राष्ट्रवाद और मनीषा दीदी के जन्मोत्सव की प्रासंगिकता

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

बात तब की है जब कि देश अंग्रेजों के आधीन था कुछ राष्ट्रवादी नेता जो कि खुद ग्रामीण क्षेत्रों से व किसान वर्ग से थे अंग्रेजों के साथ बैठ कर विमर्श कर रहे थे कि देश में गरीबी का कारण क्या है; समय था होली के त्योहार का। अंग्रेज देख रहे थे कि जिन भूखे नंगे किसानो के पास खाने को नहीं है वो भी उस दिन बौराए हुए होली के त्योहार को मना रहे हैं जिनके पास रंग नहीं है वे मिट्टी, कीचड़ और गोबर से ही एक दूसरे को पोत रहे हैं। अंग्रेज इस बात से हैरान परेशान थे कि ये नंगे भूखे किसान क्या पागल हो गये हैं। हमारे एक राष्ट्रवादी नेता ने कहा कि तुम अंग्रेज इस बात को हरगिज नहीं समझ सकते कि ये हमारी परम्पराएं है जो कि भारत को मात्र एक भौगोलिक संरचनाओं का समूह नहीं बल्कि एक राष्ट्र बनाती हैं जिसकी अस्मिता पर आंच आने पर राजा से लेकर भिखारी तक अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हो जाता है, हम दिखते भिन्न-भिन्न हैं पर हमारी एकता के मौलिक तत्त्व हमारी परम्पराओं में ही छिपे हैं। मनीषा दीदी के जन्मोत्सव के उल्लास को देख कर मुझे ठीक वैसा ही लगा कि हाशिये से भी धकेल कर अलग कर दिये गये लोगों को संगठित करके जैसे भड़ास के मंच पर डा.रूपेश श्रीवास्तव जी ने एक परंपरा का सूत्रपात कर दिया है वह हमारी राष्ट्रीयता के तत्त्वों में से ही एक है जो एकता को मजबूत और अखंड रखता है। आप सब खुद देख रहे हैं कि लोग जुड़ रहे हैं।

1 टिप्पणियाँ:

फ़रहीन नाज़ ने कहा…

दीनबंधु भाई,आपने सही तत्त्वों को समझ पाया है जो भड़ास में अंतर्निहित हैं
जय जय भड़ास

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