NGO and their activities

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

संदीप पाण्डे और मेधा पाटकर के नेतृत्व में NGO गैंग वाले, AFSPA कानून और भारतीय सेना के अत्याचारों(?) के खिलाफ़ कश्मीर से मणिपुर तक एक रैली निकाल रहे हैं। कुछ सवाल उठ रहे हैं मन में -

1) जब तक कोई NGO छोटे स्तर पर काम करता है तब तक तो "थोड़ा ठीक" रहता है, परन्तु जैसे ही उसे विदेशी चन्दा मिलने लगता है, और वह करोड़ों का आसामी हो जाता है तो वह भारत विरोधी सुर क्यों अपनाने लगता है? यह विदेशी पैसे का असर है या "हराम की कमाई की मस्ती"।

2) NGO वादियों की इस गैंग ने हज़रतबल दरगाह पर शीश नवाकर इस यात्रा की शुरुआत की…। मैं जानना चाहता हूँ कि ऐसे कितने मूर्ख हैं, जिन्हें इसके पीछे का "देशद्रोही उद्देश्य" न दिखाई दे रहा हो?

3) इस घोर आपत्तिजनक यात्रा के ठीक पहले प्रशांत भूषण का बयान किसी सोची-समझी साजिश का हिस्सा तो नहीं? "(अन) सिविल सोसायटी" के अधिकतर सदस्य गाहे-बगाहे ऐसे बयान देते रहते हैं, जिनके गहरे राजनैतिक निहितार्थ होते हैं, शायद इसी उद्देश्य के लिए इन "शातिरों" ने बूढ़े अण्णा का "उपयोग" किया था…?

देश में पिछले कुछ महीनों से NGOs प्रायोजित आंदोलनों की एक सीरीज सी चल रही है, आईये पहले हम इन हाई-फ़ाई NGOs के बारे में संक्षेप में जान लें…


NGOs की "दुकान" जमाना बहुत आसान है…। एक NGO का गठन करो, सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देकर रजिस्ट्रेशन एवं प्रोजेक्ट हथियाओ… अपने राजनैतिक आकाओं को की चमचागिरी करके सरकारी अनुदान हासिल करो… शुरुआत में 4-6 प्रोजेक्ट "ईमानदारी" से करो और फ़िर "अपनी असली औकात, यानी लूट" पर आ जाओ। थोड़ा अच्छा पैसा मिलने लगे तो एक PR एजेंसी (सभ्य भाषा में इसे Public Relation Agency, जबकि खड़ी बोली में इसे "विभिन्न संस्थाओं को उचित मात्रा में तेल लगाकर भाड़े पर आपकी छवि बनाने वाले" कहा जाता है) की सेवाएं लो… जितनी बड़ी "तलवा चाटू" PR एजेंसी होगी, वह उतना ही बड़ा सरकारी अनुदान दिलवाएगी। महंगी PR एजेंसी की सेवाएं लेने के पश्चात, आप मीडिया के भेड़ियों से निश्चिंत हो जाते हैं, क्योंकि यह एजेंसी इन्हें समय-समय पर उचित मात्रा में हड्डी के टुकड़े देती रहती है। जब PR एजेंसी इस फ़र्जी और लुटेरे NGO की चमकदार छवि बना दे, तो इसके बाद "मेगसेसे टाइप के" किसी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ बैठाई जाती है। एक बार ऐसे किसी पुरस्कार की जुगाड़ लग गई तो समझो ये "गैंग" दुनिया की किसी भी सरकार को गरियाने के लाइसेंसधारी बन गई। इससे जहाँ एक ओर इस NGOs गैंग पर विदेशी "मदद"(???) की बारिश शुरु हो जाती है, वहीं दूसरी ओर सरकारों के नीति-निर्धारण में आए दिन टाँग अड़ाना, विदेशी आकाओं के इशारे पर सरकार-विरोधी मुहिम चलाना इत्यादि कार्य शुरु हो जाते हैं। इस स्थिति तक पहुँचते- पहुँचते ऐसे NGOs इतने "गब्बर" हो जाते हैं कि इन पर नकेल कसना बहुत मुश्किल हो जाता है…। भारत के दुर्भाग्य से वर्तमान में यहाँ ऐसे "गब्बर" टाइप के हजारों NGOs काम कर रहे हैं…।

संदीप पाण्डे जी के NGOs के बारे में और जानकारी अगले कुछ दिनों में दी जाएगी, तब तक इनकी "कलाकारी" का छोटा सा नमूना पेश है -

इन "सज्जन" ने 2005 में भारत-पाकिस्तान के बीच मधुर सम्बन्ध बनाने के लिए भी एक "पीस मार्च" आयोजित किया था (ज़ाहिर है कि "सेकुलरिज़्म का कीड़ा" जोर से काटने पर ही ऐसा होता है), यह पीस मार्च उन्होंने 23 मार्च 2005 से 11 मई 2005 के दौरान, दिल्ली से मुल्तान तक आयोजित किया था। इस पीस मार्च का प्रारम्भ इन्होंने ख्वाज़ा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर शीश नवाकर किया (जी हाँ, वही सेकुलरिज़्म का कीड़ा), और यात्रा का अन्त मुल्तान में बहदुद्दीन ज़कारिया के मकबरे पर किया था (इसीलिए अभी जो AFSPA के विरोध में यह "यात्रा" निकाली जा रही है, उसकी शुरुआत हज़रत बल दरगाह से हो रही है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है…)।

खैर हम वापस आते हैं NGOs गैंग की कलाकारी पर…

दिल्ली से वाघा सीमा कितने किलोमीटर है? मेरे सामान्य ज्ञान के अनुसार शायद 450-500 किमी… यानी आना-जाना मिलाकर हुआ लगभग 1000 किमी। यदि एक घटिया से घटिया चौपहिया गाड़ी का एवरेज 10 किमी प्रति किमी भी मानें, तो 100 लीटर पेट्रोल में दिल्ली से वाघा की दूरी (आना-जाना) तय की जा सकती है। सन 2005 के पेट्रोल भाव को यदि हम 40 रुपये मानें तो लगभग 4000 रुपये के पेट्रोल खर्च में एक गाड़ी दिल्ली से वाघा सीमा तक आ-जा सकती है, यदि दो गाड़ियों का खर्च जोड़ें तो हुआ कुल 8000/-। लेकिन पीस मार्च के "ईमानदार" NGO आयोजकों ने दिल्ली-वाघा आने-जाने हेतु दो वाहनों का "अनुमानित व्यय" (Estimate) लगाया 1 लाख रुपये…। अब सोचिये, जो काम 8000 रुपये में हो रहा है उसके लिए बजट रखा गया है एक लाख रुपए, तो फ़िर बचे हुए 92,000 रुपए कहाँ जा रहे होंगे? ज़ाहिर है कि इस अनाप-शनाप खर्च में विभिन्न "एकाउण्ट्स एडजस्टमेण्ट" किए जाते हैं, कुछ रुपये विदेशी दानदाताओं की आँखों में धूल झोंककर खुद की जेब में अंटी भी कर लिया जाता है। अधिकतर NGOs का काम ऐसे ही मनमाने तरीकों से चलता है, इन "फ़ाइव स्टार" NGOs के उच्चाधिकारी एवं कर्ताधर्ता अक्सर महंगे होटलों में ठहरते हैं और हवाई जहाज़ के "इकोनोमी क्लास" में सफ़र करना इन्हें तौहीन लगती है… (विश्वास न हो, तो अग्निवेश के आने-जाने-ठहरने का खर्च और हिसाब जानने की कोशिश कीजिए)।

2005 में आयोजित इस "भारत-पाकिस्तान दोस्ती बढ़ाओ" वाली "पीस मार्च" में पोस्टरों पर 2 लाख रुपये, दो वाहनों के लिए एक लाख रुपये (जैसा कि ऊपर विवरण दिया गया), अन्य यात्रा व्यय ढाई लाख रुपये, उदघाटन समारोह हेतु 1 लाख रुपए, यात्रा में लगने वाले सामान (माइक, सोलर लाइट इत्यादि) हेतु 30 हजार तथा "अन्य" खर्च के नाम पर एक लाख रुपये खर्च किये गये…। ऐसे अनोखे हैं भारत के NGOs और ऐसी है इनकी महिमा… मजे की बात यह है कि फ़िर भी ये खुद को "सिविल सोसायटी" कहते हैं। एक बूढ़े को "टिशु पेपर" की तरह उपयोग करके उसे रालेगण सिद्धि में मौन व्रत पर भेज दिया, लेकिन इस "टीम (अण्णा)" का मुँह बन्द होने का नाम नहीं ले रहा। कभी कश्मीर पर तो कभी AFSPA के विरोध में तो कभी नरेन्द्र मोदी के विरोध में षडयंत्र रचते हुए, लगातार फ़टा हुआ है। यह बात समझ से परे है कि ये लोग सिर्फ़ जनलोकपाल, जल-संवर्धन, भूमि संवर्धन, एड्स इत्यादि मामलों तक सीमित क्यों नहीं रहते? "समाजसेवा"(?) के नाम पर NGOs चलाने वाले संदीप पाण्डे, मेधा पाटकर एवं प्रशांत भूषण जैसे NGOवादी, आए दिन राजनैतिक मामलों के फ़टे में टाँग क्यों अड़ाते हैं?

जनलोकपाल के दायरे से NGOs को बाहर रखने की जोरदार माँग इसीलिये की जा रही थी, ताकि चर्च और ISI से मिलने वाले पैसों में हेराफ़ेरी करके ऐसी घटिया यात्राएं निकाली जा सकें…। ये वही लोग हैं जिनका दिल फ़िलीस्तीनियों के लिए तो धड़कता है, लेकिन अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन बिता रहे कश्मीरी पण्डित इन्हें दिखाई नहीं देते…।

मजे की बात यह है कि इसी सिविल सोसायटी टीम की एक प्रमुख सदस्या किरण बेदी ने AFSPA कानून हटाने का विरोध किया है क्योंकि वह एक पुलिस अफ़सर रह चुकी हैं और जानती हैं कि सीमावर्ती राज्यों में राष्ट्रविरोधियों द्वारा "क्या-क्या" गुल खिलाए जा रहे हैं, और सुरक्षा बलों को कैसी विपरीत परिस्थितियों में वहाँ काम करना पड़ता है, लेकिन अरुंधती, संदीप पाण्डे और गिलानी जैसे लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है… उनकी NGO दुकान चलती रहे बस…!!!

बात निकली ही है तो पाठकों की सूचना हेतु बता दूँ, कि अफ़ज़ल गुरु को माफ़ी देने और "जस्टिस फ़ॉर अफ़ज़ल गूरू" (http://justiceforafzalguru.org/) नाम के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में संदीप पाण्डे महोदय, अरुंधती रॉय, गौतम नवलखा, राम पुनियानी, हर्ष मन्दर इत्यादि सक्रिय रूप से शामिल थे…। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि अमेरिका में ISI के एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई से पैसा खाकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी राग अलापने में भी इन्हीं NGOs की गैंग के सरगनाओं के नाम ही आगे-आगे हैं (यहाँ पढ़ें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/07/ghulam-nabi-fai-isi-agent-indian.html इसी से समझा जा सकता है कि इन NGOs की डोर देश के बाहर किसी दुश्मन के हाथ में है, भारत के लोकतन्त्र में इन लोगों की आस्था लगभग शून्य है, भारतीय सैनिकों के बलिदान के प्रति इनके मन में कतई कोई श्रद्धाभाव नहीं है…। इस प्रकार के NGOs भारत की जनता की गाढ़ी कमाई तथा देश के भविष्य पर एक जोंक या पिस्सू की तरह चिपके हुए हैं…

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ज्यादा बड़ा न करते हुए, फ़िलहाल इतना ही…। NGOs की देशद्रोही तथा आर्थिक अनियमितताओं भरी गतिविधियों पर अगले लेख में फ़िर कभी…


विशेष :- "पिस्सू" के बारे में अधिक जानकारी हेतु यहाँ देखें… http://kudaratnama.blogspot.com/2009/08/blog-post_11.html

इस लिंक पर जानकारी लेने के बाद एक पाठक की टिप्पणी भी पढ़ें:
गिरिजेश राव said...

दिल्ली में एक जगह है जहाँ 542 पिस्सू एक साथ रहते हैं। उनके उन्मूलन की विधि पर एक लेख लिखें।

नेट डाउन है। मोबाइल से जोड़ कर भेज रहा हूँ क्यों कि 'पिस्सुओं' की समस्या अति गम्भीर है।

धन्यवाद।



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धन्यवाद एवं हार्दिक शुभेच्छा,

राकेश चन्द्र

प्रकृति आरोग्य  केंद्र

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