कौन गाड़ेगा पाखंड-खंडिनी पताका?

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

निकोलो मेकियावेली ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ 'राजकुमार' में लिखा है कि दुनिया में ठगाए जानेवालों की संख्या इतनी बड़ी है कि किस भी ठग को विशेष परिश्रम करने की जरूरत नहीं है। यह सत्य सिर्फ भारत पर ही लागू नहीं होता। सारी दुनिया पर लागू होता है। अंध-विश्वास और अंध-श्रद्धा का बोलबाला सारी दुनिया में है। आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में ठगी के अनेक रूपों पर प्रकाश डाला है, जिनके द्वारा राजा ही नहीं, साधु-संत भी मोटा पैसा इकट्ठा कर सकते हैं। लोग ठगे जाने के लिए इतने अधिक आतुर रहते हैं कि एक ढूंढो तो हजार मिलते हैं। इसीलिए किसी बाबा, किसी गुरू, किसी ज्योतिषी, किसी भविष्यवक्ता के माथे सारा ठीकरा फोड़ना उचित नहीं है। यदि वे अपने भक्तों को ठगना न चाहें तो भी भक्तगण उन्हें ठगाई के लिए मजबूर कर देते हैं। फिल्म 'गाइड' के देवानंद को गांव के लोगों ने कैसे मार-मारकर महात्मा बना दिया था, क्या आपको याद नहीं है। आप दुनिया के किसी भी देश में चले जाइए। आपको अंध-विश्वास का कोई न कोई प्रमाण अवश्य मिल जाएगा। ईसाई देशों में सिर्फ हाथ से छूकर बीमारी दूर करने का विश्वास इतना दढ़ है कि उसे धार्मिक मान्यता मिली हुई है। 'ओल्ड टेस्टामेंट' में यहोवा और मोज़ेस के चमत्कारों की कथाएं तो हैं ही, 'न्यू टेस्टामेंट' में वर्णित ईसा के स्पर्श पर कौन विश्वास नहीं करता है? मुस्लिम देशों में आपको ढेर सारे पीर, मुर्शिद, मुल्ला और फकीर मिल जाएंगे, जिनकी झाड़-फूंक पर लाखों लोग फिदा हैं। बौद्ध धर्म तो बड़ा तर्कसंगत धर्म है लेकिन बौद्ध देशों में भी अंध-विश्वास और पाखंड का काफी प्रभाव है। इस प्रभाव से साम्यवादी देश भी मुक्त नहीं रहे हैं। सोवियत संघ और माओ के चीन में भी मैंने ऐसे अनेक स्थल देखे हैं, जहां लोग मन्नत मांगने, आचमन करके बीमारी ठीक होने और अपना बिगड़ी बात बनवाने के लिए मूर्तियों, झरनों और पेड़ों के चक्कर लगाते हैं। अभी 15-20 साल पहले ही पश्चिम से एक मर्मभेदी खबर आई थी। एक 'चमत्कारी पुरूष' के इशारे पर 700 लोगों ने एक साथ जहर खाकर जान दे दी थी ताकि उनको दूसरे दिन ही स्वर्ग मिल जाए। ये लोग अपने जीवन से ठगे गए, क्योंकि इनका लोभ बहुत ही गहरा था। ये स्वर्ग चाहते थे। यदि कुछ लोग नौकरी चाहते हैं, अपना सिरदर्द ठीक करवाना चाहते हैं, बैंक से कर्ज चाहते हैं, अपने बच्चों की शादी चाहते हैं और कोई बाबा उनसे दो-चार हजार रूपए ठग लेता है तो इसमें बहुत बौखलाने की जरूरत क्या है? आपका लोभ जितना बड़ा होगा, आपकी ठगी भी उतनी ही बड़ी होगी।
ठगी का धंधा काफी मजेदार है। वह अपने आप चलता है। जो लोग ठगे जाते हैं, वे अक्सर चुप हो जाते हैं। अगर वे बोलेंगे तो घरवालों और बाहरवालों के सामने बेवकूफ बनेंगे। पैसे तो चले गए लेकिन अब इज्जत भी क्यों जाए? जो नए-नए लोग जाल में फंसते हैं, एक तो उनका लोभ अत्यंत उद्दाम होता है और दूसरा वे पहले से निराश लोगों के संपर्क में भी नहीं आते। ठग के दरबार से जितने लोग बाहर होते हैं, उससे ज्यादा अंदर होते जाते हैं। उसकी दुकान झन्नाट चलती रहती है। चलती ही नहीं, दौड़ती है। क्योंकि जिनके मनोरथ पूरे हो जाते हैं, वे उनका श्रेय अपने गुरू को देने के लिए बेताब हो जाते हैं। कृतज्ञता का भाव मनुष्यों में क्या, पशुओं में भी कम नहीं होता। कोई भी इस गहराई में नहीं जाता कि उसका कोई अधूरा संकल्प या काम पूरा कैसे हुआ? न्याय-दर्शन में इसे काकतालीय दोष कहते हैं। ताल वृक्ष की शाख बहुत मजबूत होती है। उस पर बंदर भी बैठ जाए तो वह नहीं टूटती है लेकिन ऐसा कैसे होता है कि उस पर कौआ बैठे और वह तड़ से टूट जाए? कारण स्पष्ट है। वह डाल सूख चुकी होती है लेकिन इसकी समझ तो तभी आएगी, जब आप उसके कारण में उतरेंगे। किसी भी कार्य के कारण में उतरने की क्षमता कितने लोगों में होती है?
जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू कहते हैं कि देश के 90 प्रतिशत लोग मूर्ख होते हैं तो उनकी बात बड़ी कड़वी लगती है। लेकिन इस बात के लिए यदि कार्यकारण में जाने की योग्यता को आधार बनाया जाए तो उनकी बात में काफी सच्चाई मालूम पड़ेगी। जिन 700 लोगों ने किसी पाखंडी के कहने से जहर खाया था, वे सब पढ़े-लिखे और संपन्न लोग थे। उनमें डाक्टर, वकील और प्रोफेसर भी थे। विश्वविद्यालय की उपाधियां प्राप्त कर लेने या पैसा कमा लेने से आप में बौद्धिकता का संचार हो जाए, यह जरूरी नहीं है। बिल्कुल बेपढ़ा-लिखा और नितांत गरीब आदमी भी परम बौद्धिक हो सकता है। वह तर्क का सहारा लिए बिना कोई बात नहीं मानेगा। कबीर और उपनिषद् का गाड़ीवान रैक्व, इसके जीवंत प्रमाण हैं। शिक्षित और संपन्न व्यक्ति लोभी नहीं होगा, कामी नहीं होगा, मोहापन्न और मदांध नहीं होगा, इसकी गारंटी कौन ले सकता है? ऐसे ही लोग इन मूर्ख और धूर्त बाबाओं के चेले सहर्ष बन जाते हैं।
इन मूर्ख और धूर्त बाबाओं के बोलबाले में हमारी टीवी चैनलों का योगदान सबसे अधिक है। एक-दो महत्वपूर्ण चैनलों को छोड़कर लगभग सभी चैनलों में आजकल कुख्यात हो रहे बाबा के कार्यक्रम नियमित दिखाए हैं। क्यों दिखाए हैं? इसलिए कि वे भी लोभ में फंसे हुए हैं। बाबा उन्हें विज्ञापन देता है और उसे वे खबर की तरह चलाते हैं? बाबा डाल-डाल तो वे पात-पात! बाबा जितना बड़ा धोखा करता है, उससे बड़ा वे करते हैं। बाबा से वे लाखों रू. रोज कमाते हैं और बाबा उनकी वजह से करोड़ों रू. रोज कमाता है। बाबा की धूर्तता तो एक चैनल (न्यूज़ एक्सप्रेस) ने जैसे ही उजागर की, बाबा को सजा मिलनी शुरू हो गई लेकिन चैनलों ने अभी तक अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं किया। पैसे और टीआरपी के चक्कर में फंसे हमारे चैनलों को अब शुभ-अशुभ और उचित-अनुचित का बोध भी नहीं रह गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कैसा सूक्ष्म और भयावह दुरूपयोग आजकल हो रहा है, इसका पता धीरे-धीरे पूरे राष्ट्र को लग रहा है।
जनता क्या करे, यह तो ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट हो ही जाता है लेकिन क्या सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे? हमारे कई राजनेताओं को मैंने पांखडियों के सामने नाक रगड़ते हुए अपनी आंखों से देखा है। ऊपर से परम शक्तिशाली दिखाई पड़नेवाले ये नेतागण अंदर से बहुत पंगु होते हैं। ये धूर्त बाबाओं के खिलाफ कार्रवाई कैसे करेंगे? वास्तव में ठगी करनेवाले सभी बाबा और गुरूओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। उनकी संपत्तियां जब्त होनी चाहिए और उन्हें जेल के सींखचों के पीछे डाल दिया जाना चाहिए। यदि उनमें कोई चमत्कारी शक्ति होगी तो वे अपने आप छूट जाएंगे। अपने देश में आर्यसमाज और दक्षिण में जो 'बुद्धिवादी संघ' जैसी संस्थाएं हैं, वे पाखंड-खंडिनी पताकाएं क्यों नहीं फहरातीं? नेताओं की तरह वे भी क्या कायर और डरपोक हो गई हैं? उन्हें क्या किसी से वोटों की भीख मांगनी है? पाखंड और अंधविश्वास को धर्म और श्रद्धा का जामा पहनानेवालों को आखिर निर्वस्त्र कौन करेगा?



नया इंडिया, 20 अप्रैल 2012 : कल मैंने लिखा था कि सियाचिन पर मियां नवाज़ शरीफ ने जो पहल की थी, उसे भारत को उछलकर थामना चाहिए। आज उससे भी बड़ी पहल हो गई। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज क़यानी ने न सिर्फ सियाचिन से फौजों की वापसी का बात दोहराई है बल्कि यह भी दो-टूक शब्दों में कहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व' होना चाहिए। ऐसी बातें कभी-कभी हम नेताओं के मुंह से तो सुनते हैं लेकिन फौज का सर्वोच्च अधिकारी यह बात खुले-आम कहे, यह अपने आप में स्वागत योग्य अजूबा है। इंदिराजी के जमाने में जिया-उल हक ने 'अयुद्ध संधि' की पहल की थी लेकिन उसमें बहुत-से पेंच थे। इसके अलावा 'अयुद्ध संधि' और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व' में जमीन-आसमान का अंतर है।
जनरल कयानी ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अपनी बात पर जोर इसलिए दिया है कि वे चाहते हैं कि दोनों देश समुचित विकास करें और दोनों देशों के साधारण लोगों की जरूरतें पूरी हों। सुरक्षा का अर्थ सिर्फ सीमा-सुरक्षा नहीं है, लोगों का विकास भी है। कयानी का यह बयान इतनी आशा पैदा करता है कि उन्हें भारत आने का सस्नेह निमंत्रण तुरंत भेजा जाना चाहिए।
उन्होंने सियाचिन में दबे अपने सिपाहियों के शवों को जब देखा होगा तो उनके दिल में वैराग्य जरूर पैदा हुआ होगा। उन्होंने नवाज़ शरीफ की तरह यह तो नहीं कहा कि सियाचिन से वापसी की पहल पाकिस्तान करे लेकिन दोनों देश करें, इस पर जोर दिया। सेनाध्यक्ष कयानी ने भारत और पाकिस्तान के करोड़ों लोगों की इच्छा को वाणी दी है। उन्होंने आसिफ ज़रदारी और मियां नवाज़ के बयानों पर मुहर लगा दी है। क्या भारत अब भी चूक जाएगा?

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