अब कसाब और उस जैसे हरामियों को रोज़ा रखने का कोई अधिकार नहीं है

रविवार, 23 अगस्त 2009

मुंबई पर आतंकी हमला करके पौने दो सौ बेकुसूर मासूमों को निर्दयता से मार डालने वाले नरपिशाचों अजमल कसाब, फ़हीम अंसारी और सब्बाहुद्दीन शेख को आज से शुरू होने वाले मुस्लिमों के पवित्र माने जाने वाले महीने में रोज़ा रखने की हमारी सरकार की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत चलने वाली विशेष अदालत ने अनुमति दे दी है। अब इससे क्या होगा? इससे होगा ये कि एक संदेश जो कि सारे देश में जाएगा कि रोज़ा रख कर अल्ला को प्रसन्न करने वाले ऐसे भी होते हैं और इनसे हमारी सरकारें भी ड्रती हैं वरना पूछ सकती थी अदालत कि क्या तुम अब भी अपने आप को मुसलमान मानते हो जबकि इतने बेकुसूरों के खून से तुम्हारे हाथ रंगे हुए हैं लेकिन मामला चूंकि अलालती है तो उसमे धर्म पर कोई रोकटोक नहीं है। कल को अगर साध्वी प्रग्या ठाकुर और कर्नल पुरोहित जेल में दुर्गा पूजा और गणपति की स्थापना करना चाहेंगे तो क्या सरकारी अदालत उन्हें अनुमति देगी। अब इन राक्षसों के लिये सरकार सहरी और अफ़्तारी के समय का ध्यान रखेगी और सही समय पर भोजन देकर वे रोज़ा खोल सकें, अल्ला की इबादत करें इस बात के लिये सरकार उनकी सहायता करेंगी। घिन आने लगी है मुझे ऐसी धार्मिक व्यवस्था और ऐसी न्यायिक प्रणाली से। देश का कोई कठमुल्ला मुस्लिम संगठन आगे आकर बोलने की हिम्मत नहीं रखता कि अब कसाब और उस जैसे हरामियों को रोज़ा रखने का कोई अधिकार नहीं है शायद क्या वे सब वैचारिक तौर पर उससे सहमत हैं कि जो उसने करा वह एक मुसलमान कर सकता है?????? इस सवाल के आगे लाखों सवालिया निशान भी कम हैं।
जय जय भड़ास

3 टिप्पणियाँ:

अजय मोहन ने कहा…

जय हो माता रानी की जय हो...भड़ास माता जी की जय हो...
आपा बड़े दिनो बाद आपके रुद्रकाली जैसे तेवरों के दर्शन हुए। आपने जो लिखा मैं उससे अक्षरशः सहमत हूं।
जय जय भड़ास

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

पूर्ण सहमति है इस तरह के राक्षस खुद को धार्मिक दिखाने का ढोंग करते हैं और सरकार मूर्ख (या किसी अन्य स्वार्थ या मजबूरी वश) उनकी सहायता करती है। ये हमारे देश का दुर्भाग्य है। आपने अच्छा लिखा है
जय जय भड़ास

Muslims Views ने कहा…

आपने सही लिखा है कि इन जैसे लोगों को रोजा रखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं आपकी बात से पूर्ण सहमत हूं लेकिन अदालत ने इन लोगों को यह छूट शायद इसलिए दी है कि किसी का मजहब उसकी व्यक्तिगत आस्था का मामला होता है। कोर्ट भला इसमें क्यों दखल देगी और रोक लगाएगी। कहा जा सकता है कि कोर्ट अपनी जगह ठीक है। लेकिन कुल मिलाकर आपने मुद्दा सही उठाया है।

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