केदारनाथ के सिर पर मानसून का ताण्डव

शनिवार, 22 जून 2013


-जयसिंह रावत-

केदारनाथ में भारी हिमपात की खबरें तो आम हैं। लेकिन समुद्रतल से 3581 मीटर की उंचाई पर स्थित इस हिमालयी तीर्थ में बाढ आने की बात पहली बार सुनी जा रही है। ठीक इसी तरह हमने कभी अलकनन्दा की तो कभी भागीरथी की बाढ़ की विभीषिका तो देखी मगर एक साथ सारी की सारी हिमालयी नदियों का इतना भयंकर रूप नहीं देखा था। उत्तराखण्ड में इस बार आसमान ने जिस तरह कहर बरपाया है, वह ठीक उसी तरह अनपेक्षित था जिस तरह वर्ष 2004 में अप्रत्याशित रूप से हिन्द महासागर में सुनामी का आना था। अगर हिमालय पर इसी तरह ठीक गलेशियरों की खोपड़ियों पर बादल फटते रहे और मानसून प्रकृति द्वारा ही खींची गयी लक्ष्मण रेखाओं को पार करता रहा तो भविष्य की अकल्पनीय आपदाओं की कल्पना हमें अभी से कर लेनी चाहिये। लेकिन विडम्बना यह है कि जब हम कल्पनीय आपदाओं का सामना करने को सक्षम नहीं हैं तो फिर अकल्पनीय आपदाओं की तैयारियों की कल्पना भी कैसे की जा सकती है।
प्रकृति की अपनी व्यवस्था है, और उस व्यवस्था में केवल जीवधारियों बल्कि पेड़ पौधों और यहां तक कि विभिन्न हवाओं के लिये भी सीमाऐं तय हैं। उसी व्यवस्था के तहत समुद्रतल से लगभग 5 हजार मीटर पर पर प्रकृति ने स्थायी हिमरेखा खींची हुयी है। सन् 1976 तक यह हिमरेखा लगभग 4900 मीटर तक दर्ज की जाती थी। हिमरेखा से जुड़ी हुयी अल्पाइन या बुग्याल रेखा और उससे नीचे झाड़ियों का प्रदेश जाता है। इन झााड़ियों से नीेचे वृक्ष रेखा शुरू हो जाती है, जो कि समुद्र के किनारे तक फैली हुयी है। इस व्यवस्था के तहत सामान्यतः माना जाता है कि जब आप ऊपर हिमालय की ओर चढ़ते हैं तो प्रति 100 मीटर की ऊंचाई पर एक मि.मी वर्षा कम हो जाती है। इस तरह वर्षा की अधिकतम् पहुंच केवल अल्पाइन जोन तक ही होती है और उसके बाद नम हवायें वर्फ के रूप में पहाड़ों पर टपकने लगती हैं। लेकिन इस बार का अति आक्रामक मानसून सीधे वर्फ प्रदेश में घुस कर हिमालय पर ही ऐसे आक्रमण कर बैठा, जिसकी कल्पना मौसम विज्ञानियों ने भी नहीं की थी।
ठीक केदारनाथ के ऊपर स्थित बासुकी ताल, जिसमें महात्मा गांधी की अस्तियों का विसर्जन किया गया था, की ऊंचाई समुद्रतल से 3900 मीटर है। पौराणिक बासुकी नाग (सर्पराज) के नाम पर विख्यात इस बर्फीले कुण्ड के ऊपर बादल फटने से ही इस बार करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था के केन्द्र केदारनाथ में इस कदर अकल्पनीय बाढ़ आयी है। जाहिर है कि इस बार का मानसून इस पहाड़ी राज्य में प्रवेश के पहले ही दिन नदी घाटियों से होते हुये गोली की गति से सीधे हिमालय के उस हिमाच्छादित हिस्से पर चढ़ाई कर बैठा जिसकी पहले कल्पना नहीं की गयी थी। यह इलाका चोराबारी ग्लेशियर का है, जिस पर अचानक वर्षा होने से भारी हलचल हो गयी।
सवाल केवल बासुकी ताल का नहीं है। इस बार का मानसून पूरे उत्तराखण्ड में सीधे हिमप्रदेश में जा कर फट पट पड़ा जिसका परिणाम सामने है। सामान्यतः अब तक मानसून पहले शिवालिक पहाड़ियों और दून और तराई क्षेत्रों में उमड़ घुमड़ने के बाद आराम से नदी घाटियों के विपरीत हवा के वेग के साथ पहाड़ों पर चढ़ता था। इसके मार्ग यमुना, टोंस, भागीरथी, भिलंगना, अलकनन्दा, मन्दाकिनी, पिण्डर, नन्दाकिनी, धौली, काली आदि नदियों की घाटियां होती हैं। इन मुख्य घाटियों से स्थानीय जलागम के हिसाब से छोटी नदियों और नालों की घाटियों से हाते हुये पूरे उत्तराखण्ड पर छा जाने में मानसून को समय लग जाता था। लेकिन इस बार मौसम विज्ञानियों को भी झांसा देते हुये मानसून देश की राजधानी के आसपास विश्राम करने के बजाय देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर होते हुये नदी घाटियों के रास्ते तत्काल हिमालय पर चढ़ाई कर बैठा। मानसून के  इस वेग को मापने में मौसम विज्ञानी और आपदा प्रबन्धन से जुड़ा तन्त्र चूक कर बैठा।
न्यूटन का सामान्य सा नियम है कि जो वस्तु जितनी तेजी से या दबाव या ताकत से फेंकी जायेंगी वह उतनी दूर तक जायेगी। यही इस बार मानसून की नम हवाओं के साथ भी हुआ। इन नम और भारी हवाओं के पीछे इतना दबाव था कि इन्होंनेे हिमालय की ऊंचाइयों से टकरा कर थमने का नाम लिया और जहां रुकीं वहां इतना पानी उंडेल गयीं कि वर्फ का तंत्र भी गड़बड़ा गया। जो गल्ेशियर महीनों में पिघलने थे वे तत्काल टूट कर पिघल गये। हिमालय पर इस उत्पात से उत्तराखण्ड हिमालय की सारी छोटी बड़ी नदियां विकराल रूप धारण कर ताण्डव मचाने लग गयीं।
इस आपदा के आलोक में उत्तराखण्ड हिमालय के जलतंत्र को समझे जाने की जरूरत है। उत्तराखण्ड की तामाम नदियां लगभग 917 में से 665 (427 अललकनन्दा और 238 भागीरथी के) ग्लेशियों की नासिकाओं (स्नाउट) के रिसाव से निकले पानी से धीरे-धीरे अपना आकर लेती हैं। ये तमाम स्नाउट लगभग 4 हजार मीटर से ऊपर की ओर शुरू होते हैं। इस ऊंचाई से चला हुआ पानी जब ऋषिकेश में मैदान पर उतरता है तो वहां की ऊंचाई समुद्रतल से मात्र 300 मीटर होती है। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि उत्तराखण्ड की नदियां कितना अधिक ढलान को पार कर मैदान में आती हैं। जाहिर है कि जितना अधिक ढलान होगा नदी का वेग (प्रचण्डता) या गति भी उतनी ही अधिक होगी। नदी का वेग जितना अधिक होगा उसकी भौतिक उर्जा (शक्ति) भी उतनी ही अधिक होगी। एक अध्ययन के अनुसार भागीरथी का ढाल 42 मीटर प्रति किमी है। इसी तरह अलकनन्दा का ढाल 48 मीटर, भिलंगना का 52 मीटर, धौलीगंगा का 75 मीटर, नन्दाकिनी का 67 मीटर और मन्दाकिनी का 66 मीटर प्रति कि.मी. है। जिसका ढाल जितना अधिक होगा उसका वेग उतना ही अधिक होगा। चमोली में बिरही गंगा लगभग 14 हजार फुट से अपनी यात्रा शुरू करती है और जब वह 14 किमी की यात्रा तय कर बिरही में अलकनन्दा में मिलती है तो वहां की ऊंचाई मात्र 3456 फुट ही होती है। आप सोच सकते हैं कि इतने तीब्र ढाल में बिरही गंगा का वेग कितना तीब्र होगा। इतनी तीब्र गति से चलने वाली नदियां जब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर टकराती हैं तो उससे मिट्टी पत्थर निकाल कर साथ ही साथ भूस्खलन भी करा लेती है और उसके साथ ही बड़े-बडे पेड़ और विशाल शिलाखण्ड भी नदी नालों के साथ चलने लगते हैं। इस तरह से एक तबाही नदी नालों के साथ चलने लगती है। पहले यह स्थिति अलग-अलग नदियों में अलग-अलग बार आती थी।
यह जरूर है कि उत्तराखण्ड में इस तरह का जल प्रलय नयी बात नहीं है। नयी बात यह है कि मानसून की बदमिजाजी के कारण सभी नदियों में एक साथ पहली बार अपना भयंकर रूप दिखाया है। पिछले साल उत्तरकाशी में असी गंगा इस तरह भड़क गयी थी तो इस बार सारी की सारी नदियां भड़क उठीं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं के इतिहास के पन्ने पलटें तो नैनीताल में 1880 में भूस्खलन से 152 लोग मरे थे। सन् 1977 में इस तरह के हादसे में तवाघाट में 25 सैनिकों सहित  44 लोग मारे गये थे। सन् 1868 में बिरही नदी के अवरुद्ध होने के बाद इस झील के टूटने से 73 लोग मारे गये थे उसके बाद इसी तरह गौणाताल का निर्माण हुआ और जब वह टूटा तो फिर अलकनन्दा में बाढ़ गयी। उसके बाद 1996 में बेरीनाग में 18 लोग मारे गये। सन् 1998 के अगस्त में ही मालपा में 60 मानसरोवर यात्रियों सहित 250 और उखीमठ क्षेत्र में 101 लोग मारे गये थे। हड़की में सन् 2000 में 19, घनसाली और बूढ़ाकेदार में सन् 2002 में 29, बरहम में 2007 में 18 तथा हेमकुण्ड में 2008 में 11 लोग मारे गये थे। इससे पहले 1979 में कोन्था गांव में 50 लोग मारे गये थे। बिरही झील बनने के बाद बादल फटने से त्वरित बाढ़ और भूस्खलन की लगभग 30 घटनाओं में सेकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। 3 और 4 अगस्त की रात्रि उत्तरकाशी की असीगंगा क्षेत्र में बादल फटने से आई बाढ़ से कम से कम 30 लोग मारे गये हैं।
इसके बावजूद लगता है कि तो सरकार ने कोई सबक सीखा और ना ही लोगों ने नदियों और मौसम के मिजाज पर ध्यान दिया है। अगर लोग सतर्क होते तो नदी किनारे भी हड़पे जाते और सरकार भी इस हड़पने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती। नदियों ने आपा तो जरूर खोया और भारी धनजन की दुर्भाग्यपूर्ण आपदा भी हुयी, मगर नदियों ने केवल इन्सान से अपना इलाका ही छुड़ाया। अब तो हालात ऐसे  हो गये कि नदी नालों को माफिया द्वारा हड़पने और नहरों को सरकार द्वारा ढके जाने के बाद देहरादून की सड़कें ही नदी नालों का रूप् ले लेती हैं।
इस बार की आपदा ने एक बार फिर राज्य सरकार के आपदा तंत्र के आपदाग्रस्त होने की पुष्टि कर दी है। केदारनाथ धाम 16 जून को ही तबाह हो गया था, मगर सरकार को इसकी जानकारी 18 जून को लगी। वहां बचाव कार्य भी 19 जून को शुरू हो सके। कल्पना की जा सकती है कि हजारों तीर्थ यात्रियों का क्या हाल हुआ होगा। उत्तराखण्ड में जब भी भूकम्प या अतिवृष्टि से भूस्खलन की त्रासदियां होती हैं तो सबसे पहले बिजली गुल हो जाती है और उसके पीछे-पीछे दूर संचार तंत्र गायब हो जाता है और इनके जाते ही आपदा प्रबन्धन तंत्र लाचार हो जाता है। ऐसी स्थिति में कैसे आपदा प्रबन्धन हो सकेगा। जब भी इस तरह की आपदाऐं आती हैं तो कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी कल्पनाओं की विचित्र उड़ानें भरने लगते हैं। इस बार भी कल्पनाओं की ये उड़ानें बिजली प्रोजेक्टों तक पहुंच गयी हैं। अगर असी गंगा के उद्गम पर बादल फटता है तो उसमें टिहरी बांध का क्या दोष है। इसी तरह अगर 4 हजार मीटर की उुचाई स्थित बासुकी ताल पर बादल फटता है तो बहुत नीचे मन्दाकिनी घाटी के पावर प्रोजेक्टों का उस आकाशीय घटना से क्या लेना देना है। अगर हम इसी तरह सही कारण जानने के बजाय कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाते रहे तो फिर शुभ की कामना कैसे की जा सकती है।

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