लो क सं घ र्ष !: फिर स्वप्न सुंदरी बनना...

रविवार, 21 जून 2009


वह मूर्तिमान छवि ऐसी,
ज्यों कवि की प्रथम व्यथा हो।
था प्रथम काव्य की कविता
प्रभु की अनकही व्यथा हो॥

निज स्वर की सुरा पिलाकर
हो मूक ,पुकारा दृग ने।
चंचल मन बेसुध आहात
ज्यों बीन सुनी हो मृग ने॥

मुस्का कर स्वप्न जगाना,
फिर स्वप्न सुंदरी बनना।
हाथो से दीप जलना
अव्यक्त रूप गुनना॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

0 टिप्पणियाँ:

प्रकाशित सभी सामग्री के विषय में किसी भी कार्यवाही हेतु संचालक का सीधा उत्तरदायित्त्व नही है अपितु लेखक उत्तरदायी है। आलेख की विषयवस्तु से संचालक की सहमति/सम्मति अनिवार्य नहीं है। कोई भी अश्लील, अनैतिक, असामाजिक,राष्ट्रविरोधी तथा असंवैधानिक सामग्री यदि प्रकाशित करी जाती है तो वह प्रकाशन के 24 घंटे के भीतर हटा दी जाएगी व लेखक सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। यदि आगंतुक कोई आपत्तिजनक सामग्री पाते हैं तो तत्काल संचालक को सूचित करें - rajneesh.newmedia@gmail.com अथवा आप हमें ऊपर दिए गये ब्लॉग के पते bharhaas.bhadas@blogger.com पर भी ई-मेल कर सकते हैं।
eXTReMe Tracker

  © भड़ास भड़ासीजन के द्वारा जय जय भड़ास२००८

Back to TOP