लोकतंत्र की गरिमा को जीभ के स्वाद पर कीमत लगवा रहे हैं
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
आजकल रोज़ा खोलने की सहज मजहबी परंपरा जो कि अफ़्तारी कहलाती है राजनैतिक पार्टियों की चटोरे लोगों की शाम की पार्टी में बदल चुकी है जहाँ आप कबाब से लेकर टिक्का तक उड़ा सकते हैं बस बदले में एक वोट देना होगा। थू है ऐसे चटोरे लोगों की थाली में जो लोकतंत्र की गरिमा को जीभ के स्वाद पर कीमत लगवा रहे हैं। आजकल सच पूछा जाए तो इस तरह की अफ़्तार पार्टियाँ मजहबी न होकर सोशलनेटवर्किंग का हिस्सा बन चुकी हैं। कोई भी मुसलमान ये समझता क्यों नहीं कि लालू प्रसाद यादव से लेकर मुलायम सिंह और अटल बिहारी बाजपेयी से लेकर बरनाला तक क्यों इस तरह की "अफ़्तार पार्टियाँ" रखते हैं? चटोरे और सौदेबाज लोग वहाँ मुर्गी की टांग चबाते हुए अपने अपने काले कारनामों की बातें करते हैं इस तरह सीधे मजहबी परंपरा का मखौल होता है और कोई भी इसे बुरा नहीं मानता। चल रहा है चलता रहेगा लेकिन हम तो बोलेंगे जरूर कि क्यों नहीं कोई राजनैतिक पार्टी कृष्ण जन्मोत्सव में इतना पैसा खर्च करती??
जय जय भड़ास
4 टिप्पणियाँ:
KISI NE SACH KAHA HAI..DUNIYA ME DO TARAH KE LOG HOTE HAIN..
EK JO JINE KE LIYE KHATE HAIN
DUSRE JO SIRF KHANE KE LIYE JITE HAIN.
TO IS HISAB SE GURUJI DUSARI CATEGARY KE LOG JYADA HO GAYE HAIN..JYADA KHAYENGE TO JAHIR SI BAT HAI DUSARO KI THALI SE ROTI UDAYENGE...
JAI BHADAS JAI JAI BHADAS
मनोज भाई आप सही कह रहे हैं कि दूसरी तरह के लोग ज्यादा हैं। अफ़्तार पार्टियों में वो ही लोग होते हैं जो रोजा रखते ही नहीं उन्हें पता ही नहीं होता कि सुबह सेहरी भी करा जाता है। ये सब नौटंकी है मुसलमान और हिंदू क्या सब मौकापरस्त और मतलब परस्त हैं इसलिये सब चल रहा है और चलता रहेगा।
जय जय भड़ास
काश हम भी रोज़े रख कर इन पार्टियों में चाट पोंछ सकते :)
जय जय भड़ास
सब साले अपना ईमान बेच चुके हैं काहे कि हिंदू और काहे के मुसलमान...
जय जय भड़ास
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