारण गलत होने की संभावना बहुत बढ जाती है। विना विलम्ब अपने बच्चों को अच्छे अच्छे बीस पच्चीस श्लोक-सुभाषित कंठस्थ करवाने का निश्चय कीजिए। जिससे वे जीवन भर शुद्ध उच्चारण कर पाएंगे। किसी घनपाठी विद्वान का लाभ आप को लेने का परामर्ष देता हूँ। वास्तव में संस्कृत उच्चारण सही सही आने पर अंग्रेज़ी कठिन नहीं होगी।
(६)चेतावनी:
पर केवल अंग्रेज़ी ही बचपन से पढाने पर, संस्कृत तो छोडिए सही ढंग की हिन्दी भी नहीं आएगी। फिर आप को विमान परिचारिकाओं जैसी हिंदी स्वीकार करनी होगी।
संस्कृत के अनेक लाभ है। संस्कृत सीखने से, उच्चारण प्रायः सभी भाषाओं का सहजता से आता है।एक नहीं अनेक भाषाएं सीखने में सहायता होती है।संस्कृत की पढाई के कारण ही, मेरी गुजराती, मराठी, हिंदी तीनो सुधरती गई, और संस्कृत सीखने का लाभ यह चौथा लाभ था। तो एक भाषा का अध्ययन मुझे तीनों-चारों भाषाओं में सहायक सिद्ध हुआ।
(७) संस्कृत भारती का वर्ग, आपको बोलना सीखा देता है।
पहले दिन की पढायी में, उन्हों ने सरल सरल वाक्यों से आरंभ किया था।
वसुवज पहले पहल बोले, मम नाम वसुवज। वसुवज जी अभिनय भी जानते हैं। अभिनय की मुद्रा में ही आप ने बालिकाओं और अन्य महिलाओं को जब संबोधन कर पूछा, तो पूछते थे, भवत्याः नाम किम? (प्रत्येक शब्द पर स्वराघात सहित बोलते थे) एक एक शब्द को अलग करते हुए,किसी प्रतिभावान शिक्षक की भाँति और किसी गुरुकुल से दीक्षित पण्डित की भाँति स्वर को आरोहित कर और विसर्ग ( का, और संयुक्ताक्षर का स्पष्ट भार-सहित उच्चारण कर सिखाते थे। संस्कृत भारती का, इतना उत्साही और समर्पित कार्यकर्ता था, कि उसीका उत्साह भी आप को कुछ मात्रा में स्पर्श किए बिना नहीं रह सकता था।
और किसी बालक या पुरूष को पूछते थे, तो पूछते थे,
भवतः नाम किम्‌?
पुरुष के लिए "भवतः नाम किम्‌?"
और महिला के लिए "भवत्याः नाम किम्‌ ?"
इस आलेख से भी समझाना अधिक कठिन, पर उनके अभिनय द्वारा बहुत सहज और सरल प्रतीत होता था।
एक छोरसे दूसरे छोर तक निकट बैठे हुए सभी ने बारी बारी से, एक दूसरे को, उचित संबोधन करते हुए, सारे वर्ग ने नाम किस विधि पूछा जाता है, इसका अभ्यास किया। सभी को जानकारी हो गयी, और बोलने का अभ्यास भी हो गया। छोटे छोटे बालक भी काफी थे, वर्गमें। विशेष मेरी माताजी भी संस्कृत वार्तालाप सीख गयी। इससे चार पाँच गुना संस्कृत पठन पहले ही दिन देढ घण्टे में करवाया गया था। विशेष बच्चे उनको गोपाल-कन्हैया की भाँति चाहने लगे थे, और इस संध्या के वर्ग में जाने के लिए उत्सुक रहते थे।

मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।
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