जनपक्षीय और मिशनरी पत्रकारिता का एक और स्तंभ ढहा

बुधवार, 19 अगस्त 2015



जनपक्षीय और मिशनरी पत्रकारिता का एक और स्तंभ ढहा
-जयसिंह रावत
पहले राम प्रसाद बहुगुणा गये फिर आचार्य गोपेश्वर कोठियाल चले गये। उसके बाद तो जैसे सिलसिला ही शुरू हो गया। राधाकृष्ण वैष्णव के स्वर्ग सिधारने के बाद उमा शंकर थपलियाल  की गाड़ी भी छूट गयी और उनके पीछे-पीछे राधाकृष्ण कुकरेती भी चल बसे। मेरे देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के अंदर स्वतंत्रता आन्दोलन की संग्रामी पत्रकारिता का दौर समाप्त होते ही राष्ट्र के नव निर्माण के लिये जनपक्षीय और मिशनरी पत्रकारिता का झंडा उठाने वाले उठाने वाले झंडाबरदार एक के बाद एक रुख्शत होते जा रहे हैं।

आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि क्या कोई स्वयं ही एडिटर] स्वयं ही कंपोजिटर] स्वयं ही रिपोर्टर और स्वयं ही अखबार का डिस्पैचर हो सकता हैA वास्तव में कभी यही सच था और राधाकृष्ण कुकरेती उन्हीं संपादकों में से एक थे। उस दौर के संपादकों की केवल ये ही जिम्मेदारियां नहीं थीं। उन्हें अखबार चलाने के लिये विज्ञापन भी जुटाने होते थे और अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिये उन्हें भटक-भटक कर ग्राहक या पाठक भी जुटाने होते थे। इसी खून पसीना एक करने से छपा अखबार भी ऐसा होता था कि जिसकी प्रतीक्षा पहाड़ के गावों में अपने परिजनों की चिट्ठियों की तरह होती थी। पाठक भी ऐसे कि उस साप्ताहिक का एक&एक शब्द चाट लेते थे। वे विज्ञापन] टेंडर नोटिस और अखबार की प्रिंट लाइन को तक पढ़ लेते थे।
 
देश की आजादी के तत्काल बाद नये भारत के नव निर्माण में अपना योगदान देने और समाज को सही दिशा देने के लिये जिन लोगों ने कलम का सहारा लिया उनमें से एक राधाकृष्ण कुकरेती भी थे। आजादी के आन्दोलन में बदरीदत्त पांडे] विक्टर मोहन जोशी] अमीर चंद बंबवाल और भक्त दर्शन जैसे कलम के सिपाहियों ने तो अंग्रेजों की तोप के मुकाबले के लिये अखबार निकाले ही थे। लेकिन जब आजादी की मंजिल  पा ली गयी तो पत्रकारिता के उदेश्य  भी स्वतः बदल गये। नये लक्ष्य को लेकर उस नये दौर की नयी पत्रकारिता के ध्वज वाहकों में कुकरेती भी शामिल थे। उन्होंने नये जमाने की नयी पत्रकारिता के साथ कदमताल करने के लिये 1956 मेंनया जमाना नाम से अखबार शुरू किया जो कि दशकों तक पिछड़ों] शोषितों] दलितों और सर्वहारा की आवाज बुलंद करता रहा। उससे पहले वह छात्र जीवन में ही काशीपुर से *जन जागृति नाम का अखबार  ¼1954-55½ शुरू कर चुके थे।

राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थे] जो कि पत्रकार होने के अलावा एक साहित्यकार और वामपंथी विचारक भी थे। उन्होंने एक आंचलिक कथाकार के रूप में भी अपनी एक खास पहचान बनायी थी। उनके कहानी संग्रहों में *घाटी की आवाज*इंसाफ के मालिक़*क्वांरी तोंगी और *सरग दिदा पाणि शामिल थे जिनमें आम पहाड़ी जनजीवन का प्रतिबिंब नजर आता था। एक वामपंथी विचारक के तौर पर उनके साहित्य में भी गरीबों] पिछड़े क्षेत्रों और शोषितों की आवाज साफ सुनाई देती थी। वह विचारों से क्रांतिकारी अवश्य थे मगर उनके स्वभाव में मुझे कभी उग्रता नजर नहीं आयी। उनके लेखन में वामपंथी उग्रता नहीं बल्कि सौम्यता झलकती थी। इसका कारण उनके अंदर बैठा साहित्यकार भी हो सकता है। उनकी शालीनता का ही नतीजा था कि वह एक पत्रकार के रूप में सदैव आदर के पात्र रहे। हम लोगों को उनकी विद्वता से मानसिक खुराक तो मिलती ही थी साथ ही पढ़नेलिखने की प्रेरणा भी मिलती थी। उनका स्वभाव ही ऐसा था कि देहरादून की कचहरी के निकट स्थित उनकी नया जमाना प्रेस में बुद्धिजीवियों का जमघट लगा रहता था। कलक्ट्रेट में तो आदमी को कभी कभी किसी किसी काम से जाना ही होता था। और अगर आप देहरादून की कचहरी गये तो नया जमाना प्रेस की राह कभी नहीं भूल सकते थे। किसी जमाने में वह राजा राजा महेन्द्र प्रताप  के काफी करीबियों में से एक थे। उन पर कुकरेती जी ने एक पुस्तिका भी प्राकशित की थी। राजा महेन्द्र प्रताप  सिंह ने 1914 में देहरादून से निर्बल सेवक नाम का साप्ताहिक  पत्र निकाला था जो कि अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के चलते बंद हो गया था। इसके बाद वह देश छोड़ कर अफगानिस्तान और सोबियत संघ आदि देशों की यात्रा पर चले गये और उन्हीं देशों से भारत की आजादी की अलख जगाते रहे।

राधाकृष्ण कुकरेती ने सन् 1952 संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में पार्टी के विभाजन के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ¼मार्क्सवादी½ के उदय के बावजूद वह मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही रहे। इस दौरान भारत&सोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोबियत संघ की यात्रा भी की। बाद में कुछ मतभेदों के कारण वह श्रीपाद अमृत डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्य के बाद वह फिर मूल पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में लौट गये] जिसमें वह जीवन के अंतिम क्षणों तक रहे। सन् 80 के दशक में वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून नगर सीट से चुनाव भी लड़े थे। एक कम्युनिस्ट नेता के तौर पर वह सदैव जनवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे। उत्तराखंड आन्दोलन में भी उनका योगदान उल्लेखनीय था। एक जमाने में जहां कुछ कम्युनिस्ट उत्तराखंड राज्य की मांग को गोरखालैंड के आन्दोलन से जोड़ कर उसे भी अलगाववादी आन्दोलन मानते थे] वहीं कुकरेती जैसे कामरेड भी थे जो कि इस पहाड़ी भूभाग के चहुंमुखी विकास के लिये उत्तराखंड राज्य को ही एक विकल्प मानते थे।
राधाकृष्ण कुकरेती का उत्तराखंड की पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान रहा है। वह मेरे जैसे नौसिखियों के लिये हमेशा प्रेरणा श्रोत रहे। वह उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। किसी जमाने में कभी परिपूर्णानंद पैन्यूली तो कभी आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष हुआ करते थे। यूनियन के प्रति कुकरेती जी की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता था और यूनियन में सबसे कम उम्र का सदस्य होने के कारण उनके सहायक के रूप में मुझे भी हर बार सह सचिव चुन लिया जाता था। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य जी की छत्रछाया में युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहीं कुकरेती जी विश्वम्भर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। संस्थान के पंजीकरण के लिये जिन 11 सदस्यों के हस्ताक्षर हुये थे उनमें परिपूर्णानंद पैन्यूली] राधाकृष्ण कुकरेती और उत्तराखंड के प्रख्यात इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के अलावा देवेन्द्र भसीन तथा जयसिंह रावत भी थे। यहां भी जब कमेटी बनी तो परिपूर्णानंद पैन्यूली अध्यक्ष और राधाकृष्ण कुकरेती महामंत्री चुने गये और अपनी आदत के अनुसार कुकरेती जी ने मुझे संस्था का मंत्री बनवा दिया। एक बार हमने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्माल न्यूजपेपर एसोसियेशन का गठन किया तो उसमें भी कुकरेती जी ने मुझे ही अपना सहायक रखा। उस संगठन ने देहरादून से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक कई सम्मलेन  किये।
अपने अस्तित्व के लिये मेरे दशकों लंबे संघर्ष में कुकरेती जी की हौसलाफजाई मुझ पर सदैव बनी रही। आर्थिक कारणों से जब मेरे लिये अपना छापाखाना चलाना नामुमकिन हो गया तो अखबार छपाने के लिये मैं एक प्रेस से दूसरे प्रेस में भटकता रहा। समय से भुगतान करने पर प्रेस के मालिक कई बार इज्जत उतारने पर उतारू हो जाते थे। अन्ततः मुझे कुकरेती जी केनया जमाना प्रेस की शरण लेनी पड़ी। मैंने शायद ही कभी उन्हें छपाई के पैसे यथा समय दिये हों] फिर भी उन्होंने मुझे   छपाई के पैसों के लिए नहीं टोका  क्योंकि उन्होंने मुझे कभी पराया नहीं समझा।वह जानते थे कि उनकी तरह अखबार निकालना और पत्रकारिता करना मेरा जुनून है जिसे मैं अपने बच्चों का हक मार कर पूरा कर रहा  था  जीवन के अंतिम दिनों वह मुझसे कोई जरूरी बात करना चाहते थे। उनका संदेश मिलने पर जब मैं उनके पास गया तो वह भूल गये कि मुझे क्यों बुलाया था। इस विस्मृति का कारण उनकी पारकिंसन की बीमारी थी। बहरहाल मेरा जो कर्तव्य था मैंने भी उसे निभाने का प्रयास किया।
कुकरेती जी का जन्म सन् 1935 में पौड़ी गढ़वाल की उदयपुर पट्टी के नौगांव में हुआ था। उन्होंने कक्षा दो तक अपने गांव के पास के स्कूल में पढ़ा और दर्जा चार तक की पढ़ाई अपने  ननिहाल अमोला में की। ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवीं तक शिक्षा हासिल करने के बाद हाइस्कूल के लिये तत्कालीन इस्लामिया हाइस्कूल देहरादून में दाखिला लिया। इस्लामिया स्कूल आज का गांधी इंटर कालेज है। इसके बाद इंटर मीडिएट परीक्षा उन्होंने काशीपुर से पास की और उसके बाद वह देहरादून गये। देहरादून कर उन्होंने 1956 में नया जमाना अखबार शुरू किया और साथ ही कालेज में पढ़ाई भी जारी रखी। इस तरह उन्होंने समाजशास्त्र में परास्नातक डिग्री हासिल की।
आजादी के दौर की संग्रामी पत्रकारिता की विरासत संभालने वाले पत्रकार अब एक-एक कर हमें  छोड़ रहे हैं। उनके प्रभाव के कम होने के साथ ही उनके चल बसने से उस दौर की पत्रकारिता के आदर्श भी अतीत के गर्त में समाते जा रहे हैं। पत्रकारिता में बाजारूपन हावी होता जा रहा है। आज के हालात को देख कर आश्चर्य होता है कि क्या कभी विक्टर मोहन जोशी] बदरी दत्त पांडे] रामसिंह धौनी] राजा महेन्द्र प्रताप सिंह] अमीर चन्द्र बम्बवाल] भक्त दर्शन] बैरिस्टर मुकुंदी लाल और बैरिस्टर बुलाकी राम] मनोहर पंत] गिरजा दत्त नैथाणी] पपिूर्णानंद पैन्यूली] श्यामचंद सिंह नेगी और कृपा राम मिश्र जैसे महान त्यागी और मिशनरी पत्रकार इसी भूमि में जन्में होंगे\

-- जयसिंह रावत--
- 11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी, देहरादून।
मोबाइल- 9412324999

jaysinghrawat@gmail.com

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