लो क सं घ र्ष !: बोलो देश बंधुओं मेरे, वे कैसा गणतंत्र मनाएं........
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
फल, सब्जी, शक्कर हुआ सपना, यही कमर तोड़ महंगाई में,
ईद का चाँद हुई दालें, सौ रुपया रोज कमाई में।
बच्चे रोटी दाल को तरसें, मटरफ़ली देखि ललचायें॥ बोलो देश.....
तीस साल तक लड़े मुकदमा, हत्यारे सब बरी होई गए।
टूटी थी अंधे की लाठी, गहनों, खेत मकान बिक गए।
शोक मनाये मात-पिता कि, न्यायपालिका के गुण गायें। बोलो देश..........
फर्जी मुठभेड़ों में जिनके, प्रिय जन स्वर्ग सिधार गए।
जो भ्रष्ट व्यवस्था, सत्ता के, गुंडों से लड़कर हार गए।
जो नीर अपराधीन नवजवान हिंसक आतंकी कहलाएं॥ बोलो देश.........गुजरात, उड़ीसा, महाराष्ट्र में, जो जिन्दा ही दफ़न हो गए,
धू-धूकर जलते भवनों में, जिनके प्रिय बेकफ़न सो गए।
जो अपना सर्वस्व गवांकर, शिविरों में जिंदगी बिताएं॥ बोलो देश.......
गोदें सूनी हुई और जिन मांगों के सिन्दूर धुल गए।
भस्म हुए स्वर्णिम सपने, आँखों में बनकर अश्रु घुल गए।
रक्षक पुलिस बन गयी भक्षक, दंगाई मिलि आग लगायें ॥ बोलो देश......
गए कमाने मायानगरी, बीवी बच्चे आस लगाए,
राजठाकरे के गुंडों से, बचकर फिर न वापस आये।
मातम करें आश्रित या कि, संविधान की महिमा गाएं॥ बोलो देश......
संविधान की ऐसी की तैसी, करते गुंडे व्यभिचारी,
कर रहे कलंकित रक्षक पद, राठौर सरीखे अधिकारी।
जो स्वदेश में छिपते फिरते, कैसे मान सम्मान बचाएँ॥ बोलो देश.....
मृतक घोषित कर, वारिस बन, माफिया जमीन हथियाय रहे।
न्यायलयों में जा जाकर, मुर्दे फ़रियाद सुनाये रहे।
हम जीवित है हम जीवित हैं, वे जगह-जगह प्रमाण दिखाएं॥ बोलो देश.....
जिनके पुरखे देश के लिए, शीश कटाए रक्त बहाए।
मात्रभूमि की रक्षा हित जो, तन-मन-धन सर्वस्व लुटाये॥
झुग्गी झोपड़ियों में रहकर, घुट-घुटकर जिंदगी बिताएं॥ बोलो देश.......
काल बनी मेहँदी की लाली, दुल्हन के जोड़े कफ़न बन गए,
सेज सुहाग की चिता बन गयी, सारे सपने दफ़न हो गए।
चढ़ी दहेज़ की बलि वेदी पर, जिनकी बहन, बेटियाँ, माएं॥ बोलो देश......
फटे चीथड़ों में कितनी, माँ बहनें छिपकर लाज बचाएँ॥ बोलो देश......
आज भी लाखों नन्हे मुन्ने, रोते-रोते सो जाते हैं।
भूख कुपोषण बीमारी से, तड़प-तड़पकर मर जाते हैं॥
वे क्या जाने लोकतंत्र औ क्या गणतंत्र की महिमा गायें॥ बोलो देश.........
फटा सुथन्ना पहन के बुधुआ, झूम-झूम जन गण मन गाये।
नंग धडंग खड़ा दुवारे, घिसुआ देख-देख मुस्काये॥
छोडो अनंत कथा यह बंधू , आओ जन गण मंगल गाएँ॥
बुधुआ गाए, घिसुआ गाए, दुखना बंधुना काकी गाएँ।
नेता अभिनेता सब गाएँ, व्यभिचारी अचारी गाएँ॥
मिलावटखोर व्यापारी गाएँ, महाभ्रष्ट अधिकारी गाएँ।
चली आ रही वर्षों से, यह परंपरा हम आप निभाएं॥
मोहम्मद जमील शास्त्री
1 टिप्पणियाँ:
सच में राष्ट्रीयता पर शक होने लगता है जब हकीकत को अमली जामा पहनती रचना सामने आती है.
जय जय भड़ास
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