UTTARAKHAND CM HARISH RAWAT RELEASES BOOKS ON UTTARAKHAND TRIBES AND HIMALAYAN REFERENCE BOOK BY SENIOR JOURNALIST JAY SINGH RAWAT.

गुरुवार, 6 मार्च 2014

उत्तराखण्डः जनजातियों का इतिहास
उत्तराखण्ड की पाचों जन जातियों पर वरिष्ठ पत्रकार जयसिह रावत की शोधपूर्ण पुस्तक बाजार में आ गयी है।  हमेशा जन सरोकारों से जूझते रहे  जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में पांचों जनजातियों की वर्तमान स्थिति और भविष्य की सम्भावनाओं पर भी रोशनी डालने का प्रयास किया है, ताकि नीति निर्धारकों  और शासकों की आंखें खुल सकें।
जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में मानव विज्ञान के चस्में से उत्तराखण्ड की जनजातीय संसार  को परखने के बजाय एक पत्रकार के ही तौर पर जनजातियों के अतीत को सामने रख कर वर्तमान तथा भविष्य के बारे में चिन्तन करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक के में जनजातियों का शोषण, गैर आदिवासियों द्वारा उनकी जमीनें हड़पना, भारत -तिब्बत सीमा क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा, तराई में जनजातियों के पांव तले से उनकी जमीनों का खिसकना, वनाधिकार अधिनियम २००६ की अनदेखी, संविधान की अनुसूची पांच की भावना के अनुरूप जनजातियों के लिये सलाहकार परिषद और पंचायती राज के लिये पेसा कानून तथा जनजातीय सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण और संवर्धन जैसे विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया गया है। पुस्तक में रवांई और जौनपुर के साथ ही भारत-तिब्बत से लगे सम्पूर्ण सीमान्त क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किये जाने की मांग की वकालत की गयी है।  इसमें आदिवासियों के शोषण के परिणामस्वरूप इसमें नक्सलवाद पनपने की सम्भावनाओं के प्रति आगाह किया गया है।
चिपको आन्दोलन के प्रणेता और मेगासेसे तथा पद्मभूषण जैसे सम्मानों से अलंकृत चण्डी प्रसाद भट्ट ने इस पुस्तक की प्रस्तावना (आमुख) लिखी है। पुस्तक से नयी पीढ़ी को जहां उत्तराखण्ड की समृद्ध सास्कृतिक धरोहर की झलक मिलेगी वहीं राज्य की आदिवासी जीवन के अतीत की भी जानकारी मिल सकेगी। ए
इस पुस्तक में जयसिंह रावत ने माना है कि भारत के जनजातीय समुदायों ने भारतीय परंपरा और सभ्यता को बचाते हुये मानव जीवन की एक सामानांतर सभ्यता को विकसित किया है। इन प्रकृति पुत्र और पुत्रियां का जीवन और धर्म ही प्रकृति है। यही आदिम मानव समूह भारत के मूल निवासी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी कैलाश बनाम महाराष्ट्र मामले (दिनांक 5 जनवरी 2011) में उन्हें भारत का मूल निवासी माना है। रावत का कहना है कि आदिवासी वह है जो अपने जीवन की अटूट आस्था को आदि काल से प्रकृति में स्थापित करता रहा है।  अनुसूचित जाति या आदिम जाति के लोगों की अलग सांस्कृतिक पहचान के कारण बाकी लोग उन्हें पिछड़े या असभ्य मानते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति की जननी है। आदिकाल से लेकर  आज तक प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, ईमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों में मौजूद है। इस धरती पर जितने आदिम या जनजाति समूह हैं उतनी ही संस्कृतियां भी हैं। आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है।
 दरअसल यह पुस्तक जयसिंह रावत के लिये महज एक पुस्तक नहीं बल्कि यह उनकी पत्नी उषा, पुत्र मेजर अजय, अंकित और उनकी साझा तपस्या है। पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी, 8,प्रथम तल, के-सी-सिटी सेण्टर, 4 डिस्पेंसरी रोड पर उपलब्ध है और इसके प्रकाशक कीर्ति नवानी के अथक प्रयासों और उनके ही सौजन्य से उनके वितरकों के पास उपलब्ध होने जा रही है। प्रकाशक ने कुल 326 पृष्ठों की इस पुस्तक की कीमत 495 रुपये रखी है।
जयसिंह रावत की दो अन्य पुस्तकें विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी में ही मुद्रणाधीन हैं, जो कि शीघ्र ही बुक स्टालों पर पहुंच जायेंगी।








1 टिप्पणियाँ:

किलर झपाटा ने कहा…

हाय कांग्रेस के चापलूस

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