सुबह की तलाश में
बुधवार, 24 दिसंबर 2008
जीवन तरंगों में उलझा सा मई
नई सुबह की तलाश करता
रात को भी और दिन को भी।
आज भोर में ही नींद
गायब हो गई आँखों से
कमरे का सन्नाटा मुझे
अब भी सोने के लिए कहता
अंधेरों से बातें करता मै
न जाने कब सो गया
सुबह आई और चली गई
फिर नई सुबह की तलाश में
दिन के उजाले से लड़ता
बढ़ता रहा अनजान राहों पर
धुन्धुलका छाने लगा था
आसमान में,
पंछी डेरे में लौटने लगे थे
और मैं नई सुबह की
तलाश में रास्ता भटक गया हूँ
अँधेरा घिर आया है चाहुओअर
शोर है सिपाया बिल्कुल नही
शायद नई सुबह आने को है
जीवन तरंगों में उलझा सा
आज भी नई सुबह की तलाश करता हूँ.......
3 टिप्पणियाँ:
काश मैं भी अभिव्यक्तियों को कविता में कर सकता लेकिन कोई बात नहीं मजा तो आ रहा है आप ही सही......
अरे यार आप तो अच्छे लेखक के साथ साथ अच्छे कवि भी हैं फिर क्या बात है बाबू पेले रहिये कविताएं एक के बाद दो और दो के बाद तीन और इसी तरह बजती रहे कविताओं की बीन....:) देखो अपुन भी कवि बन गएले भिड़ू:)
शायद नई सुबह आने को है
जीवन तरंगों में उलझा सा
आज भी नई सुबह की तलाश करता हूँ.......
बढिया अभिव्यक्ती है भाई बधाई लीजिये.
जय जय भड़ास
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