अन्ना के आन्दोलन की तस्वीर का दूसरा रूख

सोमवार, 22 अगस्त 2011


सबसे पहले पाठकों को मैं यह साफ़ कर दूं कि मैं जन लोकपाल बिल को इसी रूप में शत प्रतिशत लागू करवाने का पक्षधर हूँ और श्री अन्ना हजारे जी के अनशन और आन्दोलन का समर्थक हूँ. मुझे अन्ना और उनकी टीम के इमानदार और देशभक्त होने पर कोई संदेह नहीं है. पर घटनाक्रम जिस तरह से मोड़ ले रहे हैं, बड़ी असमंजस की स्थिति बनी हुई है.

आज अन्ना के अनशन का छठा दिन है. अन्ना का आन्दोलन अब परवान चढ़ चुका है. पूरे देश भर में अन्ना के नाम की धूम मची है. जनता खुश है कि आन्दोलन सफल हो रहा है और अनशन चल रहा है. सरकार डरी सहमी नजर आ रही है. सरकार की तरफ से अन्ना पर हमला बन्द हो चुका है. जो कुछ दिनों पहले तक अन्ना को सर से लेकर पैर तक भ्रष्टाचार में डूबे दिखाई दे रहे थे, जिनकी सेना में की गई सेवा पर उंगलियाँ उठाई जा रहीं थीं, गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे थे. अब एकाएक सत्तारूढ़ दल के लोगों को उन अन्ना के प्रति प्यार और श्रद्धा से ओत प्रोत देखा जा रहा है. पर यह सब कुछ एक सोची समझी साजिश के अंतर्गत हो रहा है.

मीडिया रात दिन लगातार अन्ना को महानायक बनाकर प्रस्तुत किये जा रहा है. आखिर करे क्यों नहीं, २ मिनट कार्यक्रम के बाद कम से कम १० मिनट के विज्ञापन जो मिल रहे हैं. कुछ लोगों के लाइव कैमरे के सामने इस जन आन्दोलन पर विचार मांगने पर एक भाई ने यहाँ तक कह डाला की मनमोहन सिंह अपने पोते पोतियों को कैसे मुंह दिखाते हैं? मनमोहन सिंह के प्रति इस ह्रदय की आवाज पर चैनल का पत्रकार क्षमा मांगते नजर आया, जिसका कोई तुक मुझे नहीं नजर आया. शायद देश के कई करोड़ लोग इस बात से सहमत हों. इसके लिए पिछले एक वर्ष का घटनाक्रम जिम्मेदार है. मैं स्वयं निजी तौर पर कांग्रेस और नेहरु के परिवारवाद का घोर विरोधी था पर श्री मनमोहन सिंह जी के प्रति मन में अत्यंत श्रद्धा थी. पर पिछले एक वर्षों के घटनाक्रम ने सबकुछ बदल कर रख दिया. खैर ये अलग मामला है, लौटते हैं मुख्य विषयवस्तु पर और बात करते हैं रामलीला मैदान के इतिहास, धरने और मीडिया के सौतेले रूख की.

इसी रामलीला मैदान पर २३ फ़रवरी २०११ को देश के लगभग सारे बड़े मजदूर संगठनों का आन्दोलन था. लाखों लोग आये. इस तरीक़े से ये कहने की कोशिश हुई कि अगर कामगार वर्ग का जीवन सुधारा जाए तो आर्थिक मंदी से निबटने की ये एक सही रणनीति हो सकती है. पर मीडिया ने कहा कि इस धरना प्रदर्शन से लोगों को घरों से कार्यालय और कार्यालय से घर जाने में दिक्कत हुई. आम जनता का जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया. जैसे गरीब कामगार मजदूर आम जनता के हिस्सा नहीं हैं और वे मौज मजे के लिए अपना घर, काम धंधा छोड़कर धरना प्रदर्शन करने गए थे.

इसी रामलीला मैदान पर २७ फरवरी २०११ को लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई थी भ्रष्टाचार और व्यस्था परिवर्तन के आन्दोलन के लिए जिसमें स्वयं अन्ना जी, किरण बेदी जी, अरविन्द केजरीवाल जी के अलावा अन्य कई बड़े नेता, समाजसेवी, धार्मिक नेता, धर्मगुरु उपस्थित थे. उस आन्दोलन, धरना प्रदर्शन का एक भी समाचार किसी भी समाचार चैनल पर नहीं दिखा. वहीं से पूर्व आयकर अधिकारी श्री विश्व बन्धु गुप्ता जी ने बड़े बड़े खुलासे किये. पर कहीं कोई खबर नहीं दिखी, मीडिया खामोश रही.

फिर आया ४ जून. मीडिया ने ४ जून के पहले तो बाबा रामदेव को खूब दिखाया, हीरो बनाया, पर एकाएक उलटी गंगा बहने लगी. सबके सुर बदल गए. बाबा का आन्दोलन मीडिया और सरकार को साम्प्रदायिक लगने लगा. बाबा आर एस एस का मुखौटा पहने कठपुतली नजर आने लगे. बाबा के अनशन पर उंगलियाँ उठने लगीं. बाबा का शामियाना लोगों को पांच सितारा स्थान लगने लगा था. वस्तुतः हर जगह मीडिया सरकार का मुखौटा नजर आने लगी. रात को जब निरीह जनता पर लाठी और आंसू गैस के गोले छोड़े गए, स्टेज पर आग लगाई गई, आग बुझानेवालों को बुरी तरह से पहचानकर पीटा गया, महिलाओं को शौचालय से घसीट घसीट कर मारा गया, उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया, और अँधा धुन्ध आंसू गैस के गोले छोड़े गए, इन सब को मुख्य मुद्दा और सरकार द्वारा किया गया महा अपराध बनाने के बजाय बाबा रामदेव को महिला के कपडे में भागने को सरकार और मीडिया द्वारा अपराध घोषित कर दिया गया. उस समय देश भर में धरना प्रदर्शन किया गया पर मीडिया ने उस प्रकार से प्रचारित नहीं किया बल्कि उसे बाबा रामदेव के विरुद्ध माहौल बनने का प्रयास किया गया. कहा गया की बाबा ने गिरफ्तारी नहीं दी, जबकि बाबा के बार बार गिरफ्तारी देने की बात पुलिस ने नहीं सुनी और अत्याचार नहीं रोका. बाबा के ट्रस्ट और व्यापारिक संस्थान (मैं उसे समाजसेवा और देशसेवा का संस्थान मानता हूँ) के संपत्ति और क्रियाकलापों पर उंगलियाँ उठने लगीं. और तो और, इतने बड़े काण्ड पर अमेरिका को यह भारत का आतंरिक मामला लगा.

पर १६ अगस्त का घटनाक्रम एकदम अलग है. मीडिया तो गुणगान कर ही रही है, अमेरिका ने भी आन्दोलन में अपनी नाक घुसेड़ना उचित समझा और अपनी नसीहत दे डाली. जबकि सरकार ने कोई जोर जबरदस्ती या ज्यादती न तो अन्ना जी पर की, न ही जनता पर. कुल मिलाकर शक की सूई मीडिया, सरकार और विदेशी पूंजीवादियों की तिकड़ी पर जा रही है. ये सब मिलकर क्या गुल खिला रहे है, यह समझना आम जनता के लिए टेढ़ी खीर हो सकता है, पर किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषन सरीखे विद्वानों और बुद्धिजीवियों के लिए नहीं. क्या वे राजनीति और व्यापार की साजिश से वे सचमुच अनभिज्ञ हैं या उन्हें लोकपाल से ज्यादा कुछ और समझने की दूरदृष्टि नहीं है? अगर वे सब समझ रहे हैं तो फिर वे इस तिकड़ी की चालों से बचने के लिए क्या कर रहे हैं, यह एक चर्चा और चिंतन का विषय है.

मीडिया को इस आन्दोलन से कुछ नहीं लेना देना है. भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से उनको कोई दुश्मनी नहीं है. उनका काम है टी आर पी बढ़ता रहे, विज्ञापन आत़े रहें, मुनाफा आता रहे बस.

सरकार और विपक्ष दोनों की रणनीति किसी प्रकार से ऐसे क़ानून को लाने की है, जिससे खानापूर्ति हो जाए, वाहवाही मिल जाए कि इस संसद ने ऐतिहासिक काम कर दिखाया, इस सरकार ने दशकों से अधर में लटके लोकपाल को पारित कर दिया. उस कानून में इतने छेद हों कि उसे राजनेता अपने प्रकार से समय आने पर तोड़ मरोड़ कर अपना उल्लू सीधा कर सकें. आखिर सरकार चलाना राजनेताओं का ही काम है न. जनता और बुद्धिजीवियों को क्यों राज काज में रुचि होनी चाहिए?

जहां तक विदेशी पूंजीवादियों का सवाल है, भारत उनके लिए बाजार मात्र है. यहाँ ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे उनके सामानों कि बिक्री पर असर पड़े. यहाँ कोई जन आन्दोलन ऐसा न हो, सामाजिक व्यस्थाए ऐसी न हों जिससे भारत आत्मनिर्भर हो सके. यहाँ का सामाजिक ताना बाना मजबूत हो, आम जन का जीवन स्तर, स्वास्थ्य का स्तर ऊपर उठ सके. बाबा रामदेव का आन्दोलन सिर्फ भ्रष्टाचार का आन्दोलन नहीं बल्कि एक सामाजिक आन्दोलन भी है. उनके उत्पादों का बाजार में दिनोदिन ज्यादा बिकना विदेशी कंपनियों के लिए खतरा बन चुका है. उनके ग्रामोत्थान और स्वदेशी के विचार मात्र से ही विदेशी लुटेरी कम्पनियाँ और सत्ता के दलाल चिढ़े बैठे हैं.

इन तीनों नजरिए से देखने पर लगता है कि अन्ना का आन्दोलन इन सबके लिए लाभदायक है. अन्ना के आन्दोलन से एक तीर से दो शिकार हो रहे हैं. टीम अन्ना ने अपने आपको बाबा रामदेव से बिलकुल अलग कर लिया है, और अपने रास्ते को ही गांधीवादी रास्ता मान कर चल रहे है. परन्तु देखा जाए तो बाबा रामदेव का रास्ता और आन्दोलन भी इसी उद्देश्य के लिए था. बल्कि उसमें कुछ शर्तें और सिद्धांत और भी बेहतर भारत के निर्माण के लिए थीं. मजबूत लोकपाल (टीम अन्ना वाला) तो एक मुद्दा था ही, स्विस और अन्य विदेशी बैंकों में जमा भारत का पैसा सबसे बड़ा मुद्दा था. इससे बहुत बड़ा नुकसान विदेशी पूंजीनिवेशकों, जोंक की तरह हमारे पैसे पर चलने वाली विदेशी सरकारों और विदेशी कंपनियों पर तो होने ही वाला था, यहाँ की आम जनता का खून चूसनेवाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं की भी शामत आनेवाली थी. बाबा रामदेव ऊपर बताये गए तीनों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं. ४ जून की घटना के बाद बाबा रामदेव और भी अधिक ताकत से अपना आन्दोलन तेज करने की योजना बना रहे थे. सरकार ने अपना दांव बड़े ही सधे तरीके से खेला. टीम अन्ना को जैसे तैसे बाबा रामदेव से किनारा करने के दांव खेले और सफलता भी मिली. अब आन्दोलनकारी और जनता बंटे हुए हैं. जान बूझ कर अन्ना को हीरो बनाने के लिए सरकार, मीडिया और विदेशी पूंजीवादी खेल खेल रहे हैं ताकि लोगों का ध्यान बाबा रामदेव से हट कर रहे जो उनके लिए एक बड़ा खतरा बन कर उभरे हैं. इस बारे में कोई दो राय नहीं कि टीम अन्ना पर किसी को शक नहीं होना चाहिए, पर उनको एक बड़े खेल का मोहरा बनने से बचने के लिए खुलेआम बाबा रामदेव के साथ और समर्थन का एलान भी कर देना चाहिए. इससे देश को बचाने का आन्दोलन भी मजबूत होगा और सरकार और पूंजीवादियों की बाबा रामदेव के आन्दोलन की शक्ति को काम करने की चाल भी नाकामयाब होगी. सरकार के शर्तों पर आन्दोलन करके न तो कोई सफल हुआ है और न होगा. बाबा रामदेव के सरकार के सबसे बड़े दुश्मन बन जाने का कारण भी यही था कि दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उन्होंने सरकार की शर्तों पर खेल का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया था. टीम अन्ना भी दूरदर्शिता का परिचय दे और देश में उठ रही आन्दोलन की आंधी को कमजोर होने से बचा ले.

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1 टिप्पणियाँ:

sanjay ने कहा…

भाई ये दूसरा नहीं बल्कि पहला रुख है तस्वीर का...
जय जय भड़ास

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