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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

जनता के नाम पर जनता से ठगी
-जयसिंह रावत-
हरीश रावत द्वारा  उत्तराखंड की सत्ता संभाले जाने के बाद सत्ताच्युत विजय बहुगुणा गुट को असंतुष्ट माना जा रहा था। लेकिन अब तो मुख्यमंत्री के अपने ही गुट के लोग या तो कोपभवन में चले गये हैं, या फिर आखें तरेरने लगे हैं। सत्ताधारी दल की ही क्यों? इस प्रदेश में ऐसा कौन से तबका है जो कि आज संतुष्ट नजर रहा हो? जैसे लूट के बाद आपस में बांट होती हो उसी तरह राज्य गठन के बाद इस राज्य में अपने हिस्से के लिये सबने बंदूकें तानीं हुयी हैं। जिनको नहीं मिला या जिन से छिन गया उनका असंतुष्ट होना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन जिन्हें काफी कुछ मिल चुका है उनका पेट भी नहीं भर रहा है और अपनी उस हवस को कोई अपने निर्वाचन क्षेत्र की उपेक्षा तो कोई तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का नाम दे रहा है।
किसी ने सही कहा है कि या तो इस राज्य के गठन में जल्दबाजी हो गयी, या फिर इसका जन्म किसी अशुभ मुहूर्त में हो गया। अगर ऐसा नहीं तो प्रदेश के 25 हजार करोड़ के बजट में से लगभग 20 हजार करोड़ पचाने वाले कर्मचारी, अफसर, विधायक और मंत्री इतना मिल जाने के बाद भी क्यों असंतुष्ट रहते। अगर ऐसा होता तो इस लूट में पूरा हिस्सा   मिलने पर वे लोग भी बेचैन क्यों रहते जिन्होंने उत्तराखण्ड नाम के पहाड़ी भूभाग और उसके बाशिन्दों की बेहतरी के सपने देख कर प्रचंड आन्दोलन चलाया था। लूट के इस महौल में हर कोई सोच रहा है कि आखिर वह ही क्यों पीछे रहे। राजनीतिक शासकों की बिरादरियों ने जनता को बरगलाने के लिये इसे कभी ऊर्जा प्रदेश तो कभी जड़ी बूटी प्रदेश तो कभी पर्यटन प्रदेश जैसे जाने कितने प्रदेशों के नाम दे दिये। लेकिन वास्तविकता अगर देखें तो यह लूट प्रदेश और हड़ताल प्रदेश बन कर रह गया है। आम जनता की तकलीफों की चिन्ता किये बगैर दफ्तरों पर ताले जडे़ जा रहे हैं। जिन्हें जनता की सेवा के लिये वेतन मिलता है वे सड़कों पर हैं। उन्हें पता है कि जब उनके राजनीतिक मालिक खुद ही जनता को बेवकूफ बना रहे हैं तो फिर उन्हें उनके कर्तव्यों की याद कौन दिला सकता है? शुरू से लेकर आज तक जब सत्ता की बंदरबांट के लिये साल के 365 दिन कलह मची हो और कुर्सी बचाने के लिये के लिये जब राज्य और राज्यवासियों के हित चौराहों पर नीलाम हो रहे हों तो फिर ऐसे राजनीतिक शासकों या मालिकों की कमजोरी का फायदा उसके मुलाजिम क्यों नहीं उठायेंगे?
धारचुला के पूर्व विधायक हरीश धामी कभी अपनी ही कांग्रेस सरकार के खिलाफ काली पट्टी बांध कर विधानसभा की कार्रवाई में भाग लेते थे। उस समय काली पट्टी वाले विधायक के साथ जो विधायक मयूख महर खड़े रहते थे, वही अब अपने ही राजनीतिक संरक्षक हरीश रावत के खिलाफ खड़े हो गये हैं। मुख्यमंत्री के लिये त्याग करने पर हरीश धामी का पिथौरागढ़ जिले में रुतवा बढ़ने पर हरीश रावत गुट के ही मयूख महर का कद इतना सिमट गया कि उन्हें राजनीतिक मृत्यु सन्निकट नजर आने लगी। अब उन्हें शासन प्रशासन में अपनी उपेक्षा पूरे पिथौरागढ़ जिले की जनता की उपेक्षा नजर रही है। मतलब यह कि पिथौरागढ़ ही मयूख महर और मयूख महर ही पिथौरागढ़ हो गये हैं। उन्हें पिथौरागढ़ की उपेक्षा  धमी का कद बढ़ने के बाद ही नजर आने लगी।
केदार घाटी में पिछले साल जो कुछ हुआ उसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। उस घाटी के लोगों को अपदा वह जख्म दे गयी जिसका भरना आसान नहीं है। फिर भी दैवी आपदा में किसी भी सरकार की ओर से इतने खुले दिल से और इतनी संवेदनशीलता से राहत नहीं दी गयी। आज यह भी सवाल उठ रहा है कि आपदा और आपदा में तथा आपदा से हुयी मौतों में इतना भेदभाव क्यों हैं। इतना होने के बावजूद केदारनाथ की विधायक शैला रानी रावत अपनी ही सरकार के खिलाफ दशहरों से पहले ही महिसासूर मर्दनी बनी हुयी हैं। उन्हें तब अपने निर्वाचन क्षेत्र की आपदा पीड़ित जनता की उपेक्षा नजर नहीं रही थी जब हजारों लोग मौत के मुंह में चले गये थे और उनके ही दल की सरकार देहरादून में चैन की बंसी बजा रही थी। बाढ़ से बच कर पहाड़ों पर चढ़े सेकड़ों लोग भूख और प्यास से दम तोड़ रहे थे और उनकी सरकार के मंत्री तथा आला अफसर हैलीकाप्टरों मेंआपदा पर्यटनका मजा लूट रहे थे। उन्होंने अगर ऐसा मोर्चा तत्कालीन शासकों और हादसे की जानकारी मिलने पर भी चुप बैठे शीर्ष नौकरशाह तथा आपदा की जानकारी मिलते ही रुद्रप्रयाग से भाग कर अस्पताल में भर्ती हो जाने वाले जिले के तत्कालीन हाकिम के खिलाफ खोला होता तो अब उनके विरोध में जरूर दम नजर आता। रुद्रप्रयाग ऐन आपदा के वक्त लावारिश की तरह पूरे तीन दिनों तक बिना जिला अधिकारी के रहा।
अपने क्षेत्र की जनता की सुध लेना या क्षेत्र के हितों की हिमायत करना ही एक जनप्रतिनिधि का पहला दायित्व होता है। अगर सुबोध उनियाल, डा0 शैलेन्द्र सिंघल, मयूख महर या शैला रानी रावत जैसे विधायक अपने क्षेत्र की उपेक्षा की बात उठा रहे हैं तो यही उनका असली कर्तव्य भी है। लेकिन क्षेत्र की उपेक्षा के नाम पर छिपे हुये ऐजेंडे पर काम हो रहा हो या जि हितों को क्षेत्र के हितों से जोड़ा जा रहा हो तो उसे जनता को बरगलाना ही कहा जा सकता है। उत्तराखंड में इन दिनों सत्ताधारी दल में जो कुछ हो रहा है, वह नयी बात नहीं है। प्रदेश की जनता राजनीति का यह भद्दा प्रहसन पिछले 14 सालों से देख रही है।
अब्राहम लिंकन द्वारा लगभग डेढ सौ साल पहले गढ़ी गयी लोकतंत्र की परिभाषाजनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन ”, हमारे लोकतांत्रिक शासकों को तब याद आती है जब उन्हें या तो वोट चाहिये होते है, या फिर निजी स्वार्थ पूर्ति के लिये सरकार या सरकार के मुखिया को डराना या परेशान करना होता है। अन्यथा उनके लिये लिंकन के इस विश्व प्रसिद्ध मुहावरे का कोई मतलब नहीं रह जाता है। बेरोजगारी के इस जमाने में बड़ी मुश्किल से नौकरियां मिल पाती हैं, जिनको नौकरियां मिली हुयी हैं वे स्वयं को जन सेवक की जगह जनता के मालिक समझ बैठते हैं। हर साल वेतनभत्ते आदि में हजारों करोड़ हजम करने के बाद भी उनके पेट नहीं भर रहे हैं। राजनीतिक बिरादरी के लोग जनता से वोट मांगते समय घर-घर जा कर गिड़गिड़ाते हैं। लेकिन चुनाव जीतते ही वे भी अचानक हाकिम हो जाते हैं। जिन मतदाताओं के सामने वे गिड़गिड़ाते हैं, बाद में उनकी नमस्ते लेने में भी अपनी तौहीन समझ लेते हैं। लेकिन मनमाफिक कुर्सी मिलने पर उन्हें फिर जनता में जनार्दन नजर आने लगते हैं।
उत्तराखण्ड में सत्ताधारी विजय बहुगुणा गुट के लोगों को राज्य में बहुगुणा शासन के दौरान साक्षात रामराज नजर आता था। लेकिन अब उन्हें अपनी ही कांग्रेसी सरकार में चारों ओर बदइंतजामी और भ्रष्टाचार नजर रहा है। यहां तक कि विधायक निधि में भी भ्रष्टाचार अब ही नजर रहा है। ठीक इसी तरह बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में हरीश रावत गुट को चारों ओर त्राहिमाम-त्राहिमाम ही नजर आता था। उस समय उनके मरजीवड़े कभी तिवारी तो कभी बहुगुणा और कभी सतपाल महाराज के खिलाफ हर वक्त लामबंद रहते थे। काग्रेस शासन ही क्यों जब राज्य में नित्यानंद स्वामी की सरकार बनी तो भाजपा के ही लागों ने स्वामी जैसे नेता को भी नाकाबिल और बाहरी बता कर उनको बाहर का रास्ता दिखा कर ही दम लिया। सन् 2007 में जब भुवनचन्द्र खंडूड़ी की सरकार बनी तो उसी दल के दूसरे गुट ने उनसे कुर्सी पलट कर ही दम लिया। हैरानी की बात तो तब सामने आई जबकि कोश्यारी को रोकने के लिये खण्डूड़ी ने रमेश पोखरियाल निशंक की ताजपोशी कराई तो उन्हीं भुवन चन्द्र खंडूड़ी को कुछ ही महीनों के अन्दर निशंक शासन सबसे भ्रष्ट और नकारा नजर आने लगा और अन्ततः खंडूड़ी ने कोश्यारी से मिल कर निशंक को धूल चटा दी। चौदह सालों में 8 मुख्यमंत्री लाने के बाद भी सत्तालोलुप राजनीतिक बिरादरियों का यह म्यूजिकल चेयर का गेम समाप्त होता नजर नहीं रहा है। जिन मुख्यमंत्रियों को अपनी कुर्सी के भविष्य का पता हो उनसे आप राज्य के भविष्य के बारे में सोचने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?
9 नवम्बर 2000 से लेकर अब तक उत्तराखण्ड में कुर्सी के लिये जो नंगा नाच हो रहा है, उसे देख कर तो यही लगता है कि इस राज्य के गठन में या तो जल्दबाजी हो गयी या फिर इसका जन्म ही गलत नक्षत्र पर हुआ है। जिन लोगों ने इस नये प्रदेश के विकास की बुनियाद मजबूत करनी थी और इसे विकास की पटरी पर दौड़ाना था वही लोग इस प्रदेश की लुटिया डुबोने पर तुले हुये हैं। इन हालात में प्रदेश के विधायक और राजनीतिक बिरादरियों के लोग इस राज्य पर असह्य बोझ साबित हो रहे हैं। जिन लोगों के लिये कभी अलग उत्तराखंड राज्य की मांग एक जुनून होती थी, उनमें से भी कई लोग यह कहने लगे हैं कि काश उन्होंने अलग राज्य के बजाय उत्तर प्रदेश से अलग केन्द्र शासित प्रदेश की मांग की होती तो कम से कम राजनीति की इस गंदगी से तो मुक्ति मिलती। यह सोच भी वास्तव में निराधार नहीं है। नया राज्य बनने का फायदा या तो राजनीतिक बिरादरियों के लोगों ने या फिर नौकरशाही की बिरादरियों ने ही उठाया है। केन्द्र सरकार पूरे दस साल बाद वेतन बढ़ाने के लिये वेतन आयोग गठित करता है। लेकिन उत्तराखंड के विधायकों के वेतन भत्ते और अन्य सहूलियतें हर दूसरे साल इसलिये बढ़ रहे हैं, क्यों कि जो मांगने वाले हैं, वही देने वाले भी हैं। कभी 426 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में मंत्री बनने का सौभाग्य विरलों को ही मिलता था। लेकिन अब उत्तराखण्ड में जिस पार्टी की सरकार बन रही है या जो सरकार को समर्थन दे रहे हैं, उन सबको कम से कम कैबिनेट मंत्री की कुर्सी की दरकार हो रही है। चूंकि मंत्रिमंडल में 12 से अधिक सदस्य नहीं हो सकते इसलिये पिछले दरवाजे से सत्ताधारी दल या गठबंधन के हर एक विधायक को मंत्रियों के जैसे ठाठबाट और हनक की व्यवस्था की जा रही है। इनके लिये राज्य की विधानसभा भारी लाभ वाले पदों को मुफ्त जन सेवा घोषित कर रही है। इसके बाद भी नेताओं की हवस पूरी नहीं हो रही है। राज्य के 25 हजार करोड़ के बजट में नौकरशाही और राजनीतिक शासकों की बिरादरियां लगभग 20 हजार करोड़ चट कर रही हैं और प्रदेश की एक करोड़ जनता के हिसे में 4 या 5 हजार करोड़ ही पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि ये लोग उत्तराखंड के लिये हो कर उत्तरखंड इनके लिये बना हुआ है।

जयसिंह रावत-
पत्रकार
मोबाइल 09412324999

jaysinghrawat@gmail.com

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