ग्रीष्मकालीन राजधानी उत्तराखण्ड के लोगों के साथ छलावा

शनिवार, 7 मार्च 2020








-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं के बीच मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत सरकार ने आखिरकार भराड़ीसैण में ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा तो कर दी। मगर यह घोषणा सचमुच हकीकत में बदलेगी, इसमें संदेह की पर्याप्त गुंजाइश है। इस घोषणा पर संदेह की गुंजाइश इसलिये है क्योंकि राज्य सरकार मण्डल मुख्यालय पौड़ी में तो मण्डल स्तर के अधिकारियों को पहुंचा नहीं पा रही है फिर सारे सचिवालय और राज्य की शीर्ष नौकरशाही को भराड़ीसैण की चोटी पर कैसे पहुंचा देगी? अगर सरकार बिना सचिावलय और सरकारी कामकाज के हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला की तरह साल में हफ्तेभर का विधानसभा सत्र ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम से वहां कराना चाहती है तो यह पहाड़ के लोगों के साथ छलावा और राज्य के बेहद सीमित संसाधनों का भी दुरुपयोग होगा।
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने 29 जून 2019 को गढ़वाल कमिश्नरी के स्वर्णजयन्ती समारोह के अवसर पर कमिश्नरी मुख्यालय पौड़ी में कमिश्नरी स्तर के सभी अधिकारियों की तैनाती सुनिश्चित कर इस ऐतिहासिक नगर का पलायनग्रस्त रुतवा लौटाने का वायदा किया था लेकिन आज तक कमिश्नर और डीआइजी को कमिश्नरी मुख्यालय पर पहुंचाना तो रहा दूर वहां कोई अदना सा अफसर भी स्थाई रूप से ड्यूटी देने नहीं पहुंचा। अब सवाल उठ रहा है कि अगर गैरसैण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी जाती है तो वहां से ग्रीष्मकाल में सरकारी कामकाज चलाने के लिये समूचा सचिवालय जम्मू-कश्मीर की तरह देहरादून से गैरसैण पहुंचाना होगा ताकि प्रदेश का शासन कुछ महीनों तक देहरादून की जगह वहीं से चल सके और पिथौरागढ़ या जोशीमठ के लोगों का शासन सम्बन्धी काम देहरादून के बजाय भराड़ीसैण में ही हो सके। अगर ऐसा नहीं होता तो यह इस पहाड़ी राज्य के लोगों के साथ महज एक धोखा ही होगा। सरकार इससे पहले रिस्पना को ऋषिपर्णा बनाने, कोटद्वार से रामनगर के बीच कार्बेट पार्क में कण्डी मार्ग बनाने, पहाड़ पर चकबंदी कराने, श्रीनगर मेडिकल कालेज को सेना को सौंपने, 100 दिन में लोकायुक्त का गठन करने और सवा लाख करोड़ निवेश के उद्योग लगवाने जैसी कई घोषणाएं कर चुकी है जो कि पूरी नहीं हुयीं।
वर्तमान में पूर्ण राज्यों में महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में भी है। इसी प्रकार हिमाचल की दूसरी राजधानी धर्मशाला है। यद्यपि पूर्ण विकसित धर्मशाला और नागपुर की तुलना अविकसित भराड़ीसैण से नहीं की जा सकती। फिर भी इन पूर्ण राज्यों की दूसरी राजधानियां मात्र कहने भर के लिये हैं। धर्मशाला में भी कुछ दिनों के लिये विधानसभा का शीतकालीन सत्र इसलिये चलता है क्योंकि उन दिनों शिमला अक्सर हिमाच्छादित या बहुत ही ठण्डा रहता है। जहां तक सवाल उप राजधानी नागपुर का है तो वह एक ऐतिहासिक शहर है जो कि भारत का तेरहवां सबसे बड़ा शहर है और वह मध्य प्रान्त तथा बेरार की राजधानी रह चुका है। फिर भी पूरी सुविधायें होते हुये भी महाराष्ट्र की सत्ता मुम्बई से ही चलती है। केवल बर्फबारी की मजबूरी के चलते जम्मू-कश्मीर में शीतकाल के दौरान पूरा शासन जम्मू से चलता है। गत विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह ने धर्मशाला में सचमुचच दूसरी राजधानी स्थापित करने का वायदा किया था मगर वह चुनाव ही हार गये।
भराड़ीसैण में अब तक जितना निर्माण हुआ है उसी पर एनजीटी को ऐतराज है। वर्तमान में भराड़ीसैण में चल रहे विधानसभा के बजट सत्र के लिये कर्मचारियों और अधिकारियों के लिये बिस्तर और कुर्सियां खाने का सामान तक देहरादून से गये। कुछ दिन पहले वहां एक प्लास्टिक की कुर्सी तक नहीं थी। देहरादून से वहां सामान ढोने में और कुछ दिन के लिये राजनीतिक बारात ले जाने में सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं और नतीजा ढाक के तीन पात में है। वहां जाने के लिये सड़कें इतनी तंग हैं कि दो कारें भी हर जगह क्रास नहीं हो पाती। ग्रीष्मकाल में बरसात भी शामिल है, जब पहाड़ की सड़कें टूट जाती हैं। बेहतर होता अगर सरकार भराड़ीसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा के साथ ही पूरी योजना और समयबद्ध कार्यक्रम की भी घोषणा करती।
पहाड़ की जनता अधिकारियों और नेताओं की तफरीह के लिये नहीं बल्कि अपनी समस्याओं के निदान और विकास के लिये प्रदेश की राजधानी को पहाड़ में चाहती है। विपक्ष चाहे जितना भी चिल्लाये मगर भराड़ीसैण में रहना कोई नहीं चाहता। सारे नेता पहाड़ छोड़ कर मैदानी नगरों में चुके हैं और अधिकांश ने मैदान में ही अपने निर्वाचन क्षेत्र तलाश लिये हैं। पहाड़ से पलायन रोकने के लिये बनाया गया पलायन आयोग स्वयं ही पौड़ी से देहरादून पलायन कर चुका है। पहले पलायन कर चुके लोग साल में पूजापाठ करने अपने पैतृक गांव जाया करते , लेकिन अब देवी देवता भी पहाड़ में बिना भक्तों के बेचैनी महसूस कर रहे हैं और वे शीतकाल में मैदानी क्षेत्रों में डोलियों समेत पहुंच रहे हैं।
अटल बिहारी बाजपेयी ने सन् 2000 में वायदा निभाते हुये राज्य गठन की संवैधानिक जिम्मेदारी निभा दी थी और फिर उत्तराखण्ड के राजनीतिक नेतृत्व को राजधानी के चयन की जिम्मेदारी निभानी थी। लेकिन राज्य के नेता पहाड़-मैदान और गढ़वाल-कुमाऊं के संकीर्ण वादों में बंट गये। उस समय केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकारें होने के साथ ही उत्तराखण्ड क्षेत्र से भाजपा के 30 विधानसभा और विधान परिषद सदस्यों में से 23 सदस्य और लोकसभा के 5 में से 4 सदस्य थे। राजय गठन से पूर्व तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पाण्डे ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव योगेन्द्र नारायण को पत्र लिख कर उनसे पूछा था कि नये राज्य की राजधानी कहां और कैसे बनायी जा रही है। उस समय के मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता ने 9 सितम्बर 2000 को जब पहाड़ के जनप्रतिनिधियों की इस बारे में बैठक बुलाई तो सभी अपने-अपने निकट राजधानी बनाने पर जोर देने लगे। नतीजतन यह जिम्मेदारी प्रशासन पर छोड़ दी गयी और प्रशासनिक अधिकारी देहरादून जैसा शहर छोड़ कर गैरसैण क्यों चले जात? राज्य गठन के बाद भी संकीण क्षेत्रवाद में फंसे राजनीतिक नेतृत्व ने स्वंय सर्वमान्य फैसला लेने के बजाय यह जिम्मेदारी दीक्षित आयोग को सौंप दी।
राजनीतिक नेता गैरसैण के बारे में कितने ईमान्दार हैं, वह दीक्षित आयोग की रिपोर्ट से ही पता चल जाता है। आयोग ने अखबारों में विज्ञापन देकर स्थाई राजधानी के लिये जब सुझाव मांगे तो 70 विधायकों, 5 लोकसभा और 3 राज्यसभा सदस्यों के अलावा कई दर्जन नगर निकायों में से केवल एक तत्कालीन सांसद एवं एक मंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष सहित 5 विधायकों ने स्थायी राजधानी स्थल के लियेे आयोग को अपने सुझाव दिये थे। गैरसैंण को राजधानी बनाने की राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियोें मेें तत्कालीन विधायक बद्रीनाथ डा0 अनुसूया प्रसाद मैखुरी, विधायक थलीसैैंण गणेश प्रसाद गोदियाल, प्रमुख क्षेत्र पंचायत चौैखुटिया (अल्मोेड़ा) नन्दन सिंह सिरेजा थे। कोश्यारी और कुंजवाल ने रामनगर के साथ ही गैरसैण का भी सुझाव दिया था।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com


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