लो क सं घ र्ष !: हिंसा और उपभोक्तावाद के दौर में सूफियों की प्रासंगिकता

गुरुवार, 17 जून 2010

मौजूदा दौर में सहिष्णुता, उदारता और आपसी सौहार्द के ऊपर असहिष्णुता, कट्टरता और बदले की भावना का ज्यादा बोलबाला है। केवल कट्टरतावादी शक्तियों का ही वैसा बर्ताव नहीं है, उनके मुकाबले में उभरी प्रतिरोध की शक्तियाँ भी अक्सर असहिष्णुता, कट्टरता और वैमनस्य से परिचालित होती हैं। दुनिया और भारत दोनों के स्तर पर यह परिघटना देखी जा सकती है। आधुनिक सभ्यता के इस दौर में हृदय के प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा गया है। यह मानते हुए कि वे सब सामंती युग की भाववादी धारणाएँ हैं। जबकि हृदय के प्रेम को भक्तिकालीन कवियों ने जीवन के केंद्र में स्थापित करने का अनूठा और अभूतपूर्व उद्यम किया था। या तो हम यह कहें कि भक्तिकालीन कवियों का वह उद्यम निरर्थक था या आज के युग की समस्याओं और चुनौतियों के लिए उसकी सार्थकता स्वीकार करें। हमें लगता है कि भक्तिकाल की एक धारा के वाहक सूफी कवियों और दार्शनिकों के प्रेम, त्याग, अपरिग्रह और भाईचारे के जीवन दर्शन का स्मरण करना प्रासंगिक है। समता, स्वतंत्रता और बंधुता के आधुनिक विचारों को मध्यकालीन सूफी साधकों, संतों और साहित्यकारों के दर्शन से काफी सहायता मिल सकती है। दरअसल अब हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि मानव मुक्ति के मध्यकालीन रचनात्मक, साधनागत और दार्शनिक उद्यम से कट कर मानव मुक्ति की आधुनिक अवधारणाएँ और प्रयास सफल नहीं हो सकते। अब उस बुद्धि से निजात पाने का समय आ गया है जो मध्यकालीनता और आधुनिकता के बीच ‘वाटर टाइट’ विभेद करती है। उस बुद्धि पर भी पुनर्विचार की जरूरत है जिसके तहत माना जाता है कि विभिन्न धर्मों में पाई जाने वाली उदारता की धारा आधुनिक मनुष्य के लिए किसी काम की नहीं है। आखिर उसी उदारता की धारा के बूते आधुनिकता-पूर्व की मानव सभ्यता ने अपने को कट्टरता के आक्रमणों से बचाया है। बल्कि वह पैदा और विकसित ही कट्टरता के बरक्स हुई है और उसने मानव मुक्ति के नए क्षितिज उद्घाटित किए हैं। आधुनिक सेकुलरवादी विमर्श में धर्म की उदारतावादी धाराओं को समुचित जगह देने से न केवल संप्रदायवादी ताकतों के प्रभाव को काटा जा सकता है, उपभोक्तावादी-बाजारवादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए भी वहाँ से पर्याप्त सामग्री पायी जा सकती है। ऐसा न करने पर धर्म और बाजार के नाम पर चलाया जा रहा कट्टरतावादी अभियान मानव सभ्यता के इतिहास में उपलब्ध उदारता की अंतर्वस्तु को या तो विनष्ट कर देगा या उसे कट्टरता की झोली में समेट लेगा।
दुनिया के सभी धर्मों में कमोबेश रहस्यवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है। रहस्यवादी प्रवृत्ति धर्म से जुड़ी होकर भी धर्म के संस्थानीकृत रूप के विरोध में पैदा होती है। वह प्रत्येक व्यक्ति की आध्यात्मिक-दार्शनिक जिज्ञासा के स्वाभाविक एवं लोकतांत्रिक अधिकार को बनाए रखने की दृष्टि से जुड़ी होती है। वह धर्म और जीवन में पाखंड और भोगवाद की विरोधी प्रवृत्ति है। रहस्यवादी साधक अनुभव करता है कि संपूर्ण जागतिक व्यापार परम सत्ता से पैदा होकर उसी में विलीन होता रहता है। अव्यक्त परम सत्ता जो, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त और व्यक्त है, रहस्यवादी उसे जानने की उत्कट जिज्ञासा और व्यग्रता से निरंतर भरा रहता है। वह मानता है कि परम सत्ता को जागतिक बुद्धि से नहीं, आंतरिक साधना से जाना जा सकता है। आंतरिक साधना में वह सबसे ज्यादा प्रेम की अनुभूति पर बल देता है। इस तरह प्रेम की साधना ही रहस्यवादी साधक की सच्ची साधना है। रहस्यवादी मानते हैं कि प्रेम की साधना का मार्ग आसान नहीं होता। उसमें अपने अहम् का पूर्ण विसर्जन करना होता है। इस तरह परमात्मा से जो अंतरंगता स्थापित होती है उसका प्रसार समस्त प्राणियों तक होता है। उसमें कोई भी अलग या पराया नहीं रह जाता। प्रेम की भावावस्था में स्थित हो, संपूर्ण सृष्टि से एकत्व ही रहस्यवादी साधक का चरम लक्ष्य होता है।
रहस्यवादी प्रवृत्ति के संदर्भ में इस्लाम धर्म भी अपवाद नहीं है। माना जाता है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद के समय से ही इस्लाम में रहस्यवादी स्वर मुखरित होने लगे थे। इस्लाम धर्म के रहस्यवादी सूफी कहलाए। वे पैगंबर, कुरआन और हदीस के वचनों को मानते हैं लेकिन अपनी साधना में इस विश्वास से परिचालित होते हैं कि धर्म बाह्याचार का नहीं, आंतरिक अनुभूति का विषय होता है। आमतौर पर अपने सिद्धांतों को वे कुरआन और हदीस के हवाले से पुष्ट करते हैं लेकिन जहाँ तालमेल नहीं बैठ पाता वहाँ अपनी अलग व्याख्या भी देते हैं। अपने उदार दृष्टिकोण के चलते वे मानते हैं कि कुरआन की विभिन्न तरह से व्याख्या की जा सकती है। उन्होंने अपनी अंतःप्रेरणा से कई बार हदीसों की सृष्टि भी की है। उदार दृष्टिकोण के चलते कई बार सूफियों को कट्टरपंथियों के कोप का भाजन बनना पड़ा है और जान से भी हाथ धोना पड़ा है। परमात्मा को प्रेम स्वरूप मानते हुए हृदय से परमात्मा के प्रति प्रेम को ही वे धार्मिक आचरण की कसौटी मानते हैं। उनके मुताबिक हज करने का महत्व तभी है जब साधक पग-पग पर हृदय की उदात्तता और पवित्रता अर्जित करता चले; उसके हृदय में परमात्मा और उसकी सृष्टि के प्रति प्रेम का उद्रेक होता चले। सूफी साधक अल शिवली इस विषय में कहते हैं: ‘‘प्रेम प्रज्वलित अग्नि के समान है जो परम प्रियतम की इच्छा के सिवा हृदय की समस्त वस्तुओं को जला कर खाक कर डालता है।’’ अधिकांशतः सूफी, पैगंबर और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों के प्रति आस्था प्रकट करते हैं और धार्मिक नियम-कायदों का पालन करते हैं। लेकिन अंतिम कसौटी अपने अंतर की प्रेरणा को ही स्वीकार करते हैं। धर्म में व्याप्त पाखंड और कट्टरता से आजिज आकर कभी-कभार कर्मकांड पर तीखा प्रहार भी करते हैं। सूफी साधकों की विद्रोही उक्तियों का आगे चल कर फारसी और उर्दू के शायरों पर खासा प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन सूफी साधकों की यह विशेषता है कि वे खंडन-मंडन में न लग कर अपने धार्मिक आचरण में प्रेम और उदारता की प्रतिष्ठा में ही संलग्न रहते हैं। यह अलग विषय है कि सूफी खुद कई संप्रदायों में विभक्त रहे हैं और सूफीवाद का पाखंड भी पर्याप्त प्रचलन में रहा है जो आज भी जारी है।

-प्रेम सिंह
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून २०१० अंक में प्रकाशित

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