इस वर्ष के जमनालाल बजाज पुरस्कारों की घोषणा जमनालाल बजाज ट्रस्ट द्वारा कर दी गई है। प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी चार क्षेत्रों में इन पुरस्कारों की घोषणा की गई है। सर्वश्री अनुपम मिश्र को ग्राम विकास हेतु विज्ञान एवं तकनीक, रमेश भैया एवं विमला बहन, विनोबा आश्रम, शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश को रचनात्मक कार्य, शोभना रानाडे, पुणे को महिला, बाल कल्याण एवं विकास हेतु जानकीदेवी बजाज पुरस्कार एवं इंडोनेशिया की सुश्री आगस्ट इंदिरा उदयन को भारत से बाहर गांधी विचार के प्रसार हेतु प्रदान किया गया है। ज्ञातव्य है श्री अनुपम मिश्र नईदिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष के प्रभारी एवं द्वैमासिक पत्रिका 'गांधी मार्ग' (हिन्दी) के सम्पादक हैं। वे पूर्व में गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव पद पर भी कार्यरत रह चुके हैं। उन्होंने अनेक अविस्मरणीय पुस्तकें - 'देश का पर्यावरण', 'हमारा पर्यावरण', 'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदे' आदि का लेखन व सम्पादन किया है। इसी के साथ पेंग्युइन बुक्स ने उनके लेखों का संग्रह 'साफ माथे का समाज' का प्रकाशन किया है। श्री मिश्र विगत कई दशकों से पानी और समाज के अंतर पर विस्तृत अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने भारत के अनेक क्षेत्रों में समाज को पानी को सहेजने एवं संवारने में जोड़ा हैं। शुरुआती दिनों में उन्होंने म.प्र. के होशंगाबाद में मिट्टी बचाओ अभियान में भागीदारी की थी। उन्होंने हिमालय के क्षेत्रों एवं राजस्थान के रेगिस्तान में पानी के संरक्षण के लिए व ग्रामीण व देशज तकनीकों के उन्नयन के क्षेत्र में लगातार कार्य किया है।
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'आज भी खरे हैं तालाब' के दस साल के सफर पर कुछ खास
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शुक्रवार पत्रिका, अक्टूबर 2011
हिंदी भाषी परिवारों का आकार देखते हुए दो लाख की संख्या का भी बड़ा मतलब नहीं होना चाहिए लेकिन जब बात हिंदी किताब की बिक्री की हो तो यह सचमुच में यह आंकड़ा बहुत बड़ा है। एक जमाने में गुलशन नंदा जैसों के उपन्यास वगैरह की बिक्री के दावों को छोड़ दें तो आज के हिंदी प्रकाशन व्यवसाय के लिए दो हजार प्रतियों का बिकना भी किताब का सुपरहिट होना है। अब इसे अनुपम मिश्र और गांधी शांति प्रतिष्ठान का स्वभाव मानना चाहिए कि वे अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब की छपाई दो लाख पार करने पर न कोई शोर मचा रहे हैं, न विज्ञापन कर रहे हैं। अगर इस अवसर का अपना व्यावसायिक लाभ या कोई पुरस्कार वगैरह पाने की उम्मीद होती तो यह काम जरूरी होता लेकिन अनुपम मिश्र न तो पुरस्कारों की होड़ में हैं, न थे और न ही गांधी शांति प्रतिष्ठान किताब से कमाई को बढ़ाना चाहता है। पिछले 18 वर्षों में हर साल लगभग एक लाख रुपए कमा कर देने वाली इस किताब को गांधी शांति प्रतिष्ठान अब कीमत और मुनाफे के चक्कर से मुक्त कर रहा है। इस पुस्तक के एक प्रेमी और उनकी संस्था के सहयोग में अब जो संस्करण छप रहा है वह सिर्फ बिना मूल्य वितरण के लिए उपलब्ध है- वह भी योग्य और जरूरतमंद पाठक को, सिर्फ एक-एक प्रति देने के लिए।
वैसे, लेखक का नाम पहले पन्ने पर दिए बिना छपी इस किताब पर लेखक ने स्वयं की कॉपीराइट न रखने की घोषणा कर रखी है, सो आज इसके विभिन्न भाषाओं और 'ब्रेल-लिपि' के चालीस संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। पुस्तक में लेखक अनुपम मिश्र का नाम आलेख लेखक के तौर पर है, तो शीना और मंजुश्री का शोध और संयोजक के तौर पर तथा दिलीप चिंचालकर का नाम सज्जाकार के रूप में दिया गया है। अनुपम मिश्र किताब के कई ऐसे संस्करणों की सप्रमाण जानकारी देते हैं जो बिना अनुमति या जानकारी के छापे गए हैं और जिन्होंने किताब की मनमानी कीमत रखने से लेकर उसके स्वरूप तक के साथ छेड़छाड़ की है। इसमें हिंदी के कुछ बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक भी हैं जिन्होंने अपने छद्म प्रकाशन गृहों से इसे चुपचाप छापा फिर भी अनुपम मिश्र और गांधी शांति प्रतिष्ठान ने किसी को भी किताब या उसके किसी अंश को प्रकाशित करने से नहीं रोका, शर्त सिर्फ शुद्घ पाठ और स्वरूप के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करने की थी।
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