मेरा एकान्त
गुरुवार, 15 जनवरी 2009
्सच कहती हु बडा़ खिलाडी है मेरा एकान्त
यो तो बना रहता है मेरे साथ देर देर तक
छेड़्ता मनाता है मुझे खिलखिलाता रुलाता है
मेरे साथ
कभी चुभकर सताता है मुझे जीभर हसाता हैमुझे गुदगुदाकर
कैसे कैसे खेल रचाता है
मेरा एकान्त
जाने कैसे क्या होता है एक पतली गली से खिसक जाता है एकान्त
मेरे छोटे से नीड मे केवल सुनापन
घेर लेती है मुझे
मेरी अवानिछ्त व्यस्तता
किन्तु आश्च्रर्य व्यस्तता की होती है
कोइ निजात
इसलिए तो
वह बेचारी मेरे पास बिखरे
कागजी ढेर से सिर उटाकर
तलाशती है उसे
दस्तक देती सी
कितने द्वार
येसे मे जाने कहा से वह कलम की कोर पकड्कर
दबी दबी जुवा के साथ
बिछ जाते है
मेरे स्रजन की सेज पर
देखते देखते बन जाता है
वामन से विराट
अब तो मान गये न आप
कि
बडा खिलाडी है मेरा एकान्त
1 टिप्पणियाँ:
दीदी बेहतरीन और गहरे भावों से सजी हुई है ये कविता...
वाकई एकान्त कचोटता है लेकिन यदि हम खुद अपने आप में ही अपना मित्र रूप तलाश पाएं तो एकान्त सुखद हो जाता है.....
ध्यान का मार्ग हमें इसी रास्ते पर ले जाता है
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