ऊर्जावान पत्रकारिता की युवा पहचान : मैनुद्दीन

गुरुवार, 28 जुलाई 2011



अक्सर ही उर्दू से संबंधित साहित्यिक कार्यक्रमों में आते-जाते एक युवक मिल जाया करता था। नज़रें मिलने पर उस युवक के चेहरे पर प्रसन्नता भरी मुस्कान दिख जाया करती और उसे देख कर मन ही मन मुझे जो खुशी होती वो मेरे भी होंठों पर बेसाख्ता आ जाती। कुछ दिनों बाद देखा कि वो युवक कार्यक्रमों में आने वाले विशिष्ट अतिथियों से कैमरामैन के साथ ई-टीवी उर्दू के लिये बातचीत कर रहा है। उर्दू से जुड़ा प्रत्येक साहित्यकार और सामाजिक कार्य करने वाला व्यक्ति इस युवक से भलीभाँति परिचित है। आप सब भी हमेशा उसकी शब्दों के चूस कर बोलने वाले अंदाज़ में पूछे गए सवालों को ई-टीवी उर्दू पर सुनते हैं। देखने में कुल मिला कर व्यक्तित्व ऐसा कि किसी टीवी सीरियल में काम करने वाला एकदम जाना पहचाना सा, गेंहुआ रंग, इकहरी काठी और लम्बा कद। ये किसी और के बारे में नहीं बल्कि हमारे ई-टीवी उर्दू के प्रतिनिधि श्री मैनुद्दीन के बारे में है।
श्री मैनुद्दीन जी से मेरी तमाम संक्षिप्त मुलाकातें तो होती ही रहीं, वे अपने काम में और मैं अपने काम में व्यस्त रहता लेकिन सौभाग्यवश के कार्यक्रम में हमें साथ एकांत में बैठने और बतियाने का मौका मिला। इस मौके पर पत्रकारिता से जुड़े दो लोगों के विचारों में आदान-प्रदान होना सहज ही था। मैने बस यूँ ही समय बिताने के लिये मैनुद्दीन को कुरेदना शुरू करा कि जरा पता तो चले कि युवा पत्रकार अपने पेशे के प्रति क्या नज़रिया रखते हैं। उनसे मैंने आदतन एक सवाल कर लिया कि पत्रकारिता में कैसे आ गए भाई क्योंकि मैं तो काम को (ईमानदारी से करी पत्रकारिता को) रामरोजगार मानता हूँ जिसमें कि व्यवसायिकता नहीं बल्कि निष्ठा से भरा हुआ समर्पण चाहिये। जबकि आजकल के माहौल में पत्रकारिता और समाचार व्यवसाय(न्यूज़ बिजनेस) इतना घुलमिल गए हैं कि पत्रकारिता का अध्ययन करने वाले नए छात्र ये समझ ही नहीं पाते कि पत्रकारिता का सही स्वरूप क्या है और कोई भी सूचना किस तरह से पत्रकारिता की छलनी से छन कर समाचार का रूप ले लेती है जो कि अत्यंत व्यापक प्रभाव पैदा करती है। इस बात पर श्री मैनुद्दीन ने अत्यंत सहज भाव से बताया कि बचपन से वे अपने पिताजी के साथ घर के बाहर बने उस चबूतरे पर शाम को बैठा करते थे जिस पर गाँव के तमाम लोग चर्चाएं और विचार-विमर्श करने के लिये जमा हुआ करते थे यानि कि एक प्रकार की चौपाल जमा करती थी। घटनाओं पर चर्चाएं, उन घटनाओं पर सबका अपना-अपना भिन्न दृष्टिकोण जताना और आपस के बहस-मुबाहिसों को श्री मैनुद्दीन ने बचपन से बड़े ध्यान से देखा और किशोरावस्था तक समझना भी शुरू कर दिया। बस यहीं से उन्होंने अपने कैरियर के प्रति निर्णय लिया कि जिन अखबारों और टीवी चैनलों को देख कर लोग राय कायम करते हैं वहाँ तक पहुंचना है तो पत्रकारिता को पढ़ना होगा। फिर क्या था मालेगाँव से मुम्बई आ गए और पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में प्रवेश लेकर पत्रकारिता की बारीकियाँ अपने गुरुओं से सीखना शुरू कर दिया। कई एक मीडिया पड़ावों से गुज़रते हुए इस तरह वे आजकल ई-टीवी उर्दू को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मीडिया के व्यवसायीकरण का ग्रहण पत्रकारिता के मूल स्वरूप पर जिस तरह लग रहा है उसकी चिंता जताते हुए मैंने उन्हें थोड़ा और कुरेदने की कोशिश करी कि वे खुद एक पत्रकार होने की हैसियत से कितना स्वतंत्र पाते हैं। इस पर उन्होंने स्पष्ट करा कि यदि पत्रकार इस हद तक स्वतंत्र न होते कि वे खुल कर बिना किसी दबाव के काम कर सकें तो देश में होने वाले इतने बड़े-बड़े घोटाले और अनियमितताएं आज जनता के सामने नहीं आ पाते। मीडिया हाउस निःसंदेह ही विज्ञापनों से होने वाली आय से चलते हैं लेकिन बड़ी घटनाएं आजकल निजी स्वार्थ के चलते दबाई नहीं जा सकती हैं क्योंकि ये क्षेत्र इतना व्यापक है कि यदि आप उस खबर को सामने नहीं लाएंगे तो कोई दूसरा ला ही देगा और आप मजबूरी में उस घटना को बाद में प्रकाश में लाने की बासी कोशिश करेंगे तो बेहतर रहता है कि आप समय का ध्यान रखते हुए निजी हितों से ऊपर सोचें। बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैंने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के संचालकों के आपसी वैचारिक टकरावों और वेतन आदि की अनियमितताओं पर भी जानना चाहा तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि इन सबके बावजूद भी पत्रकारिता की मूल आत्मा प्रभावित नहीं होती है जिसे ईमानदारी से पत्रकारिता करना है वह पत्रकार जूझते हुए भी आगे बढ़ता है लेकिन अपना काम बदल कर किसी अन्य व्यवसाय में नहीं लग जाता। टीवी पत्रकारिता आदि की बात करते हुए मैंने कहा कि जैसा कि परिभाषा के तौर पर कहा जाता है कि समाचार जल्दी में लिखा साहित्य है लेकिन वहीं दूसरी ओर कहा जाता है कि जल्दी का काम शैतान का.... तो आप इन विरोधाभासी विचारों में कैसे सामञ्जस्य करेंगे। इस पर उन्होंने कल्पनाशीलता और विवेकवान लेखन के बीच एक बहुत पतली सी वैचारिक विभाजन की रेखा बनाते हुए उत्तर दिया कि पत्रकार और साहित्यकार समय के दो भिन्न-भिन्न आयामों में रहते हैं, इस संबंध में तात्कालिक सूचना को समाचार बनाने में जो विवेक शामिल रहता है वही एक साधारण व्यक्ति और एक पत्रकार को अलग अलख वर्गीकृत करता है।
ढेर सारी बातों के साथ एक दूसरे को करीब से समझने का और मात्र परिचय को मित्रता के प्रगाढ़ संबंध तक ले जाने का जो मौका मिला वह सौभाग्य ही है क्योंकि मुंबई शहर की व्यस्तता तो वैसे भी संबंधों को निगल जाती है। मैं मैनुद्दीन के सफल पत्रकारिता जीवन की कामना करता हूँ कि वे इन्हीं आदर्शों पर डटे रह कर पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहें और ईश्वर उनके सारे मार्ग प्रशस्त करे।
जय जय भड़ास

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