गाँव से लुप्त होती गँवई होली !!!!!

सोमवार, 16 मार्च 2009

अभी अभी गाँव से आया हूँकहने को होली थी मगर गाँव इसलिए जा सका क्यूँकी भाई की शादी थीबहरहाल बहाना कोई भी हो सालो बाद इस बार होली में अपने गाँव थाअपना गाँव सुनकर ही मानो ह्रदय के सारे तार एक अद्भुत अहसास से प्रफुल्लित हो जाते हैं सो मेरा भी हो रहा है और याद रहा है एक सिनेमा का नाम "मेरा गाँव मेरा देश" ।

होली के दिन जैसे जैसे करीब आते गए याद आता गया वोह बचपन का लड़कपन और उसी एहसास से होली की पूर्वसंध्या पर इन्तजार करने लगा धुरखेल (होलिका दहन) कारात तक दालान पर बैठा रहा की लोग अब आयेंगे की तब आयेंगे और सभी गाते बजाते सा रा रा रा करते बरहम बाबा के शरण में जा कर धुरखेल करेंगे मगर........

होली की सुबह आम दिनों से पहले होती है क्यूँकी मांस की व्यवस्था करनी रहती है, मिथिला में रहने वाले जानते हैं की गिने चुने दिन मांस का सेवन करने वाले मिथिलावाशी के लिए होली भी उसी एक दिन में से आता है जिसके लिए बड़ी जद्दो जहद करनी पड़ती है की कहीं बकरी मिल जाए, मांस छागर का ही होना चाहिए वगैरह वगैरहसो बस सुबह का समय इसी इन्तजाम में

घर का काम काज निबटाते गयी दोपहर मगर कोई ना आया तो वो था गावं का हमारा संयुक्त होली जो सिर्फ़ यादों में सिमट आया हैना ही कोई रंग गुलाल ना ही धूल की बहार, मिट्ठी और कादो (कीचड़) का तो कहीं अता पता नही, हो भी कैसे जब लोग ही नदारद


फाग के गीत के साथ गाँव का फगुआ, क्या गाँव में अब ये मिलता है?


हम भी नहा धोकर हो लिए फ्रेश, चढाया कुरता पायजामा और जेब में लाल हरा अबीर (गुलाल) की तभी ढलते सूरज के साथ कहीं ढोल बाजा की आवाज सुनाई दीजोश और उत्साह के साथ निकला और गया सड़क पर तो देखा की हमारे बगल में रहने वाले मलाह ( मछुआरे) होली को गँवई फगुआ के तरीके से ही मन रहे हैं, आंखों में चमक आयी जोश हुआ दूना और शामिल हो गया मैं भी उसी टोली में

होली तो मना ली मगर सोचता रहा की गाँव का फगुआ रहा की नही, कैसे लौट के आयेगी हमारी होली

आज भी सोच ही रहा हूँ......

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1 टिप्पणियाँ:

समयचक्र ने कहा…

भाई बहुत बढ़िया अगले बरस फिर होली आयेगी.

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