दलिदर -दलिदर बहरो रे --लक्ष्मी -लक्ष्मी ढुक

सोमवार, 4 नवंबर 2013

दीवाली कि सुबह। आज के दिन को घर से दरिद्रता को भगाने और माँ लक्ष्मी को प्रवेश कराने के रूप में मनाया जाता है। याद है बचपन के वो दिन जब सारे बच्चे घर के टूटे -फूटे बॉस से बनी टोकरी या सूप को लकड़ी से पीटपीट कर हर कोने से दरिद्रा को निकालते थे। तब हर घर से एक सुर में आवाज आती थी --दलिदर -दलिदर बहरो रे --लक्ष्मी -लक्ष्मी ढुक (खोरठा में---हिंदी में इसका मतलब है सारी दरिद्रा निकल और माँ लक्ष्मी घर में प्रवेश करे )और उसे नदी किनारे जाकर जमा करते थे। हाड़ कपाने वाली सर्दी कि ठिठुरन में भी नदी कि बर्फीली पानी में सभी साथ डुबकी लगाते और फिर जमा कि हुई टोकरी-सुप को जलाकर आग सेकते थे। बचपन बीत गयी अब जिम्मेवारिओ के बोझ तले घर से सैकड़ो मिल दूर रोजगार का दीप जला रहे हैं। याद नही कितने वर्षो से अपने घर -अपने गांव में दीवाली नही मनायी है। वो दिन वो परम्पराएँ वक्त के साथ धूमिल पड़ रही होगी शायद। परम्परा के नाम पर बस रस्म अदाएगी हो जाती होगी। लेकिन आज भी वो सारी परम्पराए प्रासंगिक है। कहने को घर से दरिद्रता को खदेड़ा जाता है लेकिन इसके पीछे के निहितार्थ बहुत है। हमें न अपने अंदर कि बुराई को निकाल कर उसे जला देना है। ठंडे पानी में तन-मन के सारे कलुष को धो डालना है। 

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