धार्मिक बहसों को वजन देने के लिये मेरे पास न तो तराजू है न ही बांट
रविवार, 9 अगस्त 2009
गुफ़रान भाई यकीन मानिये कि धार्मिक बहसों को वजन देने के लिये मेरे पास न तो तराजू है न ही बांट कि वजन बढाया या घटाया जा सके। मैं पहले भी लिख कर दे चुका हूं कि मुझे किसी भी मौजूदा धार्मिक मान्यता में कोई दिलचस्पी नहीं है क्यों कि ये मान्यतांए तब पनपी हैं जब लोग गधों पर घूमा करते थे और हर बात का फैसला लड़-झगड़ कर ही करा करते थे चाहे वो किसी भी धर्म की बात क्यों न हो। साइंस बस वहीं तक स्वीकारी जाती है जहां तक हमें फायदा हो लेकिन जैसे ही मानवता के इतिहास की पुरानी हो चुकी किताबों के आधार पर आस्थाएं बना कर जीने वाले लोगों से आगे की साइंस की बात करी जाए तो नौटंकी शुरू कर देते हैं, इन लोगों ने जितना धर्मों के नाम पर मनुष्यों का खून बहाया है और किसी कारण से इतनी मनव हत्याएं नहीं हुई हैं। सब तो खुद को श्रेष्ठ ठहराते हैं और दूसरे को गदहा और बेवकूफ़ और हमेशा लड़ने को तैयार रहते हैं। मुझे तो इन बातों से माफ़ ही करा जाए। जिस समय कथित तौर पर मान्य धर्मों का उदय हुआ उस समय लोकतंत्र जैसी कोई बात ही न थी लेकिन आज है तो भाई मैं कहता हूं कि देवता हों या दानव, पिशाच हों या फ़रिश्ते..... जिन्हें जनता स्वीकारे वही सही है। इस बात पर अगर बह्स करनी ही है तो संविधान की समीक्षा कराई जाए न की व्यर्थ की भंकस में उलझ कर एक दूसरे की दारी-महतारी करी जाए। आशा है कि धीरे-धीरे भड़ास का दर्शन स्पष्ट हो रहा होगा।
जय जय भड़ास
1 टिप्पणियाँ:
गुरुदेव आपने अक्षरशः सत्य कहा,
बेकार उल जुलूल के बहस के बजाय मुद्दों को सामने लायें तो सार्थकता साबित हो,
जय जय भड़ास
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