माओवादियों से कैसे निपटें

बुधवार, 2 मई 2012


छत्तीसगढ़ और ओडिशा के माओवादियों ने अपने बर्ताव से सिद्घ किया है कि वे न तो पाकिस्तान के तालिबान की तरह हैं और न ही फलस्तीन के उग्रवादियों की तरह! वे हिंसा का सहारा जरूर लेते हैं, महत्वपूर्ण लोगों का अपहरण भी करते हैं और उसके सहारे जमकर प्रचार भी पाते हैं लेकिन वे पत्थरदिल हत्यारे नहीं हैं| अपहत अफसरों या नेताओं की तत्काल हत्या करने की बजाय वे अपनी राजनीतिक या रणनीतिक मांगें मनवाने की कोशिश करते हैं| दूसरे शब्दों में वे चोर-डकैत नहीं हैं, मूलत: राजनीतिक लोग हैं| अगर उनके जीवन में कुछ आदर्श नहीं होते तो वे अपना जीवन इतने खतरे में क्यों डालते? अनेक माओवादी या नक्सलवादी लोग काफी संपन्न और सुशिक्षित परिवारों के युवा होते हैं| वे सारी सुख-सुविधा छोड़कर जंगलों और पहाड़ों में सड़ने क्यों जाते ?
जंगलों और पहाड़ों में उन्हें क्या मिलता है? वहां वे किसके लिए काम करते हैं? उन्हें पता है कि उन्हें नेताओं की तरह गद्दियां नहीं मिलनी है, उन्हें दलाली नहीं करनी है, उन्हें नोट नहीं गिनने है| वहां तो उन्हें गरीब आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़नी है| उन्हीं की तरह रहना खाना-पीना-सोना और उठना-बैठना है| पुलिस की गोलियों का शिकार भी बनना है| राजनीति वे भी कर रहे हैं लेकिन अपनी जान जोखिम में डालकर! उन्हें पता है कि उनकी टक्कर किससे है| जिस राज्य नाम की संस्था से उनकी टक्कर है, उसके पास फौज है, पुलिस है, नौकरशाही है, हथियार है और पैसा है| नक्सलवादियों को बेलेट की नहीं, बुलेट की राजनीति करनी है| उन्हें पता है कि राज्य को कभी परास्त नहीं कर सकते लेकिन फिर भी वे डटे हुए हैं|
तो क्या यह मान लिया जाए कि वे जो कर रहे हैं, वह सही है और राज्य को उनके आगे घुटने टेक देने चाहिए? हमारे अनेक उग्र वामपंथी बंधु यही मानते हैं| वे भावुक हैं, आदर्शवादी हैं, अव्यावहारिक हैं| उनके मन में कोई दुराशय नहीं है लेकिन वे किसी किताबी कल्पना-लोक में विहार करते हैं| जिन आदिवासियों की दुर्दशा पर वे आंसू बहा रहे हैं, क्या उन्होंने कभी सोचा कि उनकी यह दशा क्यों है? इसके दो कारण तो एकदम स्पष्ट हैं| पहला तो यह है कि अंग्रेज के ज़माने में यह भ्रम पैदा किया गया कि आदिवासियों के साथ ज्यादा मेल-जोल किया गया तो उनकी प्रजाति नष्ट हो जाएगी| उन्हें सभ्य समाज से दूर रखना ही बेहतर होगा| अंडमान-निकोबार के जारवा आदि कबीले आज भी पूर्ण नग्न और लगभग पाशविक जीवन बिता रहे हैं| यह इसी नीति का परिणाम है| कबीलों को सभ्यता से दूर रखने का दूसरा बड़ा कारण यह भी था कि उन्हें आसानी से ईसाई बनाया जा सके| अनेक विदेशी पादरियों ने हमारे नेताओं के गले यह बात इतनी अच्छी तरह से उतार दी थी कि देखते-देखते हमारा पूर्वांचल ईसाई हो गया| ईसाई होने या कोई भी नया धर्म स्वेच्छया स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमारे आदिवासियों को बि्रटिश राज्य ने अपने सम्राज्यवादी तोप का भूसा बनाया| उनके अत्यंत पिछड़ेपन का तीसरा कारण यह है कि आजाद भारत में जो भी लोग उनके इलाकों में गए, उन्होंने उनके भोलपन का फायदा उठाया और उनका शोषण उन्होंने अंग्रेजों से भी ज्यादा किया|
अब हमारे माओवादी क्या कर रहे हैं? उनका आशय तो बहुत अच्छा है लेकिन उनके सारे द्राविड़ प्राणायाम का नतीजा क्या निकल रहा है? आदिवासियों का विकास अवरूद्घ हो गया है| डर के मारे व्यापारी और शिक्षक उन क्षेत्रों में जाते ही नहीं| सरकारी कर्मचारी मजबूरी में वहां पहुंचते हैं तो या तो वे घर से बाहर ही नहीं निकलते या शीघ्रातिशीघ्र तबादले की जुगाड़ में लग जाते हैं| आदिवासियों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा उसी तरह उपलब्ध होनी चाहिए, जैसे देश के शेष नागरिकों को होती है लेकिन इस पवित्र लक्ष्य की पूर्ति में सबसे बड़ी बाधा कौन बन रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमारे माओवादी बंधुओं की तरफ से ही आना चाहिए| इसमें शक नहीं है कि माओवादियों ने ऐसे-ऐसे पहाड़ों और जंगलों में स्कूल और अस्पताल खोल रखे हैं, जहां अभी तक सरकार पहुंच भी नहीं पाई है लेकिन उनसे कोई पूछे कि यही काम करने के लिए वे सरकार को बाध्य करें तो क्या वह बड़े और बेहतर ढंग से नहीं होगा? क्या माओवादी बड़ी-बड़ी सड़कें, बांध, बिजलीघर और कारखाने बना सकते हैं? क्या वे आदिवासियों के लिए विश्वविद्यालय कायम कर सकते हैं? क्या वे रेल और हवाई जहाज चलवा सकते हैं? ये सब सुविधाएं हमारे आदिवासियों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? उनकी उपेक्षा इसीलिए होती रही कि आज तक कोई उनको प्रखर प्रवक्ता नहीं मिला| यदि माओवादी-नक्सलवादी लड़ाके सिर्फ आदिवासियों के प्रामाणिक प्रवक्ता बन जाएं तो वे केंद्र और राज्य सरकारों को हिलाकर रख सकते हैं| आदिवासी क्षेत्रों में इतनी अदोहित खनिज और वन्य संपदा है कि उसका दशांश भी उनके भले के लिए प्रयुक्त हो जाए तो उनका और भारत का, दोनों का उद्घार हो जाए|
यह आदर्श स्थिति प्राप्त करना आज आसान नहीं है, क्योंकि बंदूक-संस्कृति ने माओवादियों को पानी पर चढ़ा रखा है| उनके माथे पर ताकत का नशा सवार है| वे जानते हैं कि हमारे नेता लोग दब्बू हैं| वे केंद्र और राज्य के बीच भी झगड़ा डाले रहते हैं| आदिवासी क्षेत्रों में अपनी बादशाहत से माओवादी मुग्ध हैं| उसमें उनका निहित स्वार्थ भी विकसित हो सकता है लेकिन वे यह नहीं भूलें कि भारत में कुछ मुख्यमंत्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र की तरह भी हो सकते हैं, जिन्होंने बस्तर के राजा प्रवीणचंद्र भंजदेव को अत्यंत कठोर सबक सिखाया था| अब हमारे नक्सल-प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को तय करना है कि वे इतिहास में अपना नाम किस रूप में लिखाना चाहते हैं| माओवादियों की समस्त लोक कल्याणकारी मांगों को उन्हें तुरंत मानना चाहिए लेकिन उन्हें यह भी बता देना चाहिए कि इसके बावजूद अगर हिंसा जारी रही तो उसे रोकने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं| यह ठीक है कि भारत की सरकारें, इस्राइल, रूस और चीन की सरकारों की तरह बेरहमी नहीं दिखा सकतीं| अपराधियों को पकड़ने की प्रकि्रया में वह सैकड़ों निर्दोष नागरिकों को बलि नहीं चढ़ा सकतीं लेकिन क्या वे भारत को अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तरह अराजक राज्य बनने दे सकती हैं

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