A DREAM MAY COME TRUE IN FUTURE

शनिवार, 5 जुलाई 2014

गैरसैंण सपनों की राजधानी
-जयसिंह रावत
गढ़वाल और कुमाऊं के ठीक मध्य में पहाड़ों की गोद में बसे गैरसैण में इन दिनों टेंटों के अन्दर उग रही राजधानी की रौनकों को देख कर लगता है कि अब गैरसैण गैर नहीं रह गया है। कभी अकेला उत्तराखण्ड क्रांतिदल जब गैरसैण का राग अलापता था तो वह बेसुरा राग एक फसाना लगता था] लकिन अब वहां जो परिस्थितियां बन रही हैं उन्हें देख कर वह फसाना हकीकत सा लगने लगा है। अब बात इतनी आगे बढ़ गयी कि किसी के लिये भी कदम पीछे खींचना आसान नहीं रह गया है।
गैरसैण में विधानसभा भवन बनाने की घोणा के साथ ही वहां कैबिनेट की बैठक तक करने वाले विजय बहुगुणा ने गैरसैण को प्रदे  की ग्रीश्मकालीन राजधानी बनाने की घोणा करने की चूक की थी उससे वह इतिहास पुरुश बनते-बनते रह गये। लेकिन लगता है कि विजय बहुगुणा की उस चूक से जो ऐतिहासिक श्रेय छूट गया था उसे हरी  रावत ने लपक लिया। विपक्षी भाजपा भी जिस तरह अपने ही बाल नोच कर ईश्र्या भरी प्रतिक्रिया कर रही है उसे देख कर भी लगता है कि हरी  रावत यद बाजी मारने जा रहे हैं। राजनीतिक तौर पर भी समझदारी इसी में है कि भाजपा अब इस बारे में एक कदम और आगे बढ़ कर बात करे। बकौल हरीष रावत अब हर साल विधानसभा का ग्रीश्मकालीन सत्र गैरसैण में ही होगा और कोई भी सरकार इससे पीछे नहीं हट पायेगी। इसके लिये सभवतः गैरसैण में ही विधिवत घोशणा भी हो जायेगी। जब कांग्रेस की सरकार यह सब कर रही है और विपक्षी भाजपा भी इसे ग्रीश्मकालीन राजधानी बनाने की बात कर रही है तो फिर इस गैर रहे गैरसैंण को सत्ता का दूसरा केन्द्र बनने से अब कौन रोक सकता है? वास्तव में अब लोग गैरसैण या भराड़ीसैण से उत्तराखण्ड के भाग्य की लकीरें खिंचवाना चाहते हैं।
टेंटों में हर बार राजधानी या विधानसभा नहीं चलती है। गैरसैण में विधानभवन निर्माण की टेंडर प्रक्रिया चल रही है। कोई भी राजधानी अकेले विधानभवन से नहीं चल सकती। इसलिये वहां पूरा मिनी राजधानी का ढांचा खड़ा हो रहा है और इसके लिये मुख्यमंत्री ने बाकायदा एक विकास प्राधिकरण ही गठित कर दिया है जो कि अल्मोड़ा और चमोली जिलों के इस बीच के हिस्से में नगर विकास का कार्य करेगा। सरकार इसके लिये 50 करोड़ की घोणा भी कर चुकी है।
गैरसैण में अगर ग्रीश्मकालीन राजधानी के रूप में विकसित होता है तो इस पहाड़ी राज्य में निष्चितरूप से एकाानदार पहाड़ी हर का उदय हो जायेगा। विधानसभा सत्र चाहे एक दिन ही क्यों चले मगर उसके लिये पूरा तामझाम गैरसैण में लाना ही होगा और उसके बाद वह नवजात हर स्वतः ही देहरादून के बाद सत्ता का दूसरा केन्द्र बन जायेगा। मुख्यमंत्री वैसे भी घोणा कर चुके हैं कि गैरसैंण में कई विभागों के कार्यालय भी खुलेंगे। सत्ता के इस वैकल्पिक केन्द्र में स्वतः ही नामी स्कूल और बड़े अस्पताल आदि जनसंख्या को आकर्शित करने वाले संस्थान जुटने लग जायेंगे। पहाड़ों से fक्षा और चिकित्सा के लिये सबसे अधिक पलायन हो रहा है। बीस सालों में कम से कम 100 गांव निर्जन हो गये हैं और हजारों गांवों की आबादी आधी रह गयी है। अगर पहाड़ी नगर fमला और मसूरी में दे  के नामी स्कूल खुल सकते हैं तो फिर गैरसैंण में क्यों नहीं। सत्ता ऐसी मोहिनी है कि निवेषक खुद ही गैरसैंण की ओर खिंच आयेंगे। निवेषक पहुंचेगे तो रोजगार भी बढ़ेगा और पहाड़ियों को रोजगार की तलाष में मैदानीाहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। चूंकि जनसंख्या के भारी दबाव के कारण नैनीताल और मसूरी की कैरीइंग कैपैसिटी (धारक क्षमता) समाप्त हो चुकी है, जिस कारण इन पर्यटन नगरों का आकर्शण भी नाममात्र का ही रह गया है। अब अगर पूरे 187 साल बाद पहाड़ों में एक और हिल स्टे  बनता है तो निसंदेह वह मसूरी और नैनीताल की जैसी बूढ़ी पर्वत रानियों की तरह नहीं बल्कि एक आधुनिका की तरह ही होगी, जिसकी टाउन प्लानिंग अगले सौ वर्शों का ध्यान में रख कर की जायेगी जो कि बड़े पैमाने पर पर्यटकों को आकर्शित करेगी। लेकिन इसके साथ ही जरूरी है कि वहां के स्थानीय लोगों की जमीनों की रक्षा की जाय। ऐसा हो कि कल गैरसैण के भूमिहीन हो चुके लोग अपनी ही धरती पर सड़कों पर ठेली लगाने और दफ्तरों के चैकीदार चपरासी बनने को मजबूर हो जांय। चहां के चाय बागानों पर नजर रखे जाने की जरूरत है।
देष की सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रखते हुये रेल मंत्रालय सीमान्त जिला चमोली में ही कर्णप्रयाग तक रेल लाइन बिछाने की तैयारियों में जुटा हुआ है। सामरिक दृश्टि से भी रेल लाइन को बद्रीनाथ तक जाना ही है। कर्णप्रयाग और गैरसैंण के बीच बहुत कम फासला है। जाहिर है कि तीर्थयात्रियों और अन्य आगन्तुको का बहुत बड़ा रेला गैरसैण के निकट कर्णप्रयाग तक पहुंचेगा तो वह कस्बा भी बड़ा  हर बन जायेगा। यही नहीं ऋशिेकेष से लेकर कर्णप्रयाग और बाद में सीधे बद्रीनाथ तक छोटे बड़े रेलवे स्टे नों की एक श्रृंखला बन जायेगी। वैसे भी उत्तराखण्ड के चारों धामों के यात्रा मार्ग पर आज जो नगर दिखाई दे रहे हैं वे मोटर मार्ग बनने से पहले की चट्टियां ही हैं। मौजूदा सरकार ने उत्तरायण की ओर प्रस्थान तो किया मगर अभी उसकी सोच को उत्तरोन्मुखी होना बाकी है। हालांकि गैरसैंण में विधानभवन की घोणा और अब वहां विधानसभा सत्र को आहूत करना उत्तरोन्मुखी सोच का ही संकेत है। राश्ट्रहित में सामरिक दृश्टि से संवेदनh  इस क्षेत्र से हो रहे जनसंख्या पलायन को रोकने के लिये भी केन्द्र और राज्य सरकारों का पहाड़ोन्मुखी होना जरूरी है। पहाड़ों से और खास कर सीमान्त और दुर्गम क्षेत्रों से जिस तेजी से आबादी का पलायन हो रहा है, उससे दे  की सुरक्षा व्यवस्था ही खतरे में पड़ सकती है। भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीलंग और नीती माणा से लेकर ब्यांस तथा जोहार घाटियों तक सभी गांव बहुत तेजी से खाली होते जा रहे हैं] जबकि देहरादून] हरिद्वार] हल्द्वानी और नैनीताल जैसे नगरों पर जनसंख्या का बोझ असह्य होता जा रहा है।
नाबार्ड के स्टेट फोकस पेपर 2010-2011 के अनुसार सरकारों की लापरवाही के कारण विकास की दौड़ में मैदानी जिलों की अपेक्षा पहाड़ी जिले बहुत पीछे हैं। पहाड़ी जिलों में पक्की सड़कों की औसत लम्बाई मात्र 318-78 किमी प्रति हजार वर्ग किमी है तो मैदान में यही अनुपात दोगुने से भी ज्यादा 799 किमी है। पहाड़ी जिलों में जहाँ लगभग 78 प्रतिशत लोगों को पीने के पानी के लिये घरों से बाहर निकलना पड़ता है। वहाँ मैदान में यह सिर्फ 30 प्रतिशत है। पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ 50 प्रतिशत घरों में बिजली है वहीं मैदानी जिलों में 70 प्रतिशत घरों में बिजली है। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में विकास की यह खाई लगातार बढ़ रही है। पहाड़वासिों की अपनी संस्कृति पलायन के कारण देहरादून] हल्द्वानी और हरिद्वार जैसे हरों की गलियों में भटक कर विकृत हो गयी है। पहाड़ के लोगों को अपनी संस्कृति देहरादून में नहीं बल्कि गैरसैंण में सुरक्षित नजर आती है। देहरादून में धन्ना सेठों और चकड़ैतों के हाथों केवल सत्ता बल्कि संस्कृति भी बन्धक हो गयी है।
अब तक की भाजपा और कांग्रेस की सरकारें देहरादून में ही राजभवन] मुख्यमंत्री आवास] सचिवालय और विधानसभा सहित तमाम जरूरी भवन और सुविधायें जमा चुकी हैं। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कबके fमला से पालमपुर जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। लेकिन बावजूद यह भी सच्चाई है कि गैरसैंण को ग्रीश्मकालीन राजधानी बनाने में कोई हर्ज नहीं है और मुख्यमंत्री हरीष रावत बिना बोले ही इस बारे में घुमा फिरा कर मौन घोशणा कर चुके हैं।
उत्तराखण्ड आन्दोलन के पीछे जो प्रमुख तीन कारण थे उनमें पहला भौगोलिक दूसरा आर्थिक और तीसरा सांस्कृतिक पहचान का था। इनमें से भौगोलिक कारण का अगर समाधान कर दिया गया होता तो मंत्रियों और नौकरषाहों को जहाज में उड़ कर गैरसैंण नहीं जाना पड़ता। लोगों के लिये आज भी अस्पताल] स्कूल, पीने का पानी और अन्य जरूरी सुविधाऐं इतनी दूर होती। प्रदे  के कई गावों के लिये पानी 5 किमी से दूर है। इसी तरह 244 गावों के लिये प्राइमरी स्कूल, 2384 गांवों के लिये मिडिल या सीनियर बेसिक स्कूल] 9869 गांवों के लिये बालिका हाइस्कूल, 8671 के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र या ऐलोपैथिक अस्पताल] 1994 के लिये मोटर मार्ग या मुख्य सड़क और 3213 गांवों के लिये डाकघर की दूरी 5 किमी से अधिक है।
कुछ लोग गैरसैंण को सत्ता का दूसरा केन्द्र बनाने के मामले को तुगलकी योजना मान रहे हैं। कुछ इसे सत्ताधारियों का राजनीतिक फितूर मान रहे हैं। गैरसैण का नाम आते ही प्रदे  को पहाड़ और मैदान में बांटने का प्रयास भी किया जा रहा है। इनका मनना है कि गैरसैण एक दिन तुगलकाबाद साबित हो जायेगा। दरअसल इस तरह की भावनाओं के पीछे सत्ता के पहाड़वासियों के करीब जाने की श्र्या और घर की राजधानी के दूर जाने की aका का भय है। इस तरह की सोच रखने वाले भूल रहे हैं कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी राज्य है और इसकी विषेश भौगोलिक परिस्थिति तथा विषेश संास्कृतिक पहचान को ध्यान में रखते हुये ही इसे उत्तर प्रदे  से अलग कर नया राज्य बनाया गया था। गैरसैण विरोधी इस सच्चाई को नजरंदाज कर रहे हैं कि लखनऊ से चली सत्ता देहरादून में अटक गयी है। अगर हरी  रावत उस अटकी हुयी सत्ता को उसके गंतव्य पहाड़ पर चढ़ाना चाहते हैं तो इसमें बुराई क्या है\
नोट - मूल लेख के फाँट को कन्वर्ट करने में वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ  रह  गयी हैं 
-- जयसिंह रावत--
- 11 फ्रेंड्स एन्क्लेव] शाहनगर 
डिफेंस कालोनी रोड] देहरादून।
मोबाइल- 9412324999
jaysinghrawat@gmail.com


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