अरुणा-जय प्रकाश काण्ड पर डाक्टर वर्मा की प्रतिक्रया !
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
जो भी अरुणा का एक रूप उभर कर आया है कि अभी जु्म्मा जुम्मा दस बीस कविता नहीं लिखा है और ऊपर से इतना गुरूर । फिर मूल कमेन्ट्स तो कविता पर है ही नहीं । एक परिचित मित्र का परिचित मित्र यानी एक समूह के दूसरे को एक टिप्पणी भी है । इसे सहज में भी लिया जा सकता था । जो मनुष्य की प्रकृति से संबंधित है । न कि कविता पर । फिर मैंने यह भी पढ़ा है टिप्पणीबाजों की टिप्पणियों में कि वे अर्थात् जयप्रकाश मानस तो उन्हें अपनी चर्चित पत्रिका में भी छाप चुके हैं फिर वे कह भी नहीं रहे हैं कि उन्हें अरुणा देवी की कविता पसंद ही नहीं है । वे तो उन्हें बाकायादा छाप चुके हैं । फिर कहाँ पुरुष द्वारा महिला लेखक को नापंसद करने का सवाल ।
रहा सवाल इसका तो किसी भी कवि की हर कविता ऐसी नहीं होती कि उसकी भी तारीफ़ की जाये । अरुणा या किसी भी कवि की कविता कितनी अच्छी है इसका निर्णय पाठक ही नहीं सुधी संपादक और आलोचक भी करते हैं । और सारे टिप्पणी बाज आलोचक नहीं है । कवि नहीं है । संपादक नहीं है ।
अनिल जनविजय कवि होकर भी मूर्ख टिप्पणी करते हैं यह ताज्जूब है कि दूसरे कवि को नालायक कहते हैं । यानी कहीं यह मानस के खिलाफ़ आग उगलने का छद्म प्रयास तो नहीं है कि किसी महिला या पुरुष के पक्ष में जाने के प्रश्न पर महिला के साथ जायें । क्योंकि दोनों हिन्दी के अच्छे कवि हैं । दोनों का काम साहित्य का है ।
मुझे तो यह भी लगता है कि कहीं ये मानस और अरुणा जानबूझकर तो ऐसा किसी रणनीति के तहत न कर रहे हों । क्योंकि दोनों पुलिसवाले हैं । सुना है मैंने । और हम लोगों को यहाँ व्यर्थ चर्चा हेतु घेर रखे हैं । यह भी पता लगाना चाहिए । और इस मुद्दे को यहीं विराम देना चाहिए ।
क्योंकि मानस का कहना भी सही है । और अन्य पुरुषों का कहना भी ठीक है । हर किसी की दृष्टि होती है चीजों को देखने की । हम व्यर्थ अपने विचार, दृष्टिकोण को लादे फिरते रहते हैं । अपडूडेट और उदार होना भी समयोचित है । जो दूसरों को नहीं स्वीकार पाता वह फासिस्ट हो जाता है । सिर्फ विरोध करना ही गैर फासिस्ट होना नहीं होता । बाकी बाद में । अब बंद करें यह सब नाटक ।
पुलिस पुलिस तो नहीं । चोर चोर मौसेरे भाई । भाई नही तो भाई बहन ।
डॉ. बलदेव वर्मा
नागपुर, महाराष्ट्र
3 टिप्पणियाँ:
हिन्दी वाले इस छीछालेदर से ऊपर क्यों नहीं उठ सकते
मैं सोचता हूं कि छीछालेदर किसी खास किस्म का लेदर होता है जिसके जूते नहीं बनाए जा सकते। अनिल भाई इस लेदर के बारे में शायद अधिक जानकारी रखते हैं। वैसे भी हिंदी वाले चिरकुट,दलिद्दर, छुतिहर,घिनौने,गलीज़,गंवार,बौड़म,देहाती,गालीबाज़,नीच,ईडियट,स्टुपिड और न जाने क्या क्या होते हैं। हम तो हिंदी की ग्रामीण पट्टी से निकले लोग हैं तो कीचड़ आदि मे ही लोटाई करना हमारी नियति है हमारी पतलून में कड़क क्रीज़ होती ही नहीं जिसे हमें टूटने से बचाने में पूरी जिंदगी निकल जाए
जय जय भड़ास
अरुणा और मानस प्रसिद्धि पाने के लिये कूटनीति अपना रहे हैं पुलिसिया पैतरा है। चलो नाटक का परदा गिरा देते हैं इनको "इंका सभ्यता" के शहर ’माचूपीचू’ भेज देते हैं :)
जय जय भड़ास
एक टिप्पणी भेजें