बुधवार, 9 अप्रैल 2014

राम मंदिर तो याद रहा मगर बदरी-केदार नहीं
जयसिंह रावत, देहरादून ( प्रभात )
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के अपने पुराने संकल्प को तो शामिल कर लिया मगर वह और उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी कुछ ही महीनों के अन्दर उत्तराखण्ड के आपदाग्रस्त बदरीनाथ-केदारनाथ और खास कर केदारनाथ मंदिर को ही भूल गये। जबकि नरेन्द्र मोदी ने उत्तराखण्ड कर स्वयं ही जल प्रलय में तबाह केदारपुरी के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव किया था। यही नहीं भाजपा ने इस चुनाव में आपदा को कांग्रेस के खिलाफ मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की घोषणा की थी, लेकिन सुनामी से लेकर लातूर और भुज जैसी दैवी विनाशलीलाओं का सामना कर चुके इस देश में लोगों की जानोमाल की सुरक्षा का सवाल राजनीतिक दलों के ऐजेंडे में नहीं पा रहा है।
सोमवार को जारी भाजपा के चुनावी घोषणापत्र से उत्तराखण्ड के निवासियों को तो मायूसी हाथ लगनी ही थी, क्योंकि भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिये केवल 5 सांसद देने वाले इस राज्य की अहमियत कोई खास नहीं है। लेकिन आम उत्तराखण्डी से ज्यादा मायूसी प्रदेश भाजपा के उन चुनावी रणनीतिकारों के हाथ लग गयी जो कि गत वर्ष आयी अभूतपूर्व और अकल्पनीय आपदा को कांग्रेस के खिलाफ ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहे थे। पिछले साल 16-17 जून से लेकर अब तक नरेन्द्र मोदी से लेकर भाजपा के मोहल्ले स्तर तक के नेता कांग्रेस सरकार के आपदा कुप्रबन्धन और असन्तोषजनक पुनर्वास को लेकर हमलावार बने हुये थे। यही नहीं भाजपा के नेता इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग भी केनछ्र सरकार से कर रहे थे। स्वयं मोदी गत वर्ष 15 दिसम्बर को देहरादून में आयोजित शंखनाद रैली में आपदा का रोना खूब रोये थे। यही नहीं उन्होंने कहा था कि उन्होंने राज्य की कांग्रेस सरकार के समक्ष केदार घाटी और खास कर केदारनाथ पुरी के पुनर्निमाण का प्रस्ताव किया था, जिसे राज्य सरकार ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन घोषणापत्र में दैवी आपदा का मुद्दा शामिल करने से तो उत्तराखण्ड सरकार ने उन्हें नहीं रोका था।
उत्तराखण्ड में आज सवाल खड़ा हो गया है कि जो पार्टी सालों से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का राग अलापे जा रही है। जबकि वहां पर मंदिर का अस्तित्व केवल लोगों की भावनाओं में ही है या था। लेकिन हिन्दुत्व की झण्डबरदार इस पार्टी को खतरे में पड़े बदरीनाथ, केदारनाथ गंगोत्री और यमुनोत्री याद नहीं आये। ये चारों धाम दैवी आपदा की जद में हैं और केदारनाथ तो ऐसी त्रासदी का गवाह बन गया जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। सवाल केवल उत्तरखण्ड के लोगों का नहीं है। यहां हर साल लाखों लोग देशभर से पुण्य लाभ के लिये आते हैं। पिछले साल ही सेना और अर्ध सैन्य बलों ने देश विदेश के संकट में फंसे सवा लाख यात्रियों की जानें बचाईं थी। जिस तरह से मौसम चक्र बदल रहा है उससे केदारनाथ जैसी त्रासदियों की पुनरावृत्ति की संभावनाऐं भी बढ़ गयी हैं। वैसे भी भूकम्प की दृष्टि से भी यह राज्य अति संवेदनशील जोन पाचं और जोन चार में शामिल किया गया है। 
सवाल केवल उत्तराखण्ड की आपदाओं का नहीं है। दैवी आपदा इस देश के लिये सबसे बड़ी चुनात्ी बन गयी है। पिछलीे साल उत्तराखण्ड में जो हुआ उसका खौफ अब तक गया नहीं है। उसके जख्म भी इतनी जल्दी नहीं भरने वाले है। लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिये बेताब नरेन्द्र मोदी के राज्य गुजरात में 26 जनवरी 2001 को आया भूचाल 20 हजार से अधिक लोगों की जानें ले चुका था और 4 लाख से अधिक मकानों को क्षतिग्रस्त करने के साथ ही 1.67 लाखा लोगों को घायल कर गया था। उससे पहले लातूर का भूकम्प 10 हजार से अधिक लोगों को जिन्दा दफन कर गया था। सन् 2008 की कोसी की बाढ़ 23 लाख से अधिक लोगों को बेघर कर गयी थी। सन् 2004 की हिन्द महासागर में आयी सुनामी भारत समेत 14 देशों के 2.90 लाख लोगों को लील गयी थी। आपदा का इतना संवेदनशील मुद्दा भाजपा के ऐजेंडे का शामिल होना भी हैरानी का विषय है। उत्तराखण्ड आपदाग्रस्त क्षेत्रों में पुनर्निर्माण के लिये केन्द्र सरकार ने लगभग 7 हजार करोड़ रुपये से अधिक राशि देने का वायदा कर रखा है। अगर केन्द्र में भाजपा की सरकार आयी तो फिर इस रकम का क्या होगा, यह सवाल अब मुंहबायें खड़ा हो गया है।

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