पूर्व प्रधान न्यायाधीश का सांसद  बनना संयोग या प्रयोग ?

शनिवार, 28 मार्च 2020


भारत के प्रधान न्यायाधीश का सांसद बनना
-जयसिंह रावत
किसी भी पूर्व प्रधान न्यायाधीश का सदस्य के रूप में राज्यसभा पहुंचना कोई नयी बात होते हुये भी रंजन गोगोई के मनोनयन ने एक विवाद अवश्य खड़ा कर दिया है। हालांकि इस तरह की शुरुआत कांग्रेस शासनकाल में ही हुयी थी, फिर भी विपक्ष के नाते कांग्रेस का इस मनोनयन पर सवाल उठाना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन स्वयं रंजन गोगाई के सहयोगी रहे जजों का इस मामले को लेकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता का सवाल उठाना एक गंभीर मामला है। अगर लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और कैग से सेवा निवृत्ति के बाद सरकारी पद के रूप में लाभ लेने की मनाही है तो फिर किसी भी न्यायाधीश के लिये राजनीतिक उपहार की मनाही क्यों नहीं?
गोगोई राज्यसभा जाने वाले पहले नहीं
के.टी.एस. तुलसी के रिटायर होने पर राष्ट्रपति ने गत 16 मार्च को भारत के संविधान के अनुच्छेद 80 के खण्ड (3) के साथ पठित खण्ड(1) के उपखण्ड () द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुये भारत के 46 वें प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य मनानेनीत कर दिया। राज्यसभा पहुंचने वाले रंजन गोगोई पहले रिटायर प्रधान न्यायाधीश नहीं हैं। इससे पहले 1998 से लेकर 2004 तक जस्टिस रंगनाथ मिश्रा राज्यसभा में रह चुके हैं। जस्टिस गोगोई तो न्यायविद् के तौर पर मनोनीत हुये हैं। जबकि जस्टिस मिश्रा तो बाकायदा कांग्रेस सदस्य के तौर पर उड़ीसा से चुनाव के जरिये राज्यसभा पहुंचे थे। वह 1993 में मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष भी रहे। राजनीति का भी कोई जवाब नहीं, जिस जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस महाभियोग लाना चाह रही थी, वह जस्टिस रंगनाथ मिश्रा के ही सुपुत्र हैं। इससे पहले 1968 से 1970 तक भारत के 11वें प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस मोहम्मद हिदायतुल्ला को कांग्रेस शासन में उपराष्ट्रपति बनायागया था। जस्टिस हिदायतुल्ला पहले मुस्लिम प्रधान न्यायाधीश थे जो कि अगस्त 1979 से 1984 तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे।
गोगोई के मिजाज से परिचित लोग स्तब्ध
किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश का राज्यसभा जाना नयी बात होते हुये भी हैरानी इसलिये कि जिस कड़क मिजाज मुख्य न्यायाधीश के चेहरे पर मुस्कराहट देखना एक विलक्षण संयोग होता था और जो गुवाहाटी हाइकोर्ट द्वारा सम्मान स्वरूप अर्पित की जाने वाली सेवाओं को ठुकराने के साथ ही सुप्रीमकोर्ट के उन 4 जजों में शामिल रहा हो जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मिश्रा पर सरकार के प्रभाव में होने का परोक्ष आरोप लगाते हुये न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा बताया था उन्हीं जस्टिस गोगोई ने इतनी जल्दी से सरकार का ऑफर स्वीकार कर लिया। कैसे सम्भव है कि सरकार ने उनके मनोनयन से पहले उनकी सहमति ली होगी। राफेल, रामजन्मभूमि और सीबीआइ विवाद के निपटने से पहले एक दौर ऐसा भी आया जबकि भाजपा के लोग जस्टिस गोगोई के पिता केशव चन्द्र गोगाई की कांग्रेस पृष्ठभूमि का उल्लेख करने से नहीं चूकते थे। जस्टिस गोगोई ने गुवाहाटी हाई कोर्ट के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसमें उनको रिटायरमेंट के बाद गुवाहाटी में रहने के दौरान एक पूर्णकालिक निजी सचिव, दो चपरासी और एक शोफर सहित कार दिए जाने की पेशकश की गयी थी। 12 जनवरी 2018 को 4 वरिष्ठतम् जजों की प्रेस कान्फ्रेंस में जस्टिस गोगोई अकेले जज थे जिन्होंने स्वीकार किया था कि जस्टिस बृजगोपाल हरकिशन लोया की 1 दिसम्बर 2014 को हुयी संदिग्ध मौत की जांच को गंभीरता से लिये जाने से भी वे नाखुश हैं।
गोगोई के सहयोगी भी हैरान
जस्टिस गोगोई के मनोनयन पर मोदी सरकार में वित्तमंत्री रहे वरिष्ठ वकील अरुण जेटली का 30 सितंबर 2012 को दिया गया यह बयान इन दिनों सोशियल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘दो तरह के जज होते है। एक जो कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं। जज रिटायर नहीं होना चाहते हैं। रिटायर होने से पहले दिए फैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले काम से प्रभावित होते हैं।’’ राजनीतिक नेता अपने सहूलियत से बयानबाजियां तो करते ही रहते हैं, जैसे कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल कर रहे हैं। लेकिन 12 जनवरी 2018 को जस्टिस गोगोई समेत न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा बताने वाले 4 वरिष्ठ जजों में से एक जटिस जोजेफ कूयिन के ताजा बयान की अनदेखी नहीं की जा सकती। जस्टिस कूरियन का कहना है कि ‘‘राज्यसभा के सदस्य के तौर पर मनोनयन को पूर्व प्रधान न्यायाधीश द्वारा स्वीकार किए जाने ने निश्चित रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आम आदमी के भरोसे को झकझोर दिया है। न्यायपालिका भारत के संविधान के मूल आधार में से एक है।’’ जस्टिस गोगोई द्वारा सरकार का ऑफर स्वीकारने पर हैरानी प्रकट करने वाले जस्टिस कूरियन अकेले पूर्व जज नहीं हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश . पी. शाह और उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर. एस. सोढ़ी ने भी सरकार द्वारा गोगोई के नामांकन पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है।
यह संयोग या अमित शाह का प्रयोग
न्यायाधीशों के राजनीति में आने पर कोई संवैधानिक बंदिश नहीं हैं, फिर भी संवैधानिक पद धारण कर चुके महानुभाव एवं अन्य भद्र लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछाले जाने से भी राजनीति से परहेज करते रहे हैं। मसलन जिन ऐतिहासिक फैसलों के लिये जस्टिस गोगोई इतिहास पुरुष बने थे, उन्हीं पर अब ऊंगली उठने लगी है। यही नहीं अब उनके भाई एयर मार्शल (से.नि) अंजन गोगोई के गत 24 जनवरी को नॉर्थ ईस्ट कांउसिल (एनईसी) में 3 साल के लिये स्थाई सदस्य के रूप में मनोनीत होने पर भी ऊंगलियां उठने लगी हैं। उत्तर पूर्व की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था एनईसी में इसके 1972 में गठन से लेकर अब तक एयर मार्शल गोगोई फौजी पृष्ठभूमि वाले पहले सदस्य होने के कारण चर्चा में हैं। इस परिषद का अध्यक्ष पूर्व में उत्तर पूर्व विकास मंत्रालय (डोनर मंत्रालय) का मंत्री होता था, लेकिन संविधान में संशोधन कर भारत के गृहमंत्री को अब इसका अध्यक्ष बना दिया गया है। एनईसी और राज्यसभा के लिये मनोनयन की सिफारिश गृहमंत्री के तौर पर अमित शाह द्वारा किया जाना कोई संयोग तो कोई प्रयोग मान रहा है।
ओहोम शासकों के वंशज से राजनीतिक लाभ की आकांक्षा
जस्टिस गोगोई का मनोनयन ज्यूरिस्ट के तौर पर केटीएस तुलसी द्वारा खाली की गयी सीट पर हुआ है। इसलिये इस मनोनयन का राजनीतिक निहितार्थ निकालना सच्चाई से आंख मंूदना ही है और कम से कम अमित शाह जैसे चाणक्य से तो निस्वार्थ राजनीतिक लाभ की कल्पना की ही नहीं जा सकती। अप्रैल 2021 तक असम विधानसभा के चुनाव होने हैं और एनआरसी तथा सीएए के कारण समूचा पूर्वोत्तर उबला हुआ है। सिक्किम के अलावा पूर्वोत्तर के सभी राज्य असम से निकले हुये हैं। ऐसा भी वक्त रहा जबकि असम को एकमात्र हिमालयी राज्य माना जाता था और एक लम्बे अर्से तक इन सभी राज्यों का हाइकोर्ट गुवाहाटी में ही था। इसलिये असम के राजनीतिक महत्व को देखते हुये गोगोई के मनोनयन के पीछे राजनीतिक निहितार्थ निकालना स्वाभाविक ही है। जस्टिस गोगोई की पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ ही उनका राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ताइ ओहोम जाति का होना भी महत्व रखता है। वह उसी ओहोम वंश से हैं जिसके आदि पुरुष सुकाफा चाओलंग थे और जिस वंश ने सन् 1228 से लेकर 1838 तक संयुक्त असम पर शासन किया। यही नहीं रंजन गोगोई पूर्वोत्तर से प्रधान न्यायाधीश बनने वाले पहले व्यक्ति थे। इसीलिये गुवाहाटी हाइकोर्ट ने उनके सम्मान में उन्हें सुविधाओं की पेशकश की थी।
गोगोई प्रोटोकॉल में छटे से 21वें स्थान पर लुड़के
सवाल केवल रंजन गोगाई का नहीं बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सम्मान का है। भारत का प्रधान न्यायाधीश शासकीय प्रोटोकॉल के वरीयताक्रम में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यों के राज्यपाल (अपने राज्य में) एवं पूर्व राष्ट्रपति के बाद छटे स्थान पर आता है। लेकिन अब राज्यसभा के सदस्य के तौर पर गोगोई का वरीयताक्रम 21वें स्थान पर चला गया है। शासकीय शिष्टाचार में उनसे आगे हाइकोर्ट के जज, राज्यों के कैबिनेट मंत्री, सीएजी, लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं निर्वाचन आयुक्त जैसे कई पदधारी गये हैं।

लोक सेवा आयोग और कैग की तरह बंदिश क्यों नहीं
सवाल यह भी उठ रहा है कि सरकारी नियंत्रण और प्रभाव से मुक्त होकर निष्पक्ष रूप से अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने के लिये जब लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का सेवानिवृत्ति के बाद पुनः सरकारी पद लेना निषिद्ध है तो यह कानून न्यायाधीशों पर लागू क्यों नहीं है, जबकि सबसे अधिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता की जरूरत न्यायपालिका को ही है। संविधान के अनुच्छेद 319 के तहत लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष एवं अनुच्छेद 148(4) के अनुसार नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक अपने पद पर रह जाने के पश्चात, भारत सरकार के या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी और पद का पात्र नहीं रह जाता है। यद्यपि राज्यसभा की सदस्यता सरकार के अधीन कोई पद तो नहीं है, मगर इन संवैधानिक प्रावधानों की मूलभावना तो इस पद भी लागू होती है चाहे न्यापालिका माने या माने।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी, शाहनगरए देहरादून।
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com

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