YOU CAN KILL MAOIST BUT NOT MAOISM

बुधवार, 5 जून 2013



गोली से नही सुधारों से मरेगा माओवाद



-जयसिंह रावत-



छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले की दरबाघाटी की दिल दहला देने वाली माओवादी हिंसा के बाद एक बार फिर इस गम्भीर से गम्भीरतम् होती जा रही समस्या पर राष्ट्रव्यापी बहस तो शुरू हो गयी है मगर यह बहस असली मुद्दों तक अब भी नहीं पहुंच पा रही है। कुछ लोग फौज और पुलिस की बन्दूक की नालों से समस्या का समाधान निकालने की सलाह तक दे रहे हैं तो कुछ विकास की बात कर रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि यह कानून व्यवस्था की समस्या न हो कर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई है और परिवर्तन की वह चाह कहीं अन्यत्र से नहीं बल्कि हमारे लोकतंत्र की विकृतियों से पैदा हो रही है।



जब शरीर के किसी हिस्से में दर्द हो तो हम सामान्यतः दर्द निवारक दवा खा लेते हैं। इसी तरह बुखार आने पर चिकित्सकीय जांच के बगैर खुद ही पैरासिटम की गोली खा कर अपना इलाज करने की नादानी कर बैठते हैं। जबकि शरीर के ये कष्ट बीमारी न हो कर उसके लक्षण मात्र होते हैं। ठीक इसी तरह हम आज माओवाद का मर्ज जाने बिना पुलिस और फौज की बन्दूकों की नालों से दर्द निवारक गोलियां निकालने की वकालत कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि हम माओवादी को तो मार सकते हें मगर माओवाद को नहीं मार सकते। जिस तरह ट्यूबर क्लौसिस के वैसिली या विषाणु को सीधे मारने की दवा न होने के कारण उसे भूखा रख कर मारा जाता है, उसी तरह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकारों को दूर कर माओवाद को भी मुद्दा विहीन कर भूखे मारा जा सकता है। वैसे भी आदमी को तो मारा जा सकता है, मगर विचार को नहीं मारा जा सकता है। आज तक ऐसी बन्दूक नहीं बनी जो कि सीधे आदमी के दिमाग में घुस कर किसी विचार को मार सके।



इस बहस में कोई नक्सलवाद, को कानून व्यवस्था की कमजोरी बता कर उग्रवादियों के खिलाफ फौज को झोंकने की वकालत करता है तो कोई इसके लिये क्षेत्रीय असन्तुलन और कुछ इलाकों के पिछड़ेपन को जिम्मेदार बता कर उन इलाकों के सर्वांगीण विकास की पैरवी करता है। लेकिन यह कोई नहीं कहता कि माओवाद का यह विकराल चेहरा लोकतंत्र की विकृतियों से उपजा है और माओवादी केवल छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों के कुछ क्षेत्रों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों का विकास तक सीमित नहीं अपितु वे तिरूपति से पशुपति तक व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं। पिछड़े और आदिवासी इलाकों में काम करना तो केवल जड़ें जमाने के लिये है, वरना उनका मकसद सशस्त्र क्रांति के जरिये शोषित शासित सर्वहारा वर्ग की बुर्जुवा शोषक शासक वर्ग पर तानाशाही स्थापित करना है। आदिवासियों का सदियों से हो रहा शोषण और प्रचण्ड आदिवासी विद्रोहों की पृष्ठभूमि नक्सलवाद के लिये सबसे उर्वरक बनी हुयी है। संविधान में आदिवासियों के हितों के संरक्षण की गारण्टी दी गयी है, मगर फिर भी  उनका शोषण रुक नहीं रहा है। इसलिये आज ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जिसमें नक्सलवाद की बन्दूक के लिये शोषण, भूख, अत्याचार, भ्रष्टाचार, बीमारी और उपेक्षा की गोलियां और बारूद न मिल सके।



भारत सरकार ने विकास को बढ़ावा देने के लिए एकीकृत कार्य योजना के तहत सात राज्यों में नक्सलग्रस्त घोषित जिलों की संख्या 60 से बढ़ाकर 78 कर दी है। गृह मंत्रालय ने 33 जिलों को सर्वाधिक माओवादग्रस्त घोषित कर रखा है, जिनमें झारखण्ड के 10 और छत्तीसगढ़ के 7 जिले भी शामिल हैं। लेकिन स्थिति कहीं अधिक गम्भीर है। एक अनुमान के अनुसार भारत के 20 राज्यों के 220 जिलों में माओवादी या नक्सलवादी सक्र्रिय हो गये हैं। एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि देश के 604 प्रशासनिक जिलों में से 160 जिलों में नक्सली जड़ें जमा चुकेे हैं और इस लाल गलियारे में इनका लगभग 92,000 हजार वर्ग कि.मी. पर प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण हो गया है। विभिन्न गुटों में बंटे नक्सलियों के लगभग 20 हजार हथियारबन्द कामरेड या गुरिल्ला बताये जाते हैं और लगभग 50 हजार सक्र्रिय कार्यकर्ता इस विचारधारा को धरातल पर उतारने के लिये दिन रात एक किये हुये हैं। इनके समर्थकों की संख्या लाखों में मानी जा रही है। वैसे भी सामाजिक अन्याय के खिलाफ कभी लोग बीहड़ों में शरण ले कर बागी बनते थे तो अब माओवादी बन रहे हैं।



सन् 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन का कारण यह था कि उसका एक धड़ा लोकतांत्रित तरीके से ही सत्ता में पहुंचने पर विश्वास करता था जबकि दूसरा धड़ा सशस्त्र क्रान्ति के विकल्प को छोड़ने को तैयार नहीं था। यह धड़ा 1962 के युद्ध के लिये चीन को हमलावर मानने को भी तैयार नहीं था। पार्टी में विभाजन के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के रूप में नया दल अस्तित्व में आ गया। हालांकि  मार्क्सवादी पार्टी भी लोकतंत्र में रम गयी है और केरल में दुनियां की पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार बनाने का श्रेय भी उसी को जाता है फिर भी यह बात काबिले गौर है कि मतदाता ने नरमपन्थी भाकपा के बजाय उग्र माकपा को तरजीह दी है और उसी के नेतृत्व में केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वामपन्थी सरकारें अस्तित्व में आ पायीं। सन् 70 के दशक में नक्सलवाद लगभग बिखर गया था और उसके कम से कम 30 टुकड़े हो गये थे। लेकिन बाद में वे फिर संगठित होने लगे। वे अब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिवादी जनशक्ति) के बैनर तले एकजुट हो गये। वे देश के कुछ हिस्सों में अपनी सरकार चला रहे हैं। उनकी अपनी सेना और अर्थव्यवस्था भी आकार ले चुकी हैं और उनकी भावी योजनाएं और भी भयावह हैं।



सन् 1967 में नक्सलवाद की बुनियाद पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव में संथाल आदिवासी किसानों के सशस्त्र विद्रोह से पड़ी थी तो नक्सलवाद के संस्थापक चारू मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल ने भी यही सोचा था कि व्यवस्था परिवर्तन की क्र्रांति केवल ग्रामीण और पिछड़े झेल रहे हैं। चारू मजूमदार केे ”ऐतिहासिक आठ दस्तावेजों“ को नक्सल आन्दोलन की बाइबिल कहा जा सकता है। जब कलकत्ता में नक्सलवाद का नशा छात्रों पर छाने लगा और जाधवपुर विश्वविद्यालय, प्रेसिडेंसी कालेज कलकत्ता और सेंट स्टीफन्स कालेज आदि शिक्षा केन्द्रों में छात्र उग्र वामपन्थ की ओर झुकने लगे तो चारु मजूमदार को भी अपनी थ्योरी में संशोधन कर उसमें यह जोड़ना पड़ा कि क्रांतिकारी संघर्ष केवल देहात या पिछड़े इलाके ही में नहीं बल्कि कहीं भी एक साथ स्वतः छिड़ सकता है। नक्सलवाद से निपटने की रणनीति बनाने वालों को नहीं भूलना चाहिये कि सिर पर लाल कफन बांध कर गोलियां बरसाने वाले केवल जुनूनी नहीं हैं। उन्हें सिरफिरा कह कर आप केवल मुंह की ही वर्जिश करते हैं। वे बेहद खतरनाक हैं, क्योंकि वे बेहद मोटिवेटेड और बेहद होशियार हैं। वे दिग्भ्रमित नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के लिये बहुत ही स्पष्ट हैं। नेपाल में माओवादी एक तरह से सत्ता में पहुंच ही गये हैं। हालांकि वहां भी उनकी कल्पना का सर्वहारा राज कायम करना अभी भी दूर की कौड़ी ही है।



नक्सलवाद एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसे माओवादी लोकतंत्र का असली विकल्प और लोकतांत्रिक विकृतियों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता मानते हैं। देखा जाय तो अगर हमारे लोकतंत्र में सचमुच सब कुछ ठीकठाक होता तो यह नौबत ही नहीं आती। कुछ लोग अगर यह सोचते हैं कि यह केवल कुछ आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों की ही समस्या है तो वे भी भूल कर रहे हैं। प्रभावित ग्रामीण इलाके तो केवल कार्यक्षेत्र हैं, जबकि इस तरह के विचार के श्रोत विश्वविद्यालय, इन्जिनियरिंग और मेडिकल कालेजांे तथा अन्य उच्च शिक्षा केन्द्र हैं। इन उग्र विचारों के संवाहक और पोषक कोई देहाती खेतीहर मजदूर या आदिवासी नहीं बल्कि उच्च शिक्षित लोग हैं, जिनका मानना है कि सर्वहारा का राज बैलेट से नहीं बल्कि बुलेट से ही आ सकता है। बड़े-बड़े राजनीति सूरमा माओवाद की समस्या का समाधान टेबल टाक से निकालने की बात करते हैं, लकिन वास्तव में यही एक रास्ता होता तो आन्ध्र प्रदेश में स्वर्गीय मुख्यमंत्री वाइ.एस.आर.रेड्डी ऐसी पहल पीपुल्स वार ग्रुप के साथ पहले ही कर चुके थे। उस समय भी जंगल से वार्ता के लिये कई क्र्रांतिकारी पहुंचे थे। उससे पहले वहां जनार्दन रेड्डी ने नक्सलवादियों पर प्रतिबन्ध लगाया तो बाद में एन.टी.रामाराव आये और उन्होंने नक्सलियों को स्वाभाविक सहयोगी बता कर प्रतिबन्ध हटा दिया। उनके बाद रामाराव के दामाद चन्द्रबाबू नायडू ने सत्ता सम्भाली तो उन्होंने फिर प्रतिबन्ध लगा दिया। वास्तव में ऐसी वार्ताओं में समय की बरबादी के अलावा कुछ नहीं हो रहा है। माआत्से तुंग की तरह उनके अनुयायियों का भी मानना है कि राजनैतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है और राजनीति एक रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति है।



कानपुर की विजय कुमारी पूरे 19 साल तक इसलिये जेल में रही क्योंकि उसके पास जमानत के 5 हजार रुपये नहीं थे। ऐसी न जाने कितनी कितनी विजय कुमारियां और लाखों बच्चे होगे जो कि धनाभाव में न्याय से वंचित रह जाते हैं। जबकि धनवान, सत्तावान और प्रभावशाली लोगों के लिये कानून रखैल की तरह हो गया है। वास्तव में हमारा लोकतंत्र आम आदमी के लिये कम और शोषक शासक वर्ग के लिये अधिक साबित हो रहा है। यह तंत्र उस ‘लोक‘ का ह,ै जो तमाम सहूलियतों, संसाधनों, तरक्की के अवसरों और यहां तक कि कानून और न्याय को भी खरीद रहा है। एक अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा या जाहिल मगर पैसे वाला व्यक्ति झूट, जाति-बिरादरी, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर चुनाव जीत कर पढ़े लिखे आइ.ए.एस. पर हुक्म चला सकता है। जीतने वाले प्रत्याशियों को मतों के बंटवारे और मतदाताओं की उदासीनता के कारण कुल मतों के आधे भी नहीं मिल पाते इसलिये वे बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते। खर्चीले चुनाव भी अपने आप में लोकतंत्र की विकृति के कारक हैं। एक लम्पट नेता या भ्रष्ट नौकरशाह या फिर गरीबों का खून चूसने वाला धन्ना सेठ काली कमाई पर ऐश करता है और देशवासियों का पेट भरने वाला तथा उनके तन ढकने के लिये कपास उगाने वाला किसान गरीबी से तंग आ कर आत्महत्या करता है।



निर्धनता,बेरोजगारी, सामाजिक अन्याय तथा भ्रष्ट राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था ही वे मुख्य बीमारियाँ हैं जिनका उपचार कर माओवादी समस्या से निजात पाई जा सकती है। पिछली एन.डी.ए. सरकार के कार्यकाल में एक कमेटी ने संविधान की समीक्षा की थी मगर वह समीक्षा आल्मारियों में समा गयी। दरअसल हमारे रहनुमाओं को यही व्यवस्था भा गयी है। आप यह भी कह सकते हैं कि वे इसी व्यवस्था में स्वयं को ढाल गये हैं।



-जयसिंह रावत

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