भड़ास बनाम भड़ास blog -दूसरा भाग

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

मैं स्वयं यानि मुंबई की लोकल ट्रेनों में तालियां बजा कर भीख मांगने वाला एक हिजड़ा, जिसे डा.रूपेश श्रीवास्तव ने बहन स्वीकार कर सामाजिक दायरों को झकझोर डाला। एक लम्बे समय तक मैं आदरणीय भाई से बचती थी क्योंकि मुझे यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि जिधर एक तरफ़ लोग छक्का, हिजड़ा और न जाने किन किन अजीबोगरीब संबोधनों से पुकार कर मजे लेते हैं वहीं एक आदमी इस तरह का भी है जो कि दीदी कहने में न तो हिचकता है और न ही सबके सामने रेलवे स्टेशन पर ही प्यार और आदर से गले लगा लेता है। भाई से ट्रेन में अक्सर होने वाली मुलाकातें एक दिन मुझे उनके घर तक ले आयीं। घर आने पर मुझे उनके व्यक्तित्त्व के बारे में जो भी बचा खुचा भ्रम था वह दूर हो गया। एकदम सादगी भरा घर जिसमें किताबों, दवाइयों व कम्प्यूटर के अलावा कुछ खाने-पकाने का सामान और कुछ नहीं। इसी घर में यशवंत सिंह, गुरुदत्त तिवारी, अनिल रघुराज आदि आकर गये हैं। भाई ने धीरे-धीरे मुझे समझा-बुझा कर कम्प्यूटर बैठाया क्योंकि इससे पहले मैं जब भूमिका को लेकर एक कप्यूटर इंस्टीट्यूट सीखने गयी थी तो दूसरे दिन उस बंदे ने मुझे फीस वापिस लौटा दी थी ये कह कर कि आपके आने से दूसरे स्टुडेंट्स आना बंद हो जाएंगे। इस बात से जो गांठ मन में आ गयी थी उससे भाई ने मुक्ति दिला दी। बात-बात में गाली देने की आदत भी छूट गयी। एक दिन भाई ने कहा कि दीदी आपको अब अपनी बातें इंटरनेट पर लिखना है। हिचकिचाहट लगी लेकिन भाई के आग्रह के आगे झुकना पड़ा। हिजड़ा मनीषा भड़ास पर लैंगिक विकलांग मनीषा नारायण के नाम से आयी और सबके प्यार ने मनीषा दीदी बना दिया। मुझे याद है कि इस बीच एक महिला पत्रकार मनीषा पाण्डेय से यशवंत सिंह का कुछ विवाद हुआ था जिसके चलते यशवंत सिंह ने एक बड़ी सी पोस्ट मेरे अस्तित्त्व पर सवाल उठा कर भाई डा.रूपेश को कटघरे में खड़ा करा था कि वो बताएं कि मेरा अस्तित्त्व है या मैं कल्पित हूं। मनीषा पाण्डेय ने तो भाई को फोन करके अपने अंदाज में खोखली सी धमकी भी दी कि उसके परिवार के लोग कानून-कानून का खेल भाई के साथ खेलेंगे क्योंकि ये उसका मखौल उड़ाने के लिये बनाया हुआ एक काल्पनिक चरित्र है। मैं एक बार फिर क्षुब्ध हो गयी तब तक आत्मविश्वास इतना बढ़ा नहीं था लेकिन भाई ने संबल दिया और मैंने यशवंत सिंह के सवाल और मनीषा पाण्डेय को उत्तर दिया। यशवंत सिंह ने लिखा था कि मनीषा ’हिजड़ा’ के होने के बारे में डा.रूपेश स्पष्ट करेंगे। यशवंत सिंह ने इसी प्रकार दुनिया की पहली महिला उर्दू नस्तालिक ब्लागर मुनव्वर सुल्ताना यानि हमारी मुनव्वर आपा के अस्तित्त्व पर भी संदेह करा था। सच तो ये था कि दरअसल यशवंत सिंह ने कभी जीवन में कल्पना भी नहीं करी थी कि डा.रूपेश श्रीवास्तव जैसे भी लोग होते हैं। जब डा.रूपेश श्रीवास्तव मिल गये तो जितना लाभ उठाया जा सकता है भावनाओं में लेकर उठा लो क्योंकि कब ये आदमी अलग हो जाए पता नहीं।
आगे जारी रहेगी...
जय जय भड़ास

2 टिप्पणियाँ:

अजय मोहन ने कहा…

दीदी आप ने जिस तरह से यशवंत सिंह और डा.रूपेश श्रीवास्तव का तुलनात्मक अध्ययन शुरू करा है वह विचित्र जान पड़ रहा है क्योंकि हमारे भाईसाहब और उस चिरकुट में कैसी तुलना?????
जय जय भड़ास

दीनबन्धु ने कहा…

मनीषा दीदी! आप इन बातों को नजदीक से जानती हैं क्योंकि हम तो उस समय भड़ास के मंच पर नहीं जुड़े थे बस डा.साहब को एक अच्छे जुझारू, सच के पक्ष में भिड़ जाने वाले बन्दे के रूप में जानते थे जो कि उनसे दिनोंदिन नजदीकी का कारण बनता गया और हम भड़ास पर आ गये। ये यशवंत सिंह एकदम टुच्चा जान पड़ रहा है अच्छा है आप इस कहानी को विस्तार से लिखिये ताकि दुनिया को पता चले कि ये ससुरा हमारे गुरूदेव के नाम का इस्तेमाल कर रहा है
जय जय भड़ास

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